वर्षीतप क्या है? क्यों शुरू करते हैं वर्षीतप ? जाने पूरी जानकारी

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लुधियाना 23 मार्च। वर्षीतप में 400 दिनों तक तप किया जाता है। चैत्र वदि अष्टमी यानि जिस दिन प्रथम तीर्थकर, प्रथम राजा, प्रथम अणगार श्री आदिनाथ भगवान का जन्म एवं दीक्षा कल्याणक हुआ। आदिनाथ प्रभु ने तीसरे आरे में वर्षतिप कब शुरु किया। ऋषभदेव प्रभु के पहले भरत क्षेत्र में युगलिक काल था। युगलिक काल होने से लोगों में धर्म की प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव था। युगलिक काल में सभी मनुष्य युगल (पुत्र-पुत्री) के रूप में पैदा होते थे। उनकी सारी मनोकामनाएँ कल्पवृक्षों के द्वारा पूर्ण हो जाती थीं। वे सभी युगलिक भद्रिक-परिणामी होते थे, अतः मरकर सभी देव गति प्राप्त करते थे। ऋषभदेव प्रभु स्वयं युगल के रूप में पैदा हुए थे, परंतु उन्होंने युगालिक धर्म का निवारण किया था। युगलिक काल में विवाह व्यवस्था नहीं थी। युगल के रूप में पैदा हुए पुत्र-पुत्री के बीच ही पति-पत्नी का व्यवहार होता था। परंतु ऋषभदेव प्रभु ने न्याय-नीति और व्यवहार धर्म का प्रवर्तन कर वह व्यवस्था बदल दी। इस काल में सबसे पहला लग्न ऋषभदेव प्रभु का ही हुआ था। लग्न के विधि-विधान हेतु इन्द्र महाराजा स्वयं उपस्थित हुए थे।

सर्व प्रथम ऋषभदेव प्रभु ने ही पुरुषों की 72 कलाएँ, स्त्रियों की 64 कलाएँ और सभी प्रकार के 100 शिल्प सिखाए थे। परन्तु दान आदि धर्मों का बोध प्रभु ने नहीं दिया था।

तारक तीर्थंकर परमात्मा अपनी अपूर्णावस्था में कभी धर्म का बोध नहीं देते हैं, क्योंकि केवलज्ञान के अभाव में असत्य भाषण की संभावना रहती है। गृहस्थ जीवन में 83 लाख पूर्व वर्ष व्यतीत होने के बाद आदिनाथ प्रभु ने 4000 व्यक्तियों के साथ भागवती दीक्षा अंगीकार की थी। दीक्षा के दिन प्रभु ने छट्ठ का तप किया था। छट्ठ के पारणे में आदिनाथ प्रभु गोचरी के लिए पधारे परंतु कल्प्य भिक्षा दान से अनभिज्ञ होने के कारण कोई भी व्यक्ति प्रभु को योग्य भिक्षा नहीं दे सका।

अतः भिक्षा-विधि से अनभिज्ञ प्रजाजन प्रभु को तेजस्वी घोड़े, हाथी, रत्न व स्वर्ण के आभूषण, कीमती वस्त्र, रूपवती कन्या आदि लेने के लिए आग्रह करते, परंतु अकल्प्य जानकर प्रभु उन सब वस्तुओं का त्याग कर देते और मौन पूर्वक लौट जाते । प्रजाजनों को सुपात्र-दान की विधि का ख्याल नहीं था और इधर प्रभु के लाभांतराय-कर्म का तीव्र उदय भी था। तो ऐसे करते प्रभु के 400 दिन आहार किए बिना बीते। इस तरह एक वर्ष तक आहार नहीं करने से जो तप हुआ तो वह वर्षीतप कहलाया।

वर्षी तप की आराधना – भरतक्षेत्र के जीवों पर युगादिदेव आदिनाथ प्रभु का असीम उपकार है। 18 कोडाकोडी सागरोपम से इस भरतक्षेत्र में धर्म का सर्वथा अभाव था, उस अभाव को दूर किया था आदिनाथ प्रभु ने। 18 कोडाकोडी सागरोपम से भरत क्षेत्र में मोक्षमार्ग के द्वार बंद थे। आदिनाथ प्रभु ने ही वह द्वार खोला है अतः उनका असीम उपकार है।

