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आनंद के सूत्र

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आयु के तीसरे चरण में माता-पिता को अपने अतीत को भूलकर भविष्य की ओर देखना चाहिए, ताकि बच्चों के प्रति उनका प्रेम, और बच्चों का उनके प्रति सम्मान बना रहे। संसार में सभी जीव ईश्वरप्रदत्त इस ज्ञान का उपयोग कर सुखी रहते हैं। सुखी, संतुष्ट और गरिमामय जीवन के लिए आवश्यक है कि अपनी योग्यता का उपयोग किया जाए, किंतु दूसरों को वैसा करने के लिए बाध्य न करें। हर पशु यही करता है। वह वही खाता-पीता है, जो उसे प्रिय है। उसे यह समझने के लिए किसी से कुछ सीखना नहीं पड़ता है। वस्तुतः, माता- पिता बच्चों के वर्तमान में उन्हें जो सिखाना चाहते है, समय का तीसरा काल उन्हें वह सब सिखा देता है और वे सींख लेते हैं। हमें सृष्टि का नियामक बनने की मिथ्या चेष्टा से बचना चाहिए।

विभाजन की प्रक्रिया में विभाजित होने से बचना चाहिए। विभाजन सृष्टि का अकाट्य सत्य है। उसे विस्तार के रूप में देखने का स्वभाव बना लेना सुखी जीवन का कारण हो सकता है। उपयोग के पश्चात शेष को छोड़ देना और बीज रोपड़ से पुनः उसी पदार्थ के पुनर्जीवन की प्रक्रिया सृष्टि के साथ जुड़ी हुई हैं। जड़ से सीख लेना ही हमारी चैतन्यता की सिद्धि है। संसार की सहज प्रक्रिया को समझकर उसे स्वीकार करके हम बिना किसी मूल्य के सुख ले सकते हैं। इसके उलट संसार की प्रक्रिया और प्रकृति को परिवर्तित करने की अपनी आधारहीन इच्छा के कारण हम अपने पुरुषार्थ को विनष्ट करके दुख और अवसाद में जा सकते हैं।

आकाश से लेकर जमीन तक जितनी प्रकृति और रंग भेद है वह सब ईश्वर का अनुग्रह है, जो उसने कृपास्वरूप हमें सुख देने और सुखी करने के लिए उपलब्ध कराया है। यही श्रेयस्कर है कि हम जीवन से परिवर्तन अभियान की आशा का त्याग करके स्वयं परिवर्तित हो जाएं, ईश्वर में एकनिष्ठ रहें और परमानंद पाकर अपनी भावी पीढ़ियों को • मंगलमय पथ पर चलने का राजमार्ग बनाएं।

— स्वामी मैथिलीशरण

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