पड़ोसी देश में राजा की बहाली से भारत पर क्या पड़ेगा असर
भारत के पड़ोसी देश नेपाल की राजधानी काठमांडू में इन दिनों राजशाही बनाम संघवाद पर चर्चा तेज़ है। बाहर से तो यह शहर शांत नज़र आता है, लेकिन लोगों से बात करें तो लगता है कि यहां सरकार के ख़िलाफ़ निराशा है। वहां तख्तापलट की आशंका के चलते दुनिया भर के मीडिया की निगाहें भी वहां लगी हैं। अन्य मीडिया रिपोर्ट्स और बीबीसी की खास रिपोर्ट के मुताबिक एक ओर जहां राजशाही के समर्थन में कुछ लोग आंदोलन कर रहे हैं, वहीं बड़ा तबका ऐसा भी है, जो सरकार से निराश तो है, लेकिन वो राजशाही की वापसी के पक्ष में नहीं है।
ऐसे में अहम सवाल, पड़ोसी देश नेपाल में राजशाही की वापसी का भारत पर क्या असर पड़ेगा। फिलहाल विदेश मामलों के माहिरों ने इस पर कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं जताई है। खैर, गत दिनों राजशाही के समर्थन में रैली के लिए नेपाल की राजधानी के बल्खू इलाक़े में पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह की तस्वीर लिए लोगों की भीड़ जमा हुई थी। राजशाही ख़त्म कर साल 2008 में लोकतांत्रिक गणराज्य बने नेपाल को हिंदू राष्ट्र बनाने और राजशाही की वापसी के लिए आवाज़ें उठने लगी थीं। हालांकि आंदोलन से जुड़ी रैलियों के बाहर इसका असर बहुत ज़्यादा नज़र नहीं आया। नेपाल के अन्य इलाक़ों में भी राजशाही समर्थक आंदोलन सीमित ही हैं। नेपाल के इतिहास में अधिकतर समय राज परिवार का शासन रहा, 1846 से 1951 तक राणा परिवार के प्रधानमंत्रियों की सत्ता रही।
देश में लोकतंत्र स्थापित करने का पहला प्रयास 1951 में हुआ, जब नेपाली कांग्रेस के लोकतंत्र समर्थक आंदोलन के कारण राजा त्रिभुवन की मदद से राणा परिवार को सत्ता से हटाया गया था। 1959 में नेपाल में पहले चुनाव हुए और बीपी कोइराला देश के पहले प्रधानमंत्री बने।
हालांकि नेपाल में लोकतंत्र का ये प्रयोग ज़्यादा दिन नहीं चल सका। 1960 में त्रिभुवन के बेटे महेंद्र बीर विक्रम शाह देव ने सत्ता पर क़ब्ज़ा करते हुए सभी लोकतांत्रिक संस्थानों को भंग कर दिया। 1960 से 1990 तक नेपाल में राजा का सीधा शासन रहा और देश में पंचायत व्यवस्था प्रभावी रही, इस दौरान राजनीतिक दल प्रतिबंधित रहे।
जन आंदोलन के बाद 1990 में राजशाही को संवैधानिक रूप दिया गया, हालांकि लोकतंत्र की स्थापना के प्रयास होते रहे। माओवादी आंदोलन के दौरान 1990 से 2006 तक गृह-युद्ध जैसे हालात रहे, हज़ारों लोगों की जानें गईं। जून 2001 में नेपाल के शाही परिवार के अधिकतर लोगों की संदिग्ध परिस्थितियों में हत्या कर दी गई, जो शाही परिवार के इतिहास में अहम मोड़ साबित हुआ और देश में राजसत्ता का पतन शुरू हुआ। इस हत्याकांड में तत्कालीन राजा बीरेंद्र बीर बिक्रम शाह देव भी मारे गए, बाद में उनके छोटे भाई ज्ञानेंद्र शाह ने गद्दी संभाल सत्ता अपने हाथों में ली। 2006 में गणतंत्र की स्थापना के लिए दूसरा जन आंदोलन खड़ा होने पर 2008 में राजा को सत्ता से हटाया गया। सितंबर, 2015 में नेपाल ने धर्मनिरपेक्ष संविधान अपनाया, देश की हिंदू राष्ट्र की पहचान समाप्त होकर मौजूदा संघीय व्यवस्था लागू हुई। अभी नेपाल में गणतांत्रिक राज्य की स्थापना को 17 साल ही हुए हैं और संविधान को लागू हुए 10 साल भी पूरे नहीं हुए। इस दौरान नेपाल में 14 सरकारें बदल गईं। नेपाल की कोई भी चुनी हुई सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। देश में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल हमेशा बना रहा।
