अभी कुछ तय नहीं, अमेरिका और पाकिस्तान के दावों में जमीनी-सच्चाई नहीं
अमेरिका के टैक्सस में 2019 में ‘हाउडी मोदी’ कार्यक्रम में डोनाल्ड ट्रंप को लेकर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ का नारा दिया था। अगले साल जब ट्रंप भारत आए तो अहमदाबाद में उनके स्वागत में ‘नमस्ते ट्रंप’ कार्यक्रम हुआ।
विश्लेषकों ने इसे दो नेताओं के बीच गर्मजोशी वाले रिश्तों के तौर पर देखा। साल 2024 में पीएम मोदी फिर से सत्ता में आए, उधर ट्रंप ने भी सत्ता में वापसी की। मीडिया में फिर दोनों नेताओं के रिश्तों के लेंस से भारत-अमेरिका संबंधों को देखा जाने लगा। हालांकि पिछले लगभग छह महीनों में ऐसा लग कि दोनों नेताओं के बीच रिश्ते पहले जैसे नहीं हैं। ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के बाद इस बार कई देशों पर टैरिफ़ यानि व्यापार शुल्क लगाने की घोषणा की। उनके मुताबिक अमेरिकी बाज़ार में बाक़ी देशों से सामान सस्ते दामों पर आता है, जबकि अमेरिकी सामानों पर दूसरे देश अधिक शुल्क वसूलते हैं। हालांकि, टैरिफ़ की घोषणा के बाद ट्रंप ने व्यापार समझौते पर बात करने के लिए इन देशों को 90 दिनों की छूट दी। मगर, 30 जुलाई को ट्रंप ने भारत पर 25 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाने की घोषणा कर दी। इसके अलावा ट्रंप ने रूस से तेल ख़रीदने पर पेनल्टी लगाने की भी बात कही। भारत पर टैरिफ़ लगाने की घोषणा के कुछ ही देर बाद अमेरिका ने पाकिस्तान से एक समझौता किया।
अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ वहां के तेल भंडारों को विकसित करने की बात कही। दोनों देशों के बीच व्यापार समझौता भी हो चुका है। भारत-अमेरिका संबंधों के साथ ही भारत के व्यापारिक रिश्तों पर सवाल उठ रहे हैं। रूस से भारत के ऊर्जा रिश्ते कितने अहम हैं ? व्यापार शुल्क भारत के लिए कितने गंभीर हैं ? भारत क्या राह अपना सकता है? प्रधानमंत्री मोदी की छवि पर इसका क्या असर होगा ? पाकिस्तान और अमेरिका के बीच हुआ तेल भंडार से जुड़ा समझौता भारत के लिए क्या मायने रखता है ? भारत-अमेरिका के बीच रिश्तों की इस दिशा को कैसे देखा जाए ?
बीबीसी की खास रिपोर्ट में ‘इंडियन काउंसिल फ़ॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस’ की विज़िटिंग प्रोफ़ेसर शॉन रे, ‘हिंदू बिज़नेस लाइन’ की रेज़िडेंट एडिटर पूर्णिमा जोशी, पत्रकार ज़ुबैर अहमद, बीबीसी उर्दू के सीनियर न्यूज़ एडिटर आसिफ़ फ़ारुक़ी और दिल्ली से ‘इंडिपेंडेंट एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट’ के चेयरमैन नरेंद्र तनेजा ने शिरकत की। प्रोफ़ेसर शॉन रे के मुताबिक इसे दो तरह से अलग करके देख सकते हैं, पहला- शॉर्ट टर्म और दूसरा- लॉन्ग टर्म।
शॉर्ट टर्म में निश्चित तौर पर निर्यात कम होगा। जो निर्यातक हैं, उनकी आमदनी भी कम होगी। शुल्क के साथ हमारा प्राइस बढ़ जाएगा। इसके साथ ही थोड़ी अनिश्चितता भी है, क्योंकि जो व्यापार समझौता होने वाला था वह अभी तक हुआ नहीं है।
वहीं, पूर्णिमा जोशी का मानना है कि हाल में जो कुछ भी हुआ, उससे सरकार की काफ़ी ‘फ़ज़ीहत’ हुई है। जिस तरह ट्रंप ने पाकिस्तान के साथ हमारी लड़ाई के दौरान ऐलान किया कि सीज़फ़ायर उन्होंने कराया है और इसके बाद बार-बार उन्होंने यह बात कही। इस पर प्रधानमंत्री को संसद में स्पष्टीकरण देना पड़ा। विपक्ष ने सवाल उठाया कि हमारे द्विपक्षीय मामले में अमेरिका के दख़ल को आपने कैसे अनुमति दी ? बीजेपी, जो कि ख़ास तौर पर रक्षा मामलों में हमेशा हार्ड लाइन लेती है, वह थोड़ा बैकफ़ुट में थी। ट्रंप ने जिस तरह से भारत पर टैरिफ़ लगाया है और रूस से तेल और रक्षा सामग्री ख़रीदने पर पेनल्टी लगाई, वह एक तरह से हमारी संप्रभुता पर भी हमला है। कोई बाहरी देश हमें कैसे बता सकता है कि हमें कहां से क्या चीज़ ख़रीदनी चाहिए।
अमेरिका और पाकिस्तान के बीच तेल भंडारों को लेकर एक समझौता हुआ। इसे लेकर आसिफ़ फ़ारुक़ी कहते हैं कि पाकिस्तान में इन समझौतों का स्वागत किया जा रहा है। पाकिस्तानी सरकार इसे देश की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण समझौता मान रही है। पाकिस्तानी सरकार इसे अपनी राजनीतिक और कूटनीतिक जीत के तौर पर भी पेश कर रही है, क्योंकि भारत पर ज़्यादा टैरिफ़ लगा है। भारत को लेकर ट्रंप जो भाषा इस्तेमाल कर रहे हैं, उसे भी पाकिस्तानी अपनी जीत बता रहा है।
हालांकि नरेंद्र तनेजा का मानना है कि जब तक इस समझौते की सारी चीज़ें सामने नहीं आ जातीं, तब तक इसे डील क़रार नहीं देना चाहिए। अमेरिका में सरकारी तेल कंपनियां नहीं होती हैं. वहां पर सारी कंपनियां प्राइवेट हैं, तो किस कंपनी ने डील की है और कब की है ? जहां तक मेरी जानकारी है तो किसी कंपनी ने कोई डील नहीं की है। अमेरिकी राष्ट्रपति कहेंगे और कंपनियां पाकिस्तान आ जाएंगी, ऐसा अमेरिका में होता नहीं है. ये बहुत बड़ी कंपनियां हैं।
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