भारत ही नहीं, अमेरिका को भी लगेगा आर्थिक-झटका, माहिरों की राय
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारत पर अगले महीने लगाए जाने वाले रेसिप्रोकल टैरिफ़ का नुकसान अमेरिकियों को भी भुगतना पड़ सकता है। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक भारत पर लगने वाले इस टैरिफ़ के कारण लाखों अमेरिकियों पर मेडिकल बिलों का बोझ बढ़ सकता है। भारत के वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने व्यापार समझौते की उम्मीद में अधिकारियों से चर्चा के लिए पिछले सप्ताह अमेरिका की यात्रा की थी। गोयल भारत के महत्वपूर्ण निर्यात उद्योगों जैसे औषधीय दवाओं पर टैक्स वृद्धि को रोकना चाहते हैं। ट्रंप घोषणा कर चुके हैं कि भारत में अमेरिकी चीज़ों पर लगने वाले टैरिफ़ के जवाब में वो 2 अप्रैल तक भारत पर टैरिफ़ लगाएंगे। टैरिफ़ विदेशी आयातों पर लगने वाला सरकारी कर है। अमेरिका में बिकने वाली लगभग आधी जेनेरिक दवाइयां अकेले भारत से आती हैं, जो ब्रांडेड दवाओं का सस्ता संस्करण होती हैं। अमेरिका में ऐसी दवाइयां भारत जैसे देशों से आयात की जाती हैं और 10 में से 9 प्रिस्क्रिप्शन इन्हीं दवाओं के होते हैं।
इससे वाशिंगटन को स्वास्थ्य सेवा लागत में अरबों डॉलर की बचत होती है। कंसल्टिंग फर्म आईक्यूवीआईए के एक अध्ययन के अनुसार, 2022 में, भारतीय जेनेरिक दवाओं से 219 अरब डॉलर की बचत हुई। व्यापार समझौते के बिना डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ़ के कारण जेनेरिक दवाइयां बनाने वाली कुछ भारतीय कंपनियों को बाज़ार से बाहर निकलने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। जिससे अमेरिका में मौजूदा दवा की कमी और भी बढ़ सकती है। येल विश्वविद्यालय की दवा लागत विशेषज्ञ डॉ. मेलिसा बार्बर का कहना है कि टैरिफ़ ‘मांग-आपूर्ति असंतुलन को और बढ़ा सकते हैं। इसका नुकसान गरीबों और उन लोगों को उठाना पड़ सकता है, जिनका स्वास्थ्य बीमा नहीं है। इसका असर कई तरह की स्वास्थ्य स्थितियों से पीड़ित लोगों पर पड़ सकता है। इंडियन फार्मास्युटिकल एलायंस द्वारा वित्तपोषित आईक्यूवीआईए अध्ययन के अनुसार, अमेरिका में हाइपरटेंशन और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों के लिए 60% से अधिक प्रिस्किप्शन भारतीय निर्मित दवाओं के थे।
अमेरिका में सबसे ज़्यादा प्रिस्क्राइब की जाने वाली डिप्रेशन की दवा सेर्ट्रालीन इस बात का एक उदाहरण है कि अमेरिकी लोग ज़रूरी दवाओं के लिए भारतीय आपूर्ति पर कितने निर्भर हैं। उनमें से कई दवाइयों की कीमत गैर-भारतीय कंपनियों की दवाओं की तुलना में आधी है। दवाओं के लिए संघर्ष करने वाले उपभोक्ता वकालत समूह पब्लिक सिटिज़न्स के वकील पीटर मेबार्डुक के मुताबिक हम इस बारे में चिंतित हैं। चार में से एक अमेरिकी मरीज़ दवाइयां महंगी होने के कारण नहीं ले पाता है। ट्रंप पहले से ही चीनी आयात पर अपने टैरिफ़ के कारण अमेरिकी अस्पतालों और जेनेरिक दवा निर्माताओं से दबाव का सामना कर रहे हैं। अमेरिका में बिकने वाली 87% दवाओं के लिए कच्चा माल बाहर से आता है, यह आपूर्ति मुख्य रूप से चीन में केंद्रित है, जो वैश्विक आपूर्ति का लगभग 40% हिस्सा पूरा करता है। ट्रंप के सत्ता में आने के बाद से चीनी आयात पर टैरिफ़ में 20% की वृद्धि के साथ ही दवाओं के लिए कच्चे माल की लागत पहले ही बढ़ गई है। ट्रंप चाहते हैं कि टैरिफ से बचने को कंपनियां दवाओं की मैन्युफैक्चरिंग अमेरिका में स्थानांतरित कर दें।
फाइजर और एली लिली जैसी बड़ी फार्मा कम्पनियां, जो ब्रांडेड और पेटेंट वाली दवाएं बेचती हैं, वह अपनी कुछ मैन्युफैक्चरिंग अमेरिका स्थानांतरित करने के लिए तैयार हैं। हालांकि कम मूल्य की दवाएं बनाने वाली कंपनियों के लिए यह फ़ायदे का सौदा नहीं होगा। भारत की सबसे बड़ी दवा निर्माता कंपनी सन फार्मा के चेयरमैन दिलीप सांघवी ने कहा कि उनकी कंपनी अमेरिका में 1 से 5 डॉलर प्रति बोतल की दर से गोलियां बेचती है। ऐसे में टैरिफ के कारण हमारी मैन्युफैक्चरिंग अमेरिका में करने का कोई औचित्य नहीं है।