भरत क्षेत्र में 50 लाख करोड़ सागरोपम तक आदिनाथ प्रभु का शासन चला था। चौथे आरे के आधे भाग में आदिनाथ प्रभु का ही शासन था, अतः भरत क्षेत्र में सर्वाधिक उपकार आदिनाथ प्रभु का हुआ था। आदिनाथ प्रभु ने दीक्षा के बाद निरंतर 400 दिन तक उपवास किए थे, उसी की याद में चतुर्विध संघ में आज भी अनेक पुण्यशाली आत्माएँ वर्षीतप की आराधना तपश्चर्या करती हैं।

इस वर्षीतप में 400 दिन तक एकांतर उपवास किये जाते हैं, कमी कभी चतुर्दशी के दिन उपवास का पारणा आता है तो उस पारणे के बदले उपवास ( छठ्ठ ) किया जाता है। एकांतर उपवास के पारणे में कम से कम बियासना किया जाता है। कर्ड भाग्यशाली बियासने के बदले एकासना भी करते हैं तो कई पुण्यशाली छठ्ठ के पारणे छठ्ठ वर्षीतप की आराधना करते हैं।

*वर्षीतप के फायदे *

1) उपवास की तपश्चर्या जिंदगी भर संभव नहीं है। महावीर प्रभु के शासन में निरंतर छह मास से अधिक तपश्चर्या का निषेध है जबकि वर्षीतप में एकांतर उपवास व बियासना होने से यह तप जिंदगी भर भी हो सकता है। उपवास के पारणे में बियासना होने से शरीर को कुछ आधार भी मिल जाता है।

2) अट्ठाई, सिद्धितप, नवपद ओली आदि तप थोड़े दिनों में समाप्त हो जाते हैं, जबकि वर्षीतप तो 13 मास तक चलता है, अतः व्यक्ति उस तप से Habitual हो जाता है। प्रारंभिक दिनों में कुछ तकलीफ हो सकती है, फिर तो यह तप खूब सरल हो जाता है।

3) उपवास का अर्थ है उप समीप। वास रहना। आत्मा के समीप रहना, इसका नाम उपवास है। भोजन से शरीर को पोषण मिलता है। उपवास से आत्मा को पोषण मिलता है। ठीक ही कहा है The Fast of the body is the feast of the soul. उपवास यह आत्मा का खुराक है।

4) पंजाब केसरी आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरिजी म.सा. फरमाते थे “उपवास यह आत्मा का घर है। आयंबिल यह मित्र का घर है, विगई यह दुश्मन का घर है। उपवास करने से हम आत्मा के समीप जाते हैं। विगइयों के सेवन से इन्द्रियों को पोषण व उत्तेजन मिलता है, जबकि उपवास से इन्द्रियाँ नियंत्रण में आती हैं। उपवास से ब्रह्मचर्य पालन में सहायता मिलती है। उपवास द्वारा आत्मा, आत्मा में रमण कर सकती है, जबकि विगइयों के सेवन से काम-वासना को उत्तेजना मिलती है।

पाँच इन्द्रियों में रसनेन्द्रिय सबसे अधिक बलवान है। अन्य सभी इन्द्रियों को रसनेन्द्रिय से ही पोषण मिलता है। रसनेन्द्रिय को जब भोजन मिलना बंद होता है तो उसके साथ ही अन्य इन्द्रियाँ स्वतः काबू में आने लगती हैं।

उपवास से अभयदान

गृहस्थ के एक समय के भोजन में असंख्य जीवों की हिंसा रही हुई है। गृहस्थ के रसोड़े में पृथ्वीकाय आदि छ काय की विराधना है। रसोई में कच्चे नमक का उपयोग होता है, अतः पृथ्वीकाय विराधना है। कच्चे पानी के बिना रसोई नहीं बनती है, अतः अप्काय की विराधना है।

रसोई में चूल्हे का उपयोग होता है, अतः तेऊकाय की विराधना वायु के बिना अग्नि टिक नहीं सकती अतः रसोई में वायुकाय विराधना है। रसोई में वनस्पति, अनाज आदि का उपयोग होता है, अतः वनस्पतिकाय की विराधना है। छोटे-मोटे बेइन्द्रिय आदि त्रस जीवों की भी विराधना रसोई जाती है। इस प्रकार गृहस्थ के रसोई में छह काय की विराधना है गृहस्थ के रसोड़े में छ काय की कतल है। एक दिन उपवास करनेवाला असंख्य जीवों को अभयदान देता है।

— जारीकर्ता गुलशन जैन गिरनार

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