मुद्दे की बात : हिमाचल में मानसूनी आपदा मानव निर्मित !

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एक्सपर्ट ने चेताया, अब भी नहीं सुधरे तो मचेगी भारी तबाही

अनियंत्रित निर्माण, दोषपूर्ण विकास मॉडल और पर्यावरणीय उपेक्षा ने हिमाचल को बार-बार होने वाली तबाही के क्षेत्र में बदल दिया है। इसे लेकर विशेषज्ञ किसी भी और संकट को टालने के लिए तत्काल, स्थान-विशिष्ट योजना बनाने की मांग कर रहे हैं।

दरअसल हिमाचल प्रदेश के लोग आज जिस मानसूनी कहर का सामना कर रहे हैं और पिछले चार वर्षों से झेल रहे हैं, उसकी जड़ें 1980 और 1990 के दशक में शुरू हुईं। अनियंत्रित चार-पांच मंज़िला निर्माण प्रक्रियाओं से जुड़ी हैं। इसके अलावा, इस पहाड़ी राज्य में केंद्र का दोषपूर्ण विकास मॉडल भी है, जिससे यह आत्मनिर्भर हो गया। साथ ही इस तरह जलविद्युत परियोजनाओं के लिए अपनी नदियों के दोहन को बढ़ावा दिया। अंत में, पर्यटन को गति देने के लिए फोर-लेन राजमार्गों और सुरंगों का निर्माण ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ।

इस दौरान, नाज़ुक ज़मीन पर बहुमंजिला इमारतें बनने लगीं। लालच के चलते लोगों ने 70 डिग्री की ढलानों पर घाटियों और प्राकृतिक नालों में भी अंधाधुंध विशाल ढांचे खड़े कर दिए। अपने-अपने वोटों की रक्षा के लिए, एक के बाद एक सरकारों ने आंखें मूंद लीं, बेतहाशा निर्माण की अनुमति दी और वास्तव में उसे वैध भी कर दिया। आज उन अदूरदर्शी उपायों के दुष्परिणाम उनके काले पक्ष को उजागर कर रहे हैं।

परिणामस्वरूप, प्राकृतिक जल निकासी, नदियां और नाले दूसरी जगहों पर अवांछित जल निकायों के रूप में उभर आए। इस व्यवधान के कारण जलभराव, बाढ़, मृदा अपरदन, भूस्खलन, मृत्यु और विनाश की घटनाओं में वृद्धि हुई। नाज़ुक ज़मीन पर बनी वही संरचनाएं ताश के पत्तों की तरह ढह रही हैं। पिछले तीन मानसून और इस बार भी हिमाचल मौत और बड़े पैमाने पर विनाश के चक्र में फंसा है। यहां काबिलेजिक्र है कि 2022 में वर्षाजनित घटनाओं के कारण 244 लोगों की मौत हुई, जिनमें से ज़्यादातर जून से सितंबर के महीनों में हुईं। 2023 में मौतों की संख्या 330 बताई गई थी। उस वर्ष, संपत्ति का भी भारी नुकसान हुआ था। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने तब कुल नुकसान लगभग 10,000 करोड़ रुपये होने का अनुमान लगाया था।

एक साल बाद 2024 में मानसून की तबाही के कारण 400 से ज़्यादा लोगों की जान चली गई और 400 करोड़ रुपये की संपत्ति का नुकसान हुआ। चालू वर्ष में मानसून की बारिश जारी रहने के बावजूद, बारिश से जुड़ी घटनाओं में 74 लोग मारे गए हैं और 400 करोड़ रुपये की संपत्ति का नुकसान हुआ। सभी सरकारों को हमेशा से प्राकृतिक आपदाओं के प्रति राज्य की संवेदनशीलता की सीमा का पता रहा है। हिमाचल प्रदेश राज्य पर्यावरण, विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद के अनुसार, विभिन्न ज़िलों में आपदा जोखिम का स्तर काफ़ी भिन्न होता है। चंबा, किन्नौर, कुल्लू, और कांगड़ा व शिमला के कुछ हिस्से ‘अत्यधिक’ संवेदनशील क्षेत्र में आते हैं। ऊना, कांगड़ा, मंडी, शिमला और लाहौल-स्पीति जैसे ज़िले ‘उच्च’ जोखिम वाले क्षेत्र में हैं, जबकि बिलासपुर, हमीरपुर, सोलन और सिरमौर ‘मध्यम’ जोखिम श्रेणी में आते हैं। यह ज़ोनिंग सभी के लिए एक ही दृष्टिकोण के बजाए अनुकूलित, ज़िला-स्तरीय आपदा तैयारी और पारिस्थितिक नियोजन रणनीतियों की तत्काल आवश्यकता पर जोर देती हैं।

धर्मशाला में रोमी खोसला संयुक्त राष्ट्र के अनुभवी वास्तुकार और मास्टर-प्लानर हैं, उन्होंने बाल्कन, चीन और यूरोप में काम किया है, इस समस्या का सटीक वर्णन करते हैं। वे कहते हैं, राजनेता पांच साल के चक्र से प्रेरित होते हैं, जबकि प्राकृतिक आपदाओं को केवल दीर्घकालिक समाधान, कम से कम 20 साल के चक्र को देखकर ही रोका जा सकता है। हिमाचल के बारे में, वे कहते हैं, पूरे राज्य के लिए एक ही मास्टरप्लान नहीं हो सकता। एक ज़िला-स्तरीय योजना होनी चाहिए। साथ ही तनाव-संवेदनशील बिंदुओं की पहचान की जानी चाहिए। जहां सड़कों, सुरंगों और किसी भी निर्माण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

उनके ही दृष्टिकोण का समर्थन ‘सिटीज़ इन ट्रांज़िशन’ के लेखक और शहरी परिवर्तन के विशेषज्ञ टिकेंदर सिंह पंवार भी करते हैं। पंवार कहते हैं, सदी में एक बार होने वाली चरम मौसम संबंधी घटनाएं अब ज़्यादा बार हो रही हैं। ये आपदाएं आकस्मिक नहीं हैं, ये हमारे अनियंत्रित लालच और शोषण का परिणाम हैं। केंद्र सरकार अक्सर पारिस्थितिक संतुलन और स्थलाकृति की पूरी तरह से अवहेलना करते हुए राज्यों पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने का दबाव बना रही है। सड़कों का अंधाधुंध विस्तार करके उन्हें फोर-लेन राजमार्गों में बदलने से समस्या और बढ़ रही है। यह बेलगाम तथाकथित विकास हमें विनाश की ओर ले जा रहा है। अगर हम तुरंत सुधारात्मक उपाय नहीं करते हैं, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक बहुत बड़े संकट की शुरुआत मात्र है।

खोसला आगे कहते हैं, हिमालय और उसके आसपास की ज़मीन अत्यधिक छिद्रपूर्ण है, क्योंकि 16 नदियां इन पर्वत श्रृंखलाओं से निकलती हैं। अगर हम स्थलाकृति के साथ ज़रा भी छेड़छाड़ करते हैं, जिससे नदियों के मार्ग में ज़रा भी बदलाव आता है तो हम मुसीबत को न्योता दे रहे हैं। हिमाचल प्रदेश की पर्यावरण न्याय कार्यकर्ता मानशी आशेर का मानना है कि आखिरकार यह बात समझ में आ रही है कि संकट सामने आ रहा है।

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