मुनि सुखलाल
सत्य एक सापेक्ष अनुभूति है। अखंड सत्य तो केवल सर्वज्ञ ही जान सकता है। एक-एक पदार्थ के अनंत-अनंत पर्याय हैं। आदमी एक पदार्थ के सारे पर्यायों को भी नहीं जान सकता तो समस्त पदार्थों के समस्त पर्यायों के जानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। मनुष्य का ज्ञान ज्यों-ज्यों विकसित होता जा रहा है त्यों-त्यों उसे पता लग रहा है कि उसका अज्ञान ज्यादा गहरा है। ऐसी स्थिति में सापेक्षता को समझना जरूरी है। लोकतंंत्र में भी सापेक्षता को जरूरी है। बल्कि लोकतंत्र तो सापेक्षता के बिना चल ही नहीं सकती।
लेाकतंत्र का अर्थ है जनता के लिए जनता के द्वारा जनता का शासन। मनुष्य ने आदिकाल से लेकर आज तक अनेक शासन प्रणालियों का प्रयोग किया। कभी दंडबल का शासन हुआ तो कभी बाहुबल का। पर हर शासन प्रणाली में व्यक्ति ही प्रमुख रहा। व्यक्ति की सोच व्यापक रहे तब तो काम चल जाता है। पर जब सोच संकीर्ण बन जाती है तो अनेक समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। इसीलिए वर्तमान में लोकतंत्र को प्रतिष्ठा मिली है। लोकतंत्र में हर व्यक्ति को आगे बढऩे का अधिकार है इसलिए यह सोचा जा रहा है कि लोकतंत्र ही सर्वोत्कृष्ट शासन प्रणाली है। आज साम्राज्यवाद इतिहास की चीज बन गया है। कहीं यदि सम्राट है भी तो वे केवल अलंकारिक है। शासन सत्ता तो प्राय: जनता के ही हाथ में है।
स्वतंत्रता, समानता, सहयोग, सहानुभूति, समन्वय और सहिष्णुता ये कुछ ऐसे मौलिक तत्व हैं लो लोकतंत्र भी प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं। पर ये सारे मूल्य भी निरपेक्ष नहीं हो सकते। सापेक्षता के बिना उनसे अनेक विकृतियांं भी संभव हो सकती हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वतंत्रता एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। कोई भी आदमी परतंत्र नहीं रहना चाहता। आदमी क्या कोई पक्षी भी परतंत्र नहीं रहना चाहता। स्वतंत्रता के लिए आदमी सब कुछ दांव पर लगा देता है। स्वतंत्रता के सामने पैसे का तो कोई मूल्य ही नहीं है। आदमी भूखा रहकर भी स्वतंत्र रहना चाहता है। बल्कि स्वतंत्रता के लिए वह प्राणों से भी खेल जाता है। दुनिया का पूरा इतिहास ऐसे बलिदानों से भरा पड़ा है। पर सवाल यह है क्या स्वतंत्रता भी निरपेक्ष हो सकती है? उत्तर इसका यही हो सकता है कि स्वतंत्रता के लिए भी सापेक्षता जरूरी है।
एक राष्ट्र आजाद हुआ। लम्बे समय तक गुलाम रहने की कसक सबके मन में थी। आजादी के क्षणों में सबका मन उत्साह से भरा हुआ था। सब खुशियों में मगन थे। एक बुढिय़ा भी आजादी के भावावेश में इतने उत्साह से भर गई कि सड़क के बीच आकर लेट गई। सामने से एक ट्रक आ रहा था। ड्राईवर को नजदीक आकर कहना पड़ा-माताजी! सड़क मत रोको, एक किनारे हो जाओ। बुढिय़ा ने तड़ाक से कहा-एक तरफ कैसे हो जाऊं? मेरा देश आजाद हो गया। मैं कहीं पर भी सोने के लिए स्वतंत्र हूं। ड्राईवर ने धीरे से कहा-माताजी! आप सड़क के बीच में सोने के लिए स्वतंत्र हैं तो मैं भी आपके ऊपर से गाड़ी निकालने के लिए स्वतंत्र हूं। तत्काल बुढिय़ा को एक किनारे हो जाना पड़ा।
