मुद्दे की बात : भारत-पाकिस्तान के बीच सीजफायर कैसे हो सका ?

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अहम रही पर्दे के पीछे बातचीत और अमेरिका का रोल

भारत और पाकिस्तान के बीच अघोषित-जंग एकाएक सीजफायर पर आखिर कैसे सहमति बनी, अब देश-दुनिया में तमाम अटकलें लगाई जा रही हैं। जाहिर तौर पर नाटकीय घटनाक्रम के बीच अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने शनिवार को सोशल मीडिया पर यह ऐलान किया था। उन्होंने खुलासा किया था कि चार दिनों तक सीमा पर संघर्ष के बाद भारत और पाकिस्तान ‘पूर्ण और तत्काल संघर्ष विराम’ पर सहमत हो गए हैं।

अब तमाम मीडिया रिपोर्ट्स में भी यही मुद्दा चर्चा में है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक विशेषज्ञों का कहना है कि ‘पर्दे के पीछे’ सब कुछ तय कराया गया। क्षेत्रीय शक्तियों के साथ मिलकर अमेरिकी मध्यस्थों ने डिप्लोमैटिक बैकचैनल्स के माध्यम से युद्ध के कगार पर खड़े परमाणु संपन्न प्रतिद्वंद्वियों को पीछे खींचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि, संघर्ष विराम समझौते के कुछ ही घंटों बाद भारत और पाकिस्तान के बीच इसके उल्लंघन के आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गए थे, जिससे एक बार फिर स्थिति बिगड़ी लगी। भारत ने पाकिस्तान पर बार-बार उल्लंघन का आरोप लगाया। जबकि पाकिस्तान ने दावा किया कि वह संघर्ष विराम के प्रति प्रतिबद्ध है। उसकी सेनाएं ज़िम्मेदारी व संयम दिखा रही हैं।

दरअसल ट्रंप की संघर्ष विराम घोषणा से पहले, भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध उस दिशा में बढ़ रहे थे, जिसके बारे में कई लोगों को आशंका थी कि यह पूर्ण संघर्ष बनेगा। पिछले महीने पहलगाम में आतंकी हमले में 26 पर्यटकों की मौत के बाद भारत ने पाकिस्तान और पीओके में हवाई हमले शुरू किए थे। इसके बाद कई दिनों तक हवाई झड़पें, तोपों से गोलाबारी हुई और शनिवार की सुबह तक दोनों पक्षों की ओर से एक-दूसरे के हवाई ठिकानों पर मिसाइल हमलों के आरोप लगाए गए। बयानबाज़ी भी बढ़ी और दोनों देशों ने हमले नाकाम कर भारी क्षति पहुंचाने के दावे किए।

वॉशिंगटन डीसी स्थित ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन की वरिष्ठ फ़ैलो तन्वी मदान के मुताबिक अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो का 9 मई को पाकिस्तानी सेना प्रमुख असीम मुनीर को फोन कॉल संभवतः निर्णायक बिंदु रही होगी। अगर अमेरिकी विदेश मंत्री शुरुआत में ही कॉल कर देते तो तो संघर्ष इतना नहीं बढ़ता। दरअसल कई अंतर्राष्ट्रीय नेताओं की भूमिका के बारे में हम बहुत कुछ नहीं जानते। हालांकि पिछले तीन दिनों में यह स्पष्ट हो गया कि कम से कम तीन देश अमेरिका, ब्रिटेन और सऊदी अरब तनाव कम करने का काम कर रहे थे। हालांकि पाकिस्तानी विदेश मंत्री इसहाक़ डार ने मीडिया में दावा किया कि इस कूटनीति में तुर्की, सऊदी अरब और अमेरिका समेत तीन दर्जन देश शामिल थे। यह पहली बार नहीं, जब अमेरिकी मध्यस्थता ने भारत-पाकिस्तान संकट को कम कराया।

राजनयिकों का भी कहना है कि इस संकट को टालने में अमेरिका ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसमें संदेह नहीं। माहिरों के मुताबिक अमेरिका सबसे मुख्य बाहर प्लेयर था।

