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बीच का रास्ता

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रमेश मनोहरा

 

रिश्ते से वह भाभी लगती थी, सगी भाभी तो नहीं, मगर वे मेरे छोटे मामा के लड़के अविनाश की पत्नी विमला थी। ‘थी’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूं कि अभी अभी हम उन्हें श्मशान में खाक करके आये हैं। कैंसर से ग्रसित विमला भाभी दो साल तक जीवन मृत्यु के बीच झूलती रहीं। अंतत: मौत जीत गई, मौत किसी से नहीं हारी है। अविनाश भैया सेवानिवृत्त शिक्षक हैं, उन्होंने अपनी पत्नी अर्थात विमला भाभी के इलाज हेतु कोई कसर नहीं छोड़ी थी, फिर भी वे उसे जीवन नहीं दे सके।

 

परिवार और करीब के रिश्तेदार सब आंगन में दरी बिछाकर इस दुख की घड़ी में सहभागी बने हुए थे। इसी बीच बड़े मामाजी जमनाप्रसाद बार-बार अविनाश की ओर देख रहे थे। इस आस से कि अब अगला कार्यक्रम तय करना है, मगर भैया भाभी के गम में खामोश बैठे थे। शायद भाभी का गम कई सालों तक परेशान करता रहेगा। जो स्वाभाविक है। उम्र के इस पड़ाव पर आकर पत्नी और पति को एक दूसरे की जरूरत होती है।ऐसे समय पत्नी साथ छोड़कर चली जाए तब उस पुरूष को बहुत अधिक पछतावा होता है। शायद यही पछतावा अविनाश भैया को अभी से खाये जा रहा था, मगर यह तो कुदरत का चक्र है, जिसकी जितनी उम्र लिखी होती है, उतने ही साल वो जिंदा रहता है। बीमारी केवल बहाना होती है, ऊपर वाले के हाथ मे डोर होती है, हम सब पृथ्वी पर रहने वाली कठपुतियां होती हैं, आखिर बड़े मामा अविनाश अपना मौन तोड़ते हुए बोले- अरे अविनाश अब आगे के कार्यक्रम के बारे में क्या सोचा है।

 

मगर अविनाश ने कोई जवाब नहीं दिया। ऐसा भी हो सकता है उन्होंने बड़े मामाजी की बात न सुनी हो, ऐसा लग रहा था, जैसे शून्य में देख रहे हो, तब बड़े मामा फिर बोले- तुमने जवाब नहीं दिया अविनाश?

 

क्या जवाब दूं। इस बार अविनाश भैया जरा खुले, उनकी बात से लगा कि वे भीतर ही भीतर भाभी का गम अब भी पाले हुए हैं, मामाजी अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बोले- मेरा मतलब यह है अविनाश विमला का तुम्हारे साथ इतना ही साथ था, अब उसके त्रयोदशी कार्यक्रम की रूपरेखा तय करना है, इस बारे में कह रहा हूं।

 

इस बारे में मैंने नहीं सोचा है, टका सा जवाब देकर अविनाश भैया ने अपनी बात कह दी।

 

तब मामा बोले- अरे समाज के रीति रिवाज के अनुसार पगड़ी की रस्म अदायगी करना पड़ेगी न, मैं उसकी बात कर रहा हूं।

 

पगड़ी की बात तो अब मैं सोच भी नहीं सकता।

 

अरे क्यों भला? यह तो समाज की परंपरा है, समझाते हुए मामा बोले।

 

आज तुम्हारे पिता नहीं है, इसका यह मतलब नहीं है कि तुम सारे ही रीति रिवाजों को भी भूल जाओ, फिर पगड़ी की रस्म अदा नहीं करोगे, तब समाज में क्या संदेश जायेगा।

 

समाज ने उस समय नहीं सोचा, जब विमला कैंसर से ग्रस्त थी, दो साल में उसके लिए ढाई लाख रुपए इलाज में खर्च कर दिये। रिटायरमेंट का मिला आधा पैसा खर्च हो गया, अब शेष जिंदगी के लिए खर्च नहीं करना चाहता हूं, अत: पगड़ी की रस्म नहीं करना चाहता हूं। कहकर अविनाश भैया ने अपना फैसला सुना दिया। अविनाश भैया के फैसले को सुनकर सभी खामोश हो गए। किसी के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। अविनाश भैया ने यह कहकर सभी रास्ते बंद कर दिये थे। सारे रिश्तेदार और परिचित जानते थे, अविनाश भैया ने विमला भाभी के इलाज के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। खूब पैसा खर्च किया। ऐसे में अविनाश ने साहसिक फैसला लेकर सबको चौंका दिया, तब कोई नहीं रिश्तेदार बोला। सब अविनाश भैया के इस फैसले के आगे नतमस्तक हो गये। फिर भी मामाजी को इस अवसर पर बोलने का हक था। अत: वे बोले देख अविनाश, यह फैसला लेकर तूने अच्छा नहीं किया। यदि पगड़ी की रस्म नहीं करेगा, विमला की आत्मा भटकेगी, वह तुझे परेशान करेगी, इसलिए मैं कहता हूं, इस बारे में एक बार पुन: विचार कर लो।

 