आईपीए के सुदर्शन जैन कहते हैं कि अमरीका की तुलना में मैन्युफैक्चरिंग भारत में कम से कम तीन से चार गुना सस्ती है। ऐसे में तत्काल स्थानांतरण असंभव है। लॉबी समूह पीएचआरएफए के अनुसार किसी भी नई मैन्युफैक्चरिंग सुविधा बनाने में 2 बिलियन डॉलर तक की लागत आ सकती है और इसे चालू होने में पांच से 10 साल लग सकते हैं।ट्रंप का टैरिफ भारतीय फार्मा कंपनियों के लिए बहुत ही बड़ा झटका साबित हो सकता है। व्यापार अनुसंधान एजेंसी जीटीआरआई के मुताबिक फार्मास्यूटिकल क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक निर्यात है। भारत हर साल अमेरिका को करीब 12.7 बिलियन डॉलर की दवाइयां निर्यात करता है, जिस पर उसे लगभग कोई कर नहीं देना पड़ता। हालांकि, भारत आने वाली अमेरिकी दवाओं पर 10.91% शुल्क देना पड़ता है। अमेरिका के रेसिप्रोकल टैरिफ़ लगाने से जेनेरिक और ब्रांडेड दवाओं लागत बढ़ जाएगी। यह अमेरिकी बाजार में मूल्य बढ़ोतरी के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील है। बड़े पैमाने पर अमेरिका को दवाएं बेच रहीं भारतीय कंपनियां बहुत कम मार्जिन पर काम करती हैं, ऐसे में टैरिफ का बोझ वह नहीं सह पाएंगी। वे अपने प्रतियोगियों की तुलना में ये बहुत कम कीमत पर दवाएं बेच रही हैं और दुनिया के फार्मा बाजार में हृदय, मानसिक स्वास्थ्य, त्वचाविज्ञान और महिला स्वास्थ्य की दवाओं में प्रभाव कायम कर रही है। वहीं, उत्तरी अमेरिका भारत की फार्मा कंपनियों के आय का बड़ा स्त्रोत है। इन कंपनियों की कमाई में अधिकांश योगदान इसी क्षेत्र का है और यह लाभ में एक तिहाई का योगदान देता है।
भारत की तीसरी सबसे बड़ी दवा कंपनी सिप्ला के सीईओ उमंग वोहरा ने हाल ही में एक सार्वजनिक समारोह में कहा कि टैरिफ से यह निर्धारित नहीं करना चाहिए कि हम व्यवसाय क्या करें, क्योंकि इस बात का जोखिम है कि चार साल बाद, ये टैरिफ खत्म हो सकते हैं। यहसमय काफी लंबा है और यह कई कम्पनियों की किस्मत बना या बिगाड़ सकता है। लिहाजा टैरिफ से बचने को भारत को अमेरिकी फार्मा उत्पादों पर अपना टैरिफ़ को कम कर देना चाहिए।
फार्मा बाज़ार विशेषज्ञ अजय बग्गा के मुताबिक भारत में अमेरिकी दवाओं निर्यात मुश्किल से आधा बिलियन डॉलर है, ऐसे में इसका असर ना के बराबर होगा। भारत की सबसे बड़ी दवा निर्माता कंपनियों के समूह आईपीए ने भी अमेरिकी दवा निर्यात पर भी शून्य शुल्क लगाने की सिफारिश की है। ताकि रेसिप्रोकल टैरिफ़ का भारत पर नकारात्मक प्रभाव ना पड़े।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने हाल ही में बजट में सीमा शुल्क से पूरी तरह छूट प्राप्त दवाओं की सूची में 36 जीवन रक्षक दवाओं को शामिल किया है। राष्ट्रपति ट्रंप को यह संकेत मिल गया है कि भारत उनके दबाव में टैरिफ कम कर सकता है। उन्होंने कहा कि भारत टैरिफ में काफी कमी करने पर सहमत हो गया है, क्योंकि आखिरकार उन्हें बताया कि वह अब तक क्या कर रहे थे। हालांकि दिल्ली ने अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। दोनों देशों की फार्मा कम्पनियां व्यापार समझौते की बारीकियों को जानने के लिए बेचैनी से इंतजार कर रही हैं, जिसका जीवन और कमाई पर असर पड़ सकता है। अमेरिका-भारत रणनीतिक साझेदारी फोरम के वरिष्ठ सलाहकार मार्क लिनस्कॉट के मुताबिक थोड़े समय तक नए टैरिफ से कुछ परेशानी हो सकती है, लेकिन इस साल के अंत तक पहले चरण के व्यापारिक समझौते की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति करेंगे।
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