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वह सावन…..और यह सावन !

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*वह सावन…..और यह सावन!*

 

वे झूले… पंछी, वह कच्चा आंगन!

अब… कंकरीट के जंगल हैं..

खो गई महक वह.. मनभावन!

 

*विनीता जॉर्ज*

*मरवाही छत्तीसगढ़*

 

सावन आ गया है और बरस भी रहा है, जैसे बरसता आया है…पर वह त्योहारी शिद्द्त… वह रिश्तों की हरियाली…बरगद, नीम की वह डाली और झूले पर वह ऊंची पींग..सावन मल्हार गीतों की सरगम अब किस्सा हो गई है..

गांव उठकर शहर आ गया…रोजी रोटी की टोह में जिंदगी हलकान हो गई… रिश्ते भी बिखरने लगे..सब अपने भीतर खो गए!

 

कच्चे आंगन…पक्के रिश्ते

पक्के घर में फिसले रिश्ते!

 

बचपन में जैसा सावन देखा नैसर्गिक.. अब बनावटी हो चला है। रिमझिम की पहली फुहार आई नहीं कि माटी महक महक कर सोंधेपन का संदेशा देती थी। …कि लो कुदरत के श्रंगार का मौसम आ गया है…बहिन बेटियों के मायके लौटने का उल्लास, जवांई राजाओं के लिए खीर खांड के ससुराल से निमंत्रण …यानी कुदरत की हरियाली के संग एकाकार होने की मतवाली उमंग चहुंओर खनकती थी। बेशक तब आंगन कच्चे थे, पर रिश्तो के तार पक्के थे। दादी पहली रोटी गाय के लिए तो आखिरी गली के श्वान मोती के लिए पकाती। मुंडेर पर बोलता काग घर में आने वाले मेहमान का संदेशवाहक बन जाता। और उसके लिए मनुहार गीत बन जाती…

 

उड़ उड़ रे म्हारे काला रे कागला

कद म्हारा पीवजी घर आवै…

खीर खांड का भोजन कराऊं

सोने सूं चोंच मंडवाऊ कागा..!

 

… अब कागा के दर्शन दुर्लभ!

अब सावन में मेहमान के आने का संदेशा काग नहीं देता.. मोबाइल पर औपचारिकता सावन बधाई की चलती है। वीडियो पर परछाइयां देख हिया को दिलासा दी जाती है कि राखी का कूरियर मिल गया न! एक लोकगीत याद आ गया…

सावन सूना…बहना मेरी लगि रह्यै..

भइया कब आवै मोरे द्वार!

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