सीजफायर-मोदी की राष्ट्रवाद से यू-टर्न तक की अधूरी कहानी

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अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार



भारतीय राजनीति में ऐसे कई क्षण आते हैं जब कोई घटना देश की जनता और सत्ता प्रतिष्ठान के बीच संबंधों को गहराई से प्रभावित करती है। पाकिस्तान पोषित आतंकवादियों द्वारा 22 अप्रैल को कश्मीर के पहलगाम में 26 हिन्दुओं की हत्या भी इसी की एक कड़ी थी,जिसका हिसाब चुकाने के लिये मोदी सरकार ने पाकिस्तान पर कड़ा कूटनीतिक और सैन्य प्रहार किया,जिसकी शुरूआत पाकिस्तान के साथ दशकों पुराने चले आ रहे सिंधु जल समझौते के निलंबन से हुई तो  ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के रूप में भारतीय सेना ने पाकिस्तान में घुस कर ही आतंकवादियों को कब्र में सुला दिया,आपरेशन सिंदूर एक ऐसी ही सैन्य कार्रवाई थी, जो जितनी तेजी से राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आई, उतनी ही जल्द वह विवादों और अस्पष्टताओं के भंवर में फंसकर थम गई। यह ऑपरेशन अपने कथित उद्देश्यों के कारण जितना महत्वपूर्ण था, उतना ही इसके अचानक ठहराव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए।जब पहलगाम में आतंकियों ने 26 हिन्दुओं को उनका धर्म पूछ कर मारा तो इसका बदला लेने के लिये पूरा देश और विपक्ष मोदी सरकार के साथ खड़ा हो गया।सबने एक सुर में कहा मोदी सरकार जो कार्रवाई करेगी,उसका हम समर्थन करेेंगे,प्रधानमंत्री मोदी ने भी सर्वदलीय बैठक बुलाकर सबको संतुष्ट करने में कोई गुरेज नहीं किया,लेकिन जब सीजफायर किया गया तो मोदी सरकार ने किसी से नहीं पूछा। उन विपक्षी नेताओं को भी भरोसे में नहीं लिया जो उनके साथ खड़े हुए थे,यह बात देशवासियों को पसंद नहीं आई। खासकर बीजेपी और मोदी समर्थक भी इस मुद्दे पर बीजेपी और मोदी सरकार के खिलाफ नज़र आये।

गौरतलब हो ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की शुरुआत एक गुप्त अभियान के तौर पर हुई थी, जिसका उद्देश्य कथित रूप से कश्मीर घाटी में आतंक के नेटवर्क को समाप्त करना और पाकिस्तान समर्थित तत्वों को निष्क्रिय करना था। इस ऑपरेशन का नाम ‘सिंदूर’ रखने के पीछे भावनात्मक और सांस्कृतिक प्रतीक था। सिंदूर, जो भारत में सुहागिन स्त्रियों का प्रतीक है।  माना जा रहा था कि इस ऑपरेशन के तहत सुरक्षाबलों को ‘फ्री हैंड’ दिया गया था, और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के मार्गदर्शन में इसे अंजाम तक पहुंचाया जाना था। ऑपरेशन के शुरुआती दिनों में कुछ महत्वपूर्ण गिरफ्तारियाँ और सीमावर्ती क्षेत्रों में आतंकी ठिकानों पर हमले हुए भी थे। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीते, यह ऑपरेशन धीरे-धीरे मीडिया से गायब होता चला गया।

