चंडीगढ/यूटर्न/26 जुलाई: जो पति अपनी संपत्ति पत्नी से साझा करता हो, उसके साथ मिलकर संयुक्त निवेश करता हो और अन्य निवेशों में पत्नी को नामित करता हो उसे लालची और दहेज लोभी नहीं माना जा सकता। पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने यह अहम टिप्पणी करते हुए पति की तीन साल की सजा के आदेश को रद्द कर दिया है। 29 साल की कानूनी लड़ाई के बाद पीडि़त पति दोषमुक्त हुआ है। ज्ञात रहे कि अगस्त, 1995 को प्रीतम सिंह ने पुलिस को शिकायत दी थी कि उसकी बेटी जसविंदर कौर को उसके पति जसबीर सिंह, ससुर दलजीत सिंह व देवर कुलबीर सिंह ने जहर देकर मार दिया है। शिकायत के अनुसार उनकी बेटी को विवाह के बाद दहेज के लिए परेशान किया जा रहा था। शिकायतकर्ता की बेटी को मारुति कार व पैसे के लिए परेशान किया जा रहा था। 23 अगस्त, 1995 को शिकायतकर्ता को बताया गया कि उसकी बेटी ने जहर खा लिया है और उसे निजी अस्पताल में भर्ती करवाया गया है। शिकायतकर्ता वहां पहुंचा तो पता चला कि बेटी को सिविल अस्पताल में भर्ती करवाया गया है। वहां पर बेटी ने उसे बताया कि उसके पति व ससुराल वालों ने उसे जबरन जहरीला पदार्थ पिलाया है। इसके बाद उसकी बेटी की मौत हो गई थी।
ट्रायल कोर्ट ने सुनाई थी सजा
पुलिस ने शिकायत के आधार पर पहले आत्महत्या के लिए उकसाने और बाद में हत्या का मामला दर्ज किया था। ट्रायल कोर्ट ने इस मामले में केवल दहेज उत्पीडऩ का दोषी माना था और पति, ससुर व देवर को तीन-तीन साल की सजा 2002 में सुनाई थी। इस सजा के आदेश को याची ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी।
इन आधार पर रद्द की सजा
सभी पक्षों को सुनने के बाद हाईकोर्ट ने कहा कि अभियुक्त द्वारा प्रस्तुत सबूतों के अवलोकन से पता चलता है कि जसबीर सिंह ने अपने नाम और अपनी पत्नी के नाम पर संयुक्त रूप से कई निवेश किए थे और कई निवेशों में उसकी पत्नी नामित थी। इस तरह के आचरण से पता चलता है कि अभियुक्त के खिलाफ दहेज की मांग से संबंधित लगाए जा रहे आरोपों में कोई आधार नहीं है, क्योंकि अभियुक्त जसबीर सिंह को लालच से ग्रस्त व्यक्ति नहीं कहा जा सकता है। हाईकोर्ट ने कहा कि यदि अभियुक्त वास्तव में दहेज की मांग कर रहे थे, तो उन्होंने मृतक को विभिन्न खातों में संयुक्त धारक या नामित नहीं बनाया होता। केवल मौखिक साक्ष्य के आधार पर अभियोजन पक्ष दहेज की मांग आरोप लगा रहा है, जबकि अभियुक्त ने दस्तावेजी साक्ष्य पेश किए थे कि वह पत्नी के साथ अपनी संपत्ति साझा कर रहा था। इन परिस्थितियों में यह न्यायालय इस राय पर पहुंचता है कि अभियुक्त मृतक के साथ क्रूर था, इस आरोप में कोई सत्यता नहीं है। ऐसे में ट्रायल कोर्ट का आदेश सही नहीं है और इसे रद्द किया जाता है।
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