हालांकि शुरुआत में अमेरिका का रुख़ अलग-थलग सा दिखा था। जैसे ही तनाव बढ़ा, अमेरिकी उप राष्ट्रपति जेडी वेंस ने कहा, अमेरिका उस युद्ध में शामिल नहीं होने जा रहा है, ये हमारा काम नहीं। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था, हालांकि हम इन देशों को नियंत्रित नहीं कर सकते। मूल रूप से, भारत को पाकिस्तान से शिकायतें हैं… अमेरिका भारत के साथ ही पाकिस्तान को हथियार डालने के लिए नहीं कह सकता। इसलिए हम कूटनीतिक माध्यमों का सहारा लेंगे।

इसी बीच, राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा था, मैं भारत और पाकिस्तान के नेताओं को बहुत अच्छी तरह से जानता हूं। मैं उन्हें मसला सुलझाते देखना चाहता हूं, उम्मीद है कि वे अब रुक जाएंगे।

लाहौर में रक्षा विश्लेषक एजाज़ हैदर के मुताबिक हालिया मामला पिछली घटनाओं से अलग लगता है। अमेरिका की भूमिका पिछले पैटर्न की तरह ही है। हालांकि इस बार महत्वपूर्ण अंतर है, उन्होंने शुरुआत में दूरी बनाए रखी। उन्होंने जब ये देखा कि स्थिति कहां रही है, तब इसे रोकने के लिए कदम उठाया। पाकिस्तानी माहिर मानते हैं कि जब तनाव बढ़ा तो पाकिस्तान ने ‘दोहरे संकेत’ दिए। एक तरफ़ सैन्य जवाबी कार्रवाई और दूसरी तरफ़ नेशनल कमांड अथॉरिटी की बैठक बुलाना। जो परमाणु क्षमता की याद दिलाने का संकेत देना था।

दरअसल, पाकिस्तान कमांड ऑथोरिटी, देश के परमाणु हथियारों पर नियंत्रण रखने के साथ उसके इस्तेमाल संबंधी फ़ैसले लेती है। यह वही समय था, जब अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने हस्तक्षेप किया। कार्नेगी एनडाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के एक वरिष्ठ फ़ैलो एशले जे टेलिस के अनुसार अमेरिका का इससे बाहर रहना मुमकिन ही नहीं था। रुबियो के प्रयासों के बिना ये चीज़ नहीं हो पाती। इस बात में जिस एक चीज़ ने और मदद की, वो है अमेरिका का भारत के साथ गहरे होते संबंध। पीएम नरेंद्र मोदी के साथ ट्रंप के व्यक्तिगत संबंध भी हैं। इसके साथ ही अमेरिका के व्यापक रणनीतिक और आर्थिक हितों ने अमेरिकी प्रशासन को दोनों परमाणु संपन्न प्रतिद्वंद्वियों को तनाव कम करने की दिशा में कूटनीतिक बढ़त दी। वहीं, भारतीय राजनयिक इस बार तीन प्रमुख शांति प्रयासों को देखते हैं, जैसा कि 2019 में पुलवामा-बालाकोट के बाद हुआ था। मसलन, अमेरिका और ब्रिटेन का दबाव, सऊदी अरब की मध्यस्थता, जिसमें सऊदी के जूनियर विदेश मंत्री का दोनों देशों का दौरा और भारत-पाकिस्तान के दोनों राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों (एनएसए) के बीच का सीधा चैनल। चाहे अमेरिकी अधिकारी अपनी उपलब्धि बढ़ा-चढ़ाकर पेश करें या दिल्ली और इस्लामाबाद इसे कम कर आंकें, जबकि विशेषज्ञों की मानें तो यह संकट हल कराने वाले क्राइसिस-मैनेजर बतौर अमेरिका की भूमिका बेहद अहम और जटिल भी है। मीडिया में ऐसी ख़बरें भी आई हैं कि ये सीज़फ़ायर दोनों देशों के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ज़रिए कराया गया। विदेश नीति के विश्लेषक माइकल कुगेलमैन के मुताबिक यह संघर्ष विराम नाज़ुक बना रहेगा, जो बेहद तनावपूर्ण स्थिति में बहुत तेज़ी से हुआ है। भारत ने इसे अमेरिका और पाकिस्तान की तुलना में अलग तरीके से देखा है। इसके अलावा, इसे इतनी जल्दबाज़ी में तैयार किया गया है कि समझौते में आवश्यक गारंटी और आश्वासन शायद शामिल नहीं हैं। जो इस तरह के तनावपूर्ण माहौल में जरुरी होते हैं।

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