2015 के बाद से प्रधानमंत्री की कुर्सी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के केपी शर्मा ओली, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) के पुष्प कमल दाहाल व नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देऊबा के बीच घूमती रही है। अभी केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने पिछले साल जुलाई में सत्ता संभाली थी। ओली अभी देऊबा की नेपाली कांग्रेस के साथ गठबंधन में सरकार चला रहे हैं। माहिरों को लगता है कि राजनीतिक अस्थिरता की वजह से देश का विकास नहीं हो। नेपाल में ऐसे लोग भी हैं, जो देश की हिंदू राष्ट्र की पहचान तो चाहते हैं, लेकिन राजसत्ता की वापसी नहीं चाहते। कई लोग हिंदू राष्ट्र तो चाहते हैं, लेकिन राज परिवार की वापसी नहीं। पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल के चचेरे भाई नारायण दाहाल के मुताबिक जनता ने आंदोलन से ही राजसत्ता को उखाड़ा था, अब नेपाल में राजशाही की गुंजाइश नहीं।
सात प्रांतों में बंटा नेपाल संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य है, प्रधानमंत्री सांसदों के बहुमत के आधार चुना जाता है। पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह को फिर सत्ता में लाने को आंदोलन की अगुआ राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी इसे बदलना चाहती है। राजशाही की वापसी की मांग ने अभी ज़ोर पकड़ा है। पिछले महीने जब पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह पोखरा से काठमांडू लौटे तो एयरपोर्ट पर भीड़ ने उनका स्वागत किया। फिर प्रदर्शन हिंसक हो गया, इस घटना के बाद सरकार ने कार्रवाई की, प्रमुख नेता हिरासत में लिए। अभी इस आंदोलन में तेज़ी नज़र नहीं आ रही है।
देश के क़ानून मंत्री व नेपाली कांग्रेस के नेता अजय चौरसिया कहते हैं कि आंदोलन कर राजा को जनता ने ही हटाया था। पहले मुठ्ठी भर लोग सत्ता का आनंद लेते रहे और अब फिर से देश की सत्ता पर क़ब्ज़ा करना चाहते हैं। नेपाल में नया संविधान लागू हुए अभी 10 साल भी नहीं हुए, देश ने 2015 में विनाशकारी भूकंप झेला, बाद में और चुनौतियां आईं। सरकार के संसाधन सीमित हैं, अभी नेपाल युवा लोकतंत्र है। बेशक नेपाल में राजशाही की वापसी और हिंदू राष्ट्र के लिए आंदोलन ने कुछ लोगों को जगाया है, लेकिन यहां असली सवाल विकास का है। नेपाल की अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी है. अंत्रराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुताबिक़ वर्ष 2024 में नेपाल में विकास दर 3.1 प्रतिशत थी। नेपाल की कुल जीडीपी का क़रीब एक चौथाई हिस्सा विदेशों में रह रहे नेपाली लोगों से आता है। अधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़ रोज़ाना 2000 से अधिक नेपाली युवा देश छोड़ रहे हैं। बीते एक साल में ही पांच लाख से अधिक युवा नेपाल छोड़ गए।
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नेपाल का हाल, क्या फिर बन सकता है हिंदू राष्ट्र ?
