मुद्दे की बात : पहाड़ों पर मानसूनी कहर, संकट पैनल गठित, सवाल बाकी

एक्सपोर्टरों को होगा नुकसान

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सरकार पर सवालिया निशान, तबाही से पहले क्यों नहीं किए जाते हैं राहत के प्रयास

लगातार चौथे साल हिमाचल प्रदेश मानसूनी-कहर की चपेट में है। आंकड़ों के मुताबिक लगभग एक हजार मौतें और 10 हजार करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति का नुकसान हो चुका है। पड़ोसी पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में भी मानसूनी कहर देखने को मिला। यह देश के पहाड़ी इलाकों में मौसमी तबाही के व्यापक-पैटर्न का हिस्सा हैं।

बिगड़ती स्थिति देख केंद्र सरकार ने बुधवार रात राष्ट्रीय संकट प्रबंधन समिति का गठन किया, जो शीर्ष-स्तरीय निर्णय लेने वाली संस्था है। जिसका काम राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव डालने वाली आपदाओं का प्रबंधन करना है। गृह मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना में समिति की रूपरेखा दी गई है, जिसकी अध्यक्षता कैबिनेट सचिव करेंगे। अधिसूचना के अनुसार, यह समिति बड़ी आपदा स्थितियों, विशेष रूप से सर्वोच्च समन्वय निकाय के रूप में कार्य करेगी। जिनमें सरकार के विभिन्न स्तरों पर त्वरित और एकीकृत कार्रवाई की आवश्यकता होती है। एक प्रमुख प्रावधान यह है कि अध्यक्ष को संकट की प्रकृति के आधार पर केंद्र या राज्य सरकारों से, यहां तक कि बाहरी संगठनों से भी, विशेषज्ञों या अधिकारियों को शामिल करने का अधिकार है। यह लचीलापन बहुआयामी और क्षेत्रीय रूप से जटिल आपदाओं से निपटने में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जैसे वर्तमान में हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में हो रही आपदाएं हैं।

बेशक, एनसीएमसी की स्थापना सही दिशा में एक कदम है, लेकिन इसका समय एक बार फिर एक जानी-पहचानी चिंता को जन्म देता है। आखिर संस्थागत प्रतिक्रियाएं अकसर नुकसान हो जाने के बाद ही क्यों आती हैं ? गौरतलब है कि मानसूनी-तबाही के बाद की गई, जबकि पहाड़ी राज्यों के लिए यह एक आम स्थिति है। गृह मंत्रालय की अधिसूचना में भूमिका केवल आपदाओं का जवाब देना ही नहीं है, बल्कि तैयारियों का मूल्यांकन करना और उन्हें मज़बूत करने के निर्देश जारी करना भी है। अगर इसे सख्ती से लागू किया जाए तो यह बड़े बदलाव का संकेत हो सकता है। हालांकि, इस इरादे के साथ ज़मीनी स्तर पर कार्रवाई भी होनी चाहिए। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्य बढ़ती जलवायु संबंधी कमज़ोरियों का सामना कर रहे हैं। यह एक ऐसा तथ्य है, जिसे सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिक्रिया तंत्र लागू करने के निर्णय में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है। अब सवाल यह है कि क्या एनसीएमसी अपने व्यापक अधिदेश को मापनीय परिणामों में बदल पाएगा ?

हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड एक बार फिर बदलते जलवायु और नाज़ुक भूभाग के प्रकोप का सामना कर रहे हैं। इसलिए योजना बनाने का समय बीत चुका है। हालांकि इसकी तैयारियां अभी भी एक खुला सवाल हैं। एनसीएमसी की प्रभावशीलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह कितनी जल्दी लालफीताशाही को खत्म कर पाती है। राज्य और ज़िला स्तर पर तैयारियां सुनिश्चित कर पाती है। साथ ही राहत प्रयासों का समय पर कुशल और समावेशी समन्वय कैसे कर पाती है।

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