डॉ. परमलाल गुप्त
हमारी वर्तमान शासन-व्यवस्था मूलत: अंग्रेजों की देन है। इसके अन्य बहुत सी बातों में भी हमने अंग्रेजों की नकल की है। आजादी के इतने साल गुजर जाने के बावजूद हम अपनी अस्मिता से हटकर उत्तरोत्तर अंग्रेजियत के रंग में डूबते जा रहे हैं। इस रूप में हम गांधी जी की अवधारणा के अनुसार अब भी गुलाम हैं और अपने स्वराज्य के लक्ष्य से बहुत दूर हट गये हैं।
हमारी शासन व्यवस्था की प्रमुख विशेषता है संसदीय प्रणाली। यह व्यवस्था हमने इंग्लैंड से ली हैं। यदि इसमें कुछ परिवर्तन किया भी गया है तो उस पर हमारा ध्यान नहीं जाता। व्यवहार में हम इंग्लैंड की पार्लियामेंट का आदर्श अपनाते हैं। गांधीजी इंग्लैंड की पार्लियामेंट को अच्छा नहीं समझते थे। उनका कथन है कि जिसे आप पार्लियामेंटों की माता कहते है वह पार्लियामेंट तो बांझ और वेश्या है। जितना समय और पैसा पार्लियामेंट खर्च करती है उतना समय और पैसा अगर अच्छे लोगों को मिले तो प्रजा का उद्धार हो जाए। ब्रिटिश पार्लियामेंट महज प्रजा का खिलौना है और वह खिलौना प्रजा को भारी खर्च में डालता है। (हिन्द स्वराज्य पृष्ठ 30.31)
गांधीजी ने पार्लियामेंट को बांझ इसलिये कहा कि उसके मेम्बर दिखावटी, स्वार्थी और अपना मतलब साधने वाले होते हैं। पार्लियामेंट सिर्फ दबाव में ही कुछ काम करती है और अपने फैसले बदलती है। मेम्बर पार्टी के अनुशासन में बंधे होने के कारण स्वतंत्र मत व्यक्त नहीं कर सकते। पार्लियामेंट के रूप में उसका कोई एक मालिक बनता है, तब पार्लियामेंट भी उसी के अनुरूप अपनी चाल बदल देती है। प्रधानमंत्री अपने दल के लाभ के लिये पार्लियामेंट का उपयोग करते हैं। इस तरह प्रधानमंत्री प्रत्यक्ष न सही पर अप्रत्यक्ष रूप में भ्रष्ट आचरण करते है। जिसे हम घूस कहते हैं, वह घूस वे खुल्लम खुल्ला नहीं देते इसलिये भले ही वे ईमानदार कहे जाएं, लेकिन उनके पास वसीला काम कर सकता है। उनमें शुद्ध भावना और सच्ची ईमानदारी नहीं होती। (हिन्द स्वराज्य पृष्ठ 32)
गांधीजी के इस कथन की सत्यता से इनकार नहीं किया जा सकता। खास तौर से जब राजनीति का संबध नीति से विच्