हरियाना/यूटर्न/18 सितंबर: अगर आपका बच्चा अपने सारे काम छोडक़र हर वक्त मोबाइल गेमिंग में लगा रहता है तो सचेत हो जाइए, इससे पहले कि स्थिति गेमिंग डिसऑर्डर तक पहुंच जाए। बच्चों को उसके परिवार का साथ, माता-पिता का सहयोग और उसके शौक इस गंभीर नशे के चंगुल में फंसने से बचा सकते हैं। यह जानकारी नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज के डॉफ अरुण कांदास्वामिका ने पीजीआई में नशे पर आयोजित सतत चिकित्सा शिक्षा कार्यक्रम के दौरान दी। डॉ. अरुण ने बताया कि उन्होंने गेमिंग डिसऑर्डर से संबंधित बच्चों पर किए गए शोध में यह साबित किया है कि जिन बच्चों के पास प्रोटेक्टिव फैक्टर जैसे परिवार, माता पिता, दोस्त, उनके शौक उपलब्ध हैं, उन पर इस नशे का दुष्प्रभाव न के बराबर पड़ता है। वहीं, जिन बच्चों के पास रिस्क फैक्टर जैसे अकेलापन, क्रोध, बीमारी, मानसिक समस्या, घबराहट संबंधी शिकायत है, वे मोबाइल गेमिंग के चंगुल में तेजी से फंसते हैं। डॉ. अरुण ने बताया कि शोध के दौरान उन्होंने गेमिंग करने वाले बच्चों के साथ ही प्रोफेशनल गेमर और उन बच्चों के माता-पिता से भी बात की, जिसमें यह बात पता चली कि प्रोफेशनल गेमर समय के अनुसार अपने गतिविधियों को सामान्य रूप से जारी रखते हैं। जिसके कारण उन पर इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता। जबकि असमय गेमिंग करने के कारण बच्चों की मानसिक और शारीरिक स्थिति पूरी तरह से प्रभावित होती है।
प्रोटेक्टिव फैक्टर बनाता है संतुलन
रिस्क और प्रोटेक्टिव फैक्टर सभी के पास होते हैं लेकिन जिन लोगों में रिस्क के बजाय प्रोटेक्टिव फैक्टर ज्यादा सक्रिय होता है उनमें संतुलन की प्रक्रिया आसानी से होती है। ऐसे में रिस्क फैक्टर वाले लोग संतुलन स्थापित न करने के कारण बिना सोचे समझे लगातार गेमिंग करते जाते हैं। डॉ. अरुण ने बताया कि कोविड के समय में सामाजिक संरचना पूरी तरह बदल गई। उस दौरान सबसे ज्यादा बच्चे परेशान हुए। उस समय गेमिंग का शौक तेजी से विकसित हुआ। ऐसी स्थिति में जिन बच्चों को परिवार का साथ मिला उन्होंने खुद को संतुलित स्थिति में बनाए रखा, जबकि जिन बच्चों को परिवार का साथ नहीं मिला वह गेमिंग में पूरी तरह डूब गए। पिछले 5 वर्षों में गेमिंग का नशा तेजी से बढ़ा है।
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