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दुनियाँ में प्रचलित न्याय की देवी के प्रतीक में भारतीय बदलाव की पहल-आंखों की पट्टी ख़ोल हाथ में संविधान दिया 

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ब्रिटिश काल क़े आपराधिक कानून को बदलने के बाद न्याय की देवी के प्रतीक में महत्वपूर्ण बदलाव इसी कड़ी में बड़ा क़दम

 

वर्तमान डिजिटल इलेक्ट्रॉनिक एविडेंस युग में खुली आंखों से संवैधानिक मार्ग से न्यायिक प्रक्रिया अधिक पारदर्शी होने की संभावना-एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र

 

गोंदिया- वैश्विक स्तरपर पूरी दुनियाँ अब डिजिटलाइजेशन की ओर तेज़ी से बढ़ रही है। किसानों से लेकर स्वास्थ्य शिक्षा न्याययिक प्रक्रिया सहित हर क्षेत्र में प्रणाली अब डिजिटल हो रही है। डॉक्यूमेंट से लेकर इविडेंस तक का डिजिटलाइजेशन कर दिया गया है,जो एक क्लिक से पूरे रिकॉर्ड स्क्रीन आ जाते हैं। आज हम इस विषय पर चर्चा इसलिए कर रहे क्योंकि दिनांक 17 अक्टूबर 2024 को देर शाम न्याय की देवी प्रतिमा में जिसके एक हाथ में तराजू व दूसरे हाथ में तलवार थी जो दुनियाँ के कई देशों की अदालती व कानून से जुड़े संस्थानों में सदियों से मौजूद है जो भेदभाव के विरुद्ध व समानता के पक्ष में था उसको बदलकर अब भारत नें उस प्रतिमा क़ी आंखों की पट्टी हटा दी गई है तथा दूसरे हाथ में तलवार की जगह संविधान की कॉपी दी गई है। यह देखकर मुझे 8 अप्रैल 1983 को टी रामाराव द्वारा निर्देशित 161 मिनट की अंधा कानून फिल्म याद आ गई, जिसका गाना ये अंधा कानून है,जो आज सबको सुनना चाहिए तो शायद समझ में आ जाएगा कि आंखों से पट्टी हटाना कितना ज़रूरी था हालांकि प्रतिमा सुप्रीम कोर्ट में पिछले वर्ष अप्रैल 2023 में नई जज लाइब्रेरी के पास स्थापित कर दी गई थी, लेकिन इसकी तस्वीर आज सामने आई और मीडिया के हर प्लेटफार्म पर वायरल हो रही है। इसलिए आज मैंने इस विषय को लेकर आर्टिकल बनाने का निर्णय लिया हूं क्योंकि मैं बचपन से इस प्रतिमा को देख रहा हूं और अभी अपने वकालत के प्रोफेशन के कारण इससे जुड़ा हुआ भी हूं, परंतु वर्तमान डिजिटल इलेक्ट्रॉनिक एविडेंस युग में खुली आंखों से संविधान मार्ग से न्यायिक प्रक्रिया अधिक पारदर्शी होने की संभावना है, इसलिए आज हम मीडिया में उपलब्ध जानकारी के सहयोग से इस आर्टिकल के माध्यम से चर्चा करेंगे, दुनियाँ में न्याय की प्रतीक देवी के प्रतीक में भारतीय बदलाव की पहल आंखों की पट्टी खोल,हाथ में संविधान दिया गया है।

साथियों बात अगर हम न्याय की देवी के प्रतीक में महत्वपूर्ण बदलाव की करें तो, ब्रिटिश काल की विरासत को पीछे छोड़ने की कोशिश इस मूर्ति को ब्रिटिश शासन की विरासत को पीछे छोड़ने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है। हाल ही में भारत सरकार ने ब्रिटिश शासन के समय से लागू इंडियन पीनल कोड कानून की जगह भारतीय न्याय संहिता कानून लागू किया था। लेडी ऑफ जस्टिस की मूर्ति में बदलाव करना भी इसी कड़ी के तहत उठाया कदम माना जा सकता है।सीजेआई ऑफिस से जुड़े प्रमुख सूत्रों ने एक मीडिया हाउस बताया कि सीजेआई का मानना है कि भारत को ब्रिटिश विरासत से आगे बढ़ना चाहिए। उनका विश्वास है कि कानून अंधा नहीं होता है,यह सभी को समान रूप से देखता है।यानें धन, दौलत और समाज में वर्चस्व के अन्य मानकों को कोर्ट नहीं देखता है।सूत्र के मुताबिक, यही वजह थी कि सीजेआई ने लेडी ऑफ जस्टिस का रूप बदलने की बात रखी। उन्होंने कहा कि मूर्ति के एक हाथ में संविधान होना चाहिए न कि तलवार, ताकि देश को यह संदेश मिले कि न्याय संविधान के अनुसार दिया जाता है। तलवार हिंसा का प्रतीक है, लेकिन कोर्ट संवैधानिक कानूनों के अनुसार न्याय देते हैं।

साथियों बात अगर हम नई प्रतिमा का अप्रैल 2023 में सुप्रीम कोर्ट की नई जज लाइब्रेरी के पास स्थापना करने की करें तो, सुप्रीम कोर्ट में न्याय की देवी वाली प्रतिमा में बड़े बदलाव किए गए हैं। अबतक इस प्रतिमा पर लगी आंखों से पट्टी हटा दी गई है, वहीं, हाथ में तलवार की जगह भारत के संविधान की कॉपी रखी गई है। मीडिया के हवाले से सुप्रीम कोर्ट के सूत्रों का कहना है कि यह नई प्रतिमा पिछले साल बनाई गई थी और इसे अप्रैल 2023 में नई जज लाइब्रेरीके पास स्थापित किया गया थालेकिन अब इसकी तस्वीरें सामने आई हैं जो वायरल हो रही हैं, जानकारी के अनुसार, पहले इस प्रतिमा में आंखों पर बंधी पट्टी कानून के सामने समानता दिखाती थी, इसका अर्थ था कि अदालतें बिना किसी भेदभाव के फैसला सुनाती हैं. वहीं, तलवार अधिकार और अन्याय को दंडित करने की शक्ति का प्रतीक थी। हालांकि अब सुप्रीम कोर्ट जजों की लाइब्रेरी में लगी न्याय की देवी की नई प्रतिमा में आंखें खुली हुई हैं और बाएं हाथ में संविधान है।

साथियों बात अगर हम लेडी ऑफ जस्टिस के इतिहास की करें तो, न्याय की देवी यानी लेडी ऑफ जस्टिस का इतिहास कई हजार साल पुराना है।इसकी अवधारणा प्राचीन ग्रीक और मिस्र की सभ्यता के दौर से चली आ रही है. न्याय की देवी, जिसे लेडी जस्टिस भी कहते हैं, की प्राचीन छवियां मिस्र की देवी मात से मिलती-जुलती हैं। मात मिस्त्र के प्राचीन समाज में सत्य और व्यवस्था की प्रतीक थीं. ग्रीक पौराणिक कथाओं में न्याय की देवी थीमिस और उनकी बेटी डिकी हैं, जिन्हें एस्ट्राया के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन यूनानी दैवीय कानून और रीति रिवाजों की प्रतिमूर्ति देवी थेमिस और उनकी बेटी डिकी की पूजा करते थे. डिकी को हमेशा तराजू लिए हुए चित्रित किया जाता था और ऐसा माना जाता था कि वह मानवीय कानून पर शासन करती है। प्राचीन रोम में डिकी को जस्टिटिया के नाम से भी जाना जाता था। ग्रीक देवी थीमिस कानून, व्यवस्था और न्याय का प्रतिनिधित्व करती थी, जबकि रोमन सभ्यता में देवी मात थी, जो कि व्यवस्था के लिए खड़ी एक ऐसी देवी थी जो तलवार और सत्य के पंख रखती थी। हालांकि, मौजूदा न्याय की देवी की सबसे सीधी तुलना रोमन न्याय की देवी जस्टिटिया से की जाती है।न्याय सबके लिए है और न्याय की देवी के सामने सभी बराबर हैं, इस दार्शनिक सिद्धांत की प्रतीक न्याय की देवी भारत ही नहीं दुनिया के कई देशों की अदालतों, कानून से जुड़ेसंस्थानों में सदियों से मौजूद है। आंखों पर पट्टी बांधे, एक हाथ में तराजू और दूसरे हाथ में तलवार लिए न्याय की देवी के प्रतीकों में भारत में बदलाव की पहल की गई है।न्याय की देवी की आंखों की पट्टी खोल दी गई है और उनके एक हाथ में तलवार की जगह संविधान आ गया है,न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी क्यों बंधी होती है, इसका जवाब भी दिलचस्प है। ऐसा इसलिए है क्योंकि किसी को देखकर न्याय करना एक पक्ष में जाना हो सकता है। आंखों पर पट्टी बंधे होने का मतलब है कि न्याय की देवी हमेशा निष्पक्ष होकर न्याय करेंगी। इस तरह, जस्टिया की मूर्ति हमें याद दिलाती है कि सच्चा न्याय निष्पक्ष और बिना किसी भेदभाव के होना चाहिए।

अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विशेष विश्लेषण करेंगे तो हम पाएंगे कि दुनियाँ में प्रचलित न्याय की देवी के प्रतीक में भारतीय बदलाव की पहल आंखों की पट्टी ख़ोल हाथ में संविधान दिया।ब्रिटिश काल क़े आपराधिक कानून को बदलने के बाद न्याय की देवी के प्रतीक में महत्वपूर्ण बदलाव इसी कड़ी में बड़ा कदम।वर्तमान डिजिटल इलेक्ट्रॉनिक एविडेंस युग में खुली आंखों से संवैधानिक मार्ग से न्यायिक प्रक्रिया अधिक पारदर्शी होने की संभावना है

 

*-संकलनकर्ता लेखक – क़र विशेषज्ञ स्तंभक़ार अंतर्राष्ट्रीय लेखक एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र*

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