मैंने जो फैसला लिया है, सोच-समझकर लिया है, फिर रहा सवाल पगड़ी की रस्म नहीं करूंगा तो विमला की आत्मा भटकेगी, यह अंधविश्वास है। शरीर से एक बार प्राण निकल जाते हैं, वह आत्मा किसी दूसरे शरीर में प्रवेश कर लेती है, मैं नहीं मानता ऐसी ढोंग भरी परंपरा को।

 

अरे युगों से चली आ रही समाज की परंपराओं को ढोंग बता रहा है, जरा तीखे स्वर में मामाजी बोले- तुझे पगड़ी की रस्म अदा नहीं करना हो तो मत कर, मगर परंपराओं पर कुठाराघात मत कर। बुजुर्गों ने जो हमारे पुरखे कहलाते हैं, समाज के जो रीति रिवाज बनाए थे, बड़े सोच समझकर बनाये थे।

 

हां बनाए थे, जिस समय ये रीति रिवाज बने थे, उस वक्त इनकी आवश्यकता थी। आज समय परिवर्तनशील है। हम कब तक इन सड़ी गली मान्यताओं को ढोते रहेंगे। आगे आकर किसी न किसी को इसकी पहल करना होगी। अविनाश भैया ने जब यह समझाया तब मामाजी को लगा, उनकी मान्यता पर सीधा सीधा हमला है। परिवार में वे बड़े हैं, उनका भी दायित्व बनता है, जब वे पगड़ी की रस्म नहीं करेंगे तो लोग उन्हें कहेंगे, परिवार में बड़े हो, अविनाश को समझा नहीं सकते थे। जरा कड़कती आवाज में बोले- देख अविनाश मैं परिवार में बड़ा हूं, बड़ा होने के नाते तुझे तो लोग कुछ नहीं कहेंगे, सब मुझे ही कहेंगे, तू अपने साथ मेरी भी नाक क्यों कटवाना चाहता है।

 

आप क्यों नहीं समझते हैं कि हम कब तक पुरानी मान्यताओं पर चलते रहेंगे। जितना तुम समझ रहे हो अविनाश इसे तोडऩे की यह इतना आसान नहीं है, पगड़ी की रस्म तो करनी पड़ेगी, समाज हमारी खिल्ली उड़ायेगा। समाज तो दोनों हाथों में लड्डू रखता है। अविनाश, समझाते हुए बोला- रस्मो रिवाज के अनुसार कितना भी अच्छा खिला दो फिर भी किसी चीज में मीन मेख निकालेगा, रसोई अच्छी बनेगी तो तारीफ कर देगा, रसेाई अच्छी नहीं बनी तो आलोचना करेगा, हर हाल में आलोचना सहना है। अविनाश समझाते हुए बोला।

 

मतलब तुम्हारा फैसला है, तुम तेरहवीं की रस्म नहीं करोगे। बड़े मामाजी उसी तरह नाराजी से बोले।

 

प्रत्युत्तर में अविनाश भैया ने कोई जवाब नहीं दिया। वातावरण में तनाव बना रहा। अविनाश जिन मान्यताओं को दफनाना चाहता है, उसकी जड़ें समाज में इतनी गहरी जम चुकी हैं कि चाहकर भी हम नहीं उखाड़ सकेंगे। मृत्यु भोज किसी किसी समाज में बंद जरूर हुआ है, मगर आज भी इसकी जड़ें गहरी जमी हई हैं। आज भी मृत्यु भोज की परंपरा कायम है, जब उसने कोई जवाब नहीं दिया, तब मामाजी ने फिर पूछा- ठीक है अविनाश जो पंरपरा वर्षों से चली आ रही है, उसे तुम तोड़ रहे हो, तुमने बहुत वीरता का काम किया है, मैं तुझसे खुश हूं।

 

उनकी बात में गहरा व्यंग्य था, यह अविनाश ने एहसास कर लिया था, अब रिश्तेदारों के सामने उनकी यह लड़ाई और नंगी न हो इसलिए। फूफाजी बोले- इस लड़ाई का हल नहीं निकलेगा। प्याज के छिलके की तरह छिलके उतरते जायेंगे, अब कोई बीच का रास्ता निकाला जाए।

 

फूफाजी ने यह कहकर सबको चिंतन में डाल दिया, बीच का ऐसा कौन सा रास्ता हो, जिससे हल निकल जाए। सब इस बारे में गहन चिंतन करने लगे, मगर किसी नतीजे पर न पहुंच सके। थोड़ी देर बाद अविनाश खुद बोले- मैंने बीच का रास्ता खोज लिया।

 

वो कैसे? बड़े मामाजी बोले।

 

13वीं की रस्म होगी, प्रसन्नता से अविनाश बोले- रसेाई में मिठाई नहीं बनाना चाहता हूं।

 

अरे मिठाई के बिना रसोई नहीं कहलाती है। फूफाजी ने सुझाव दिया।

 

मैं जानता हूं फूफाजी, मगर पुरानी मान्यताओं को तोडऩे के लिए शुरूआत इससे की जाए तो आप लोगों का क्या विचार है अविनाश ने कहा। हां अविनाश मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं, किसी तरह की कोई मिठाई नहीं बनेगी। कहकर मामाजी के दिमाग में परिवर्तन का मोड़ आ गया। बहरहाल कुंठित वातावरण में प्रेम के अंकुर फूटे। भारी वातावरण अब हल्का हो चुका था, फिर वे तेरहवीं कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने लगे। (विभूति फीचर्स)

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