समाज में जीने के लिए हर आदमी को हर स्तर पर सापेक्षता को जीना आवश्यक है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मूल्य है, पर वह उसी हद तक स्वीकार्य है जिस हद तक दूसरे के लिए बाधक नहीं बनता। महात्मा गांधी ने बहुत सुंदर कहा था-‘मेरी स्वतंत्रता वहीं तक है जहां तक मेरे घर की सीमा है। उससे आगे मेरे पड़ोसी की स्वतंत्रता शुरू हो जाती है।’ सचमुच लोकतंत्र में पड़ोसी की स्वतंत्रता का बहुत बड़ा मूल्य है। एक आदमी को इतनी स्वतंत्रता नहीं हो सकती कि वह दूसरे की उपेक्षा कर दे। इससे जीवन चल नहीं सकता। आदमी को पग-पग पर अपने पड़ोस का ध्यान रखना पड़ता है। एक बहुमंजिला बिल्डिंग के नीचे के फ्लैट में एक परिवार रहता था। जब वह अपनी अंगीठी जलाता तो धुंआ निकलता और वह ऊपर के फ्लैट में रहने वाले व्यक्ति को बाधित करता। रोज-रोज की यह समस्या असह्य हो गई तो उसने अपने नीचे के पड़ोसी से कहा-भाई आपकी अंगीठी का धुंआ हमें बाधित करता है अत: ऐसी कोई व्यवस्था करो जिससे हमें कोई कष्ट न हो। नीचे के पड़ोसी ने कहा- इसमें मैं क्या व्यवस्था कर सकता हूं? मेरे पास इसका कोई इलाज नहीं है। ऊपर का पड़ोसी भी विवश था। पर कठिनाई तो उसके सामने थी। कुछ दिन बाद उसे एक उपाय सूझा और उसने ऊपर की छत में छेद कर दिया।
उस छेद में से गंदा पानी नीचे के पड़ोसी के फ्लैट में गिरने लगा। तब उसने कहा-भाई! यह क्या करते हो। तुम्हारे गंदे पानी से मेरा तो सारा घर ही गंदा हो रहा है। ऊपर वाले ने कुटिल व्यंग्य करते हुए कहा-भाई! इसमें मैं क्या कर सकता हूं। पानी का स्वभाव है नीचे जाने का। मैं उसे कैसे रोक सकता हूं। मेरे पास कोई इलाज नहीं है। अब नीचे का पड़ोसी विवश था। आखिर दोनों को मिलकर समझौता करना पड़ा कि नीचे का पड़ोसी धुएं की व्यवस्था करेगा और ऊपर का पड़ोसी पानी को नीचे नहीं आने देने की व्यवस्था करेगा। सचमुच आदमी को इसी तरह पग-पग पर अपने पड़ोसियों से समझौता करना पड़ता है। जब समझौता होता है तभी दोनों को स्वतंत्रता मिलती है। यदि एक भी निरपेक्ष हो जाए तो कोई भी सुख से नहीं रह सकता। समाज में एक-दूसरे के साथ रहने के बहुत कानून बने हुए हैं।
बहुत बड़ा संविधान बना हुआ है। पर कानून या संविधान हो जाने से मात्र काम नहीं चलता। जब तक कानून तथा उसकी भाषा-सापेक्षता को नहीं समझा जाता तो वे ही झगड़े के मूल कारण बन जाते हैं।
लार्ड एक्टन के अनुसार मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य है धर्म और उसके बाद स्वतंत्रता। धर्म और स्वतंत्रता परस्पर आधारित हैं। संयमित स्वतंत्रता समाज की सबसे मूल्यवान निधि है। आधुनिक सभ्यता के विकास का संबंध मनुष्य की स्वतंत्रता और उसकी गति को सुस्थिर करना है। जो स्वेच्छा से अपने आप पर अनुशासन कर सकता है वास्तव में वहीं स्वतंत्र है। क्योंकि उसने अपनी आवश्यकताओं एवं इच्छाओं को दूसरे की आवश्यकता और इच्छा के साथ जोड़ा है। जिसकी इच्छाएं वश में न हों वह स्वेच्छाचारी तो बन सकता है स्वतंत्र नहीं। मनुष्य की चेतना का अर्थ ही है कि वह अपने मन पर अनुशासन कर सकता है। शेष प्राणी अपने मन पर नियंत्रण नहीं कर सकते। इसलिए वे स्वेच्छाचारी बन सकते हैं स्वतंत्र नहीं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अपनी भावना को प्रकट करना सबको अच्छा लगता है, पर जब अभिव्यक्ति में सापेक्षता नहीं होती है तो एक शब्द ही महाभारत खड़ा कर देता है। (विभूति फीचर्स)