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पड़ोसी देश में राजा की बहाली से भारत पर क्या पड़ेगा असर
भारत के पड़ोसी देश नेपाल की राजधानी काठमांडू में इन दिनों राजशाही बनाम संघवाद पर चर्चा तेज़ है। बाहर से तो यह शहर शांत नज़र आता है, लेकिन लोगों से बात करें तो लगता है कि यहां सरकार के ख़िलाफ़ निराशा है। वहां तख्तापलट की आशंका के चलते दुनिया भर के मीडिया की निगाहें भी वहां लगी हैं। अन्य मीडिया रिपोर्ट्स और बीबीसी की खास रिपोर्ट के मुताबिक एक ओर जहां राजशाही के समर्थन में कुछ लोग आंदोलन कर रहे हैं, वहीं बड़ा तबका ऐसा भी है, जो सरकार से निराश तो है, लेकिन वो राजशाही की वापसी के पक्ष में नहीं है।
ऐसे में अहम सवाल, पड़ोसी देश नेपाल में राजशाही की वापसी का भारत पर क्या असर पड़ेगा। फिलहाल विदेश मामलों के माहिरों ने इस पर कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं जताई है। खैर, गत दिनों राजशाही के समर्थन में रैली के लिए नेपाल की राजधानी के बल्खू इलाक़े में पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह की तस्वीर लिए लोगों की भीड़ जमा हुई थी। राजशाही ख़त्म कर साल 2008 में लोकतांत्रिक गणराज्य बने नेपाल को हिंदू राष्ट्र बनाने और राजशाही की वापसी के लिए आवाज़ें उठने लगी थीं। हालांकि आंदोलन से जुड़ी रैलियों के बाहर इसका असर बहुत ज़्यादा नज़र नहीं आया। नेपाल के अन्य इलाक़ों में भी राजशाही समर्थक आंदोलन सीमित ही हैं। नेपाल के इतिहास में अधिकतर समय राज परिवार का शासन रहा, 1846 से 1951 तक राणा परिवार के प्रधानमंत्रियों की सत्ता रही।
देश में लोकतंत्र स्थापित करने का पहला प्रयास 1951 में हुआ, जब नेपाली कांग्रेस के लोकतंत्र समर्थक आंदोलन के कारण राजा त्रिभुवन की मदद से राणा परिवार को सत्ता से हटाया गया था। 1959 में नेपाल में पहले चुनाव हुए और बीपी कोइराला देश के पहले प्रधानमंत्री बने।
हालांकि नेपाल में लोकतंत्र का ये प्रयोग ज़्यादा दिन नहीं चल सका। 1960 में त्रिभुवन के बेटे महेंद्र बीर विक्रम शाह देव ने सत्ता पर क़ब्ज़ा करते हुए सभी लोकतांत्रिक संस्थानों को भंग कर दिया। 1960 से 1990 तक नेपाल में राजा का सीधा शासन रहा और देश में पंचायत व्यवस्था प्रभावी रही, इस दौरान राजनीतिक दल प्रतिबंधित रहे।
जन आंदोलन के बाद 1990 में राजशाही को संवैधानिक रूप दिया गया, हालांकि लोकतंत्र की स्थापना के प्रयास होते रहे। माओवादी आंदोलन के दौरान 1990 से 2006 तक गृह-युद्ध जैसे हालात रहे, हज़ारों लोगों की जानें गईं। जून 2001 में नेपाल के शाही परिवार के अधिकतर लोगों की संदिग्ध परिस्थितियों में हत्या कर दी गई, जो शाही परिवार के इतिहास में अहम मोड़ साबित हुआ और देश में राजसत्ता का पतन शुरू हुआ। इस हत्याकांड में तत्कालीन राजा बीरेंद्र बीर बिक्रम शाह देव भी मारे गए, बाद में उनके छोटे भाई ज्ञानेंद्र शाह ने गद्दी संभाल सत्ता अपने हाथों में ली। 2006 में गणतंत्र की स्थापना के लिए दूसरा जन आंदोलन खड़ा होने पर 2008 में राजा को सत्ता से हटाया गया। सितंबर, 2015 में नेपाल ने धर्मनिरपेक्ष संविधान अपनाया, देश की हिंदू राष्ट्र की पहचान समाप्त होकर मौजूदा संघीय व्यवस्था लागू हुई। अभी नेपाल में गणतांत्रिक राज्य की स्थापना को 17 साल ही हुए हैं और संविधान को लागू हुए 10 साल भी पूरे नहीं हुए। इस दौरान नेपाल में 14 सरकारें बदल गईं। नेपाल की कोई भी चुनी हुई सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। देश में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल हमेशा बना रहा।
