विवेक रंजन श्रीवास्तव
भारत के लोकतंत्र की रीढ़ उसके चौंकाने वाले निर्णय लेते मतदाता हैं। सारे कथित बुद्धिजीवी और ढ़ेरों वरिष्ठ पत्रकार, आर्टीफिशियल इंटेलीजेंस तथा एक्स्ट्रा पोलेशन के ग्राफ से हर चुनाव के परिणाम के पूर्वानुमान लगाते रह जाते हैं और देश के मतदाता अपने तरीके से निर्णय लेकर बरसों से कुरसियों पर काबिज क्षत्रपों को भी उठा कर खड़ा करने की ताकत रखते हैं। भारत में जनता खुद पर राज करने के लिये खुद ही अपने नेता चुनकर अपनी सरकारें बना लेते हैं। विशेषज्ञ एनालिसिस करते रह जाते हैं। भारत के मतदाता के निर्णय में भावना भी होती है , राष्ट्रभक्ति भी और दीर्घगामी परिपक्व सोच भी दिखती है। फ्री बीज से मताधिकार को प्रभावित करने के क्या कुछ प्रयत्न नहीं होते हैं, पर क्या सचमुच उससे परिणाम बदलते हैं ? सरे आम धर्म और जाति के कार्ड खेले जाते हैं , राजनैतिक दल वोटर आबादी के अनुसार उम्मीदवार चुनते दिखते हैं किंतु क्या इससे पिछले 77 सालों में लोकतंत्र कमजोर होता दिखता है? क्षेत्रीयता, आरक्षण, प्रलोभन, धन बल, बाहुबल, झूठा डर हमारे परिपक्व और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को कितना प्रभावित कर पाता है? दुनियां की अनेक विदेशी शक्तियां देश के चुनावों को प्रभावित करने के लिये स्पष्ट रूप से मीडिया के जरिये मनोवैज्ञानिक चालें चलती हैं और परोक्ष तरीकों से विदेशी धन हमारे चुनावों में इस्तेमाल करने की कोशिशें होती हैं, लेकिन कुछ बात है कि हमारी हस्ती हम ही हैं। क्या भारत के संविधान को बदलने की जरूरत है? क्या डेढ़ महीनों की लम्बी अवधि तक सरकारों को ठप्प करके चुनाव चलने चाहिये?
संविधान संशोधन आवश्यक हैं भी तो कितने और क्या? ये सारी बातें प्रत्येक बुद्धिजीवी , साहित्यकार, पत्रकारिता में अभिरुचि रखने वालों और हमारे युवा कहे जाने वाले देश की नव युवा आबादी को हमेशा से परेशान करती रही हैं। सब इसके उत्तर चाहते हैं। घर परिवार में , मित्रों में आपस में, टी वी चैनलों पर पैनल डिस्कशन्स में खूब बहस होती हैं, चाय की गुमटियों पर जाने कितनी चाय पी जाती है, कितने ही पान खाये जाते हैं, बहस होती है, किन्तु गणना से पहले कोई निर्णायक अंतिम परिणाम नहीं निकल पाते।
भारतीय चुनावों को समझने के इच्छुक युवाओं के लिये आदर्श आचार संहिता, चुनाव प्रक्रिया, उम्मीदवारों की योग्यता , राजनैतिक दलों की पात्रता हर वोटर को समझना जरूरी है। हमारी संस्कृति में भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा कर प्रजा जनों को वृष्टि आपदा से बचा लिया था। हर गृहणी पर आरोप लगता है कि वह अपनी उंगली पर अपने पति को नचा रही है। उसकी उंगली में ताकत प्रधानमंत्री जितनी शक्ति संहित होती है, या केवल राष्ट्रपति की ताकत सी नजर भर आती है, यह वास्तविकता तो सारी गृहस्थी का भार उठाये वह महिला ही जानती है। मतदाता के वोट डाल चुकने की सहज पहचान के लिये उसकी उंगली पर त्वरित रूप से न मिटने वाली स्याही से निशान लगा दिया जाता है , पोलिंग बूथ पर खड़ा मतदाता दरअसल वह मदारी है जिसकी उंगली पर लोकतंत्र नाचता है, उसे रिझाने मनाने बड़ी बड़ी रैलियां , रोड शो, सभायें होती हैं। धडक़ने थामें खुद मतदाता भी चुनाव परिणामों का इंतजार करते हैं, यह जानते हुये भी कि बहुत कुछ रातों रात बदलने वाला नहीं है, कोई नृप होय हमें का हानि, चेरी छोड़ न हुई हैं रानी! (विभूति फीचर्स)