फिर एक दिन ऑपरेशन सिंदूर जिस तरह अचानक शुरू हुआ था, उतनी ही चुप्पी से वह थम भी गया। इसके पीछे कई कारण माने जा रहे हैं,जिसकी चर्चा करना यहां जरूरी है। कहा जा रहा कि संयुक्त राष्ट्र और पश्चिमी देशों ने भारत से मानवाधिकारों को लेकर जवाबदेही की मांग की। अमेरिका और यूरोपीय संघ के प्रतिनिधियों ने अप्रत्यक्ष रूप से भारत से ‘संवेदनशीलता’ बरतने की अपील की। बात देश के भीतर की कि जोय तो ऑपरेशन के चलते स्थानीय जनता में असंतोष बढ़ने लगा था। स्कूल, कॉलेज बंद होने लगे थे और एक बार फिर घाटी में  सुधरते हुए के हालात बिगड़ने लगे थे। मोदी सरकार को आगामी चुनावों में उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में मुस्लिम मतों को प्रभावित करने की चिंता थी। किसी भी प्रकार की कठोर सैन्य कार्रवाई इस वर्ग को और अलग-थलग कर सकती थी। सूत्रों के अनुसार, ऑपरेशन की रणनीति को लेकर रक्षा मंत्रालय और गृह मंत्रालय के बीच मतभेद थे। कुछ वरिष्ठ अधिकारियों का मानना था कि यह समय पूर्ण सैन्य कार्रवाई का नहीं, बल्कि सूक्ष्म कूटनीतिक प्रयासों का था।

बहरहाल,वजह कोई भी हो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अब तक की छवि एक ‘निर्णायक और मजबूत नेता’ की रही है। 2016 का सर्जिकल स्ट्राइक और 2019 का बालाकोट एयर स्ट्राइक उनके इस रूप की पुष्टि करते हैं। लेकिन ऑपरेशन सिंदूर का अचानक ठहर जाना इस छवि पर धुंध छा जाता है। समर्थकों को लगता है कि सरकार ने एक बार फिर “कठोर कदम” की शुरुआत करके अंत में ‘यू-टर्न’ ले लिया। यह एक राजनीतिक चाल अधिक और सुरक्षा नीति कम प्रतीत हुआ। वहीं अभी तक मोदी सरकार के साथ खड़ी कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल अब पूरे घटनाक्रम को ‘राजनीतिक नौटंकी’ करार देते हुए पूछ रहे हैं कि यदि ऑपरेशन ज़रूरी था तो उसे अधूरा क्यों छोड़ा गया? और यदि नहीं था, तो इसकी शुरुआत क्यों की गई? पूर्व सैनिकों और रक्षा विश्लेषकों ने भी यह सवाल उठाया कि जब सैनिकों को ‘ऑपरेशन मोड’ में लाया गया, तो क्या उन्हें केवल राजनीतिक संदेश देने का माध्यम बनाया गया?

उधर, सोशल मीडिया और ज़मीन पर जनता की प्रतिक्रिया मिली-जुली रही। एक ओर राष्ट्रवाद की भावना से भरपूर वर्ग ने इस ऑपरेशन के प्रति उत्साह दिखाया था, लेकिन जब यह बिना निष्कर्ष के थमा, तो वही वर्ग निराश हो गया। दूसरी ओर, शांति और संवाद की वकालत करने वालों ने राहत की सांस ली, पर यह असमंजस बना रहा कि सरकार ने अंततः क्या निर्णय लिया और क्यों। ऑपरेशन सिंदूर की खबरें जब आईं तो प्रमुख चैनलों ने इसे मिशन कश्मीर 2.0 की संज्ञा दी। पैनल चर्चाओं में राष्ट्रवाद की लहरें उठीं, लेकिन जैसे ही ऑपरेशन पर कोई आधिकारिक सूचना आनी बंद हुई, मीडिया ने भी चुप्पी साध ली। इससे यह संदेह और गहरा हुआ कि कहीं यह एक प्रायोजित प्रचार तो नहीं था।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ऑपरेशन सिंदूर एक प्रतीक बन गया है उस नीति का, जो न तो पूरी तरह सैन्य थी और न ही पूरी तरह कूटनीतिक। इसकी अधूरी परिणति ने यह दिखा दिया कि केवल आक्रामक भाषण और प्रतीकात्मक नामों से जमीनी हकीकत नहीं बदलती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि पर इस अधूरे ऑपरेशन ने निश्चित रूप से असर डाला है, विशेषकर उस वर्ग में जो उन्हें निर्णायक नेतृत्व का प्रतीक मानता रहा है। आने वाले चुनावों में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या मोदी इस ‘हिचकिचाहट’ को छिपा पाने में सफल रहते हैं, या यह उनके राजनीतिक विपक्ष के लिए एक नया हथियार बन जाता है।

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