2015 के बाद से प्रधानमंत्री की कुर्सी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के केपी शर्मा ओली, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) के पुष्प कमल दाहाल व नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देऊबा के बीच घूमती रही है।
अभी केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने पिछले साल जुलाई में सत्ता संभाली थी। ओली अभी देऊबा की नेपाली कांग्रेस के साथ गठबंधन में सरकार चला रहे हैं। माहिरों को
लगता है कि राजनीतिक अस्थिरता की वजह से देश का विकास नहीं हो। नेपाल में ऐसे लोग भी हैं, जो देश की हिंदू राष्ट्र की पहचान तो चाहते हैं, लेकिन राजसत्ता की वापसी नहीं चाहते। कई लोग हिंदू राष्ट्र तो चाहते हैं, लेकिन राज परिवार की वापसी नहीं।
पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल के चचेरे भाई नारायण दाहाल के मुताबिक जनता ने आंदोलन से ही राजसत्ता को उखाड़ा था, अब नेपाल में राजशाही की गुंजाइश नहीं।
सात प्रांतों में बंटा नेपाल संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य है, प्रधानमंत्री सांसदों के बहुमत के आधार चुना जाता है। पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह को फिर सत्ता में लाने को आंदोलन की अगुआ राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी इसे बदलना चाहती है। राजशाही की वापसी की मांग ने अभी ज़ोर पकड़ा है। पिछले महीने जब पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह पोखरा से काठमांडू लौटे तो एयरपोर्ट पर भीड़ ने उनका स्वागत किया। फिर प्रदर्शन हिंसक हो गया, इस घटना के बाद सरकार ने कार्रवाई की, प्रमुख नेता हिरासत में लिए। अभी इस आंदोलन में तेज़ी नज़र नहीं आ रही है।
देश के क़ानून मंत्री व नेपाली कांग्रेस के नेता अजय चौरसिया कहते हैं कि आंदोलन कर राजा को जनता ने ही हटाया था। पहले मुठ्ठी भर लोग सत्ता का आनंद लेते रहे और अब फिर से देश की सत्ता पर क़ब्ज़ा करना चाहते हैं। नेपाल में नया संविधान लागू हुए अभी 10 साल भी नहीं हुए, देश ने 2015 में विनाशकारी भूकंप झेला, बाद में और चुनौतियां आईं। सरकार के संसाधन सीमित हैं, अभी नेपाल युवा लोकतंत्र है। बेशक नेपाल में राजशाही की वापसी और हिंदू राष्ट्र के लिए आंदोलन ने कुछ लोगों को जगाया है, लेकिन यहां असली सवाल विकास का है। नेपाल की अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी है. अंत्रराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुताबिक़ वर्ष 2024 में नेपाल में विकास दर 3.1 प्रतिशत थी।
नेपाल की कुल जीडीपी का क़रीब एक चौथाई हिस्सा विदेशों में रह रहे नेपाली लोगों से आता है। अधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़ रोज़ाना 2000 से अधिक नेपाली युवा देश छोड़ रहे हैं। बीते एक साल में ही पांच लाख से अधिक युवा नेपाल छोड़ गए।
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