पहले खुद भरतनाट्यम सीखा, फिर कॉमर्स को ‘टूल’ बना क्लासिकल-डांस और छापा-कला बचाने को चलाई मुहिम
नदीम अंसारी
लुधियाना 27 मई। वाकई नई पीढ़ी बेहद ऊर्जावान और रचनात्मकता से लबरेज है। इसी शहर की होनहार बेटी सायशा भास्कर इसकी एक बड़ी मिसाल बनने की राह पर है। शहर के बाड़ेवाल इलाके में रहने वाले कारोबारी-घराने में पली-बढ़ी यह ‘अलग-सोच वाली’ लड़की सेक्रेड हार्ट स्कूल की सराभा नगर ब्रांच में प्लस टू की स्टूडेंट है। कुछ अलग करने के जज्बे ने इसकी कलात्मक सोच में चार-चांद लगा दिए हैं। उसने विरासती नृत्य के साथ वजूद खोती छापा-कला को सहेजने की बड़ी चुनौतीपूर्ण मुहिम महज 17 साल की छोटी उम्र में चला रखी है।
बकौल सायशा, अपने सपनों को पंख देने के लिए एक धरातली-मंच चाहिए था। लिहाजा उसने ‘आरक्सा-कला’ नाम से एनजीओ बनाया। इत्तेफाक देखिए, इस हुनरमंद लड़की के नाम सायशा का अर्थ गुड-विशेज होता है। कुदरत ने भी उसे खुश आमदीद कहा और जो एनजीओ उसने बनाया, उसका अर्थ कला का संरक्षण है। लिहाजा शुभकामनाएं सायशा के पास पहले से ही थीं, मिशन भी नेक था, लिहाजा कामयाबी कदम चूमती चली गई।
सुनने में अजीब, मगर गजब तालमेल : एकबारगी सुनने में अजीब लगता है कि क्लासिकल-डांस भरतनाट्यम और ब्लॉक्स-आर्ट यानि भारत की पारंपरिक ठप्पे वाली कला का भला क्या कांबिनेशन हो सकता है। सायशा सहजता से समझाती है कि गौर करिए, भरतनाट्यम पारंपरिक साड़ी पहनकर किए जाने वाला भारतीय-शास्त्रीय नृत्य है, जो तमिल-बैल्ट का लोकप्रिय नृत्य है। इसमें ड्रैस, ज्यूलरी,मेकअप और खासतौर साड़ी ट्रेडिश्नल-लुक वाली होती है। दूसरी तरफ, शास्त्रीय नृत्य में इस्तेमाल होने वाली साड़ियां सिल्क-स्टफ जरुर होती हैं, लेकिन उसमें छापा-कला भी झलकती है। हालांकि बदले दौर में अब कंप्यूटराइज्ड मशीनों पर ही ऐसी साड़ियां डिजाइन हो जाती हैं। इस वजह से भी तेजी से छापा-कला दम तोड़ रही है। सायशा के मुताबिक यही सोचकर उनके दिमाग में शास्त्रीय नृत्य और पारंपरिक कला का कांबिनेशन कर दोनों के संरक्षण का ख्याल आया।
होम-वर्क किया तो नतीजे अच्छे रहे : स्कूल में भरतनाट्यम सीख एक्सपर्ट हो चुकी सायशा ने दो मोर्चों पर काम शुरु किया। अपनी डांस-परफार्मेंस से स्कूल में स्टूडेंट्स को मोटिवेट करने की कोशिश जारी रखी। नृत्य-कला की शिक्षा देने वाली स्कूल टीचर पिंकी चौधरी ने उसको प्रेरित किया तो हौंसला दोगुना हो गया। इंटर-स्कूल सहोदय मुकाबले में दूसरी पोजीशन आई। सायशा के साथ डांस-सब्जेक्ट में महज दो स्टूडेंट्स थे, नए सेशन में करीब दस हो चुके हैं। खैर, छापा-कला को कैसे सहेजें, इसे लेकर भी सायशा ने जमीनी-काम शुरु किया। शहर में बचे चुनिंदा कारीगरों से मिलकर एक ठोस योजना बनाई। उन कारीगरों को इको-फ्रेंडली यानि खादी का कपड़ा मुहैया करा डिजाइन भी दिया। फिर उनसे तैयार कराई साड़ी कल चंडीगढ़ में विरासती-कला प्रदर्शनी में खुद लेकर गई।
मेहनत रंग लाई, पापा के चेहरे पर रौनक आई : सायशा के पिता तरुण भास्कर बिजनेसमैन हैं और उसकी मम्मी पुन्नू भास्कर इंटीरियर डैकोरेशन का कोर्स कर चुकी हैं, लेकिन हाउस-वाइफ ही हैं। बेशक पापा बिजी रहते हैं, लेकिन वक्त निकालकर बेटी की नैतिक-मदद उसकी मम्मी की तरह ही बराबर करते हैं। उत्साहित होकर बताने लगे कि बेटी को चंडीगढ़ एग्जीबिशन में अच्छा रिस्पांस मिला। कई लोगों ने यह भी कहा कि वे छापा-कला से बनी साड़ियां मंगवाएंगे। हमारी बेटी को इससे भले ही कोई बड़ा कमर्शियल-फायदा न मिले, लेकिन दम तोड़ती इस कला के साथ कारीगरों को रोजगार मिलेगा, इस बात की दोगुनी खुशी है। खुद सायशा भी यह सोचती है कि मम्मी की एक सहेली ने छापा-कला के बारे जानकारी मिली थी। अब वही जानकारी एक मिशन बन गई, जिसे समाज के हर वर्ग तक पहुंचाकर इस पारंपरिक कला को बचाने की मुहिम तेज करनी है। यह समाजसेवा का अपना एक और अलग तरीका साबित होगा, ऐसी मुझे पूरी उम्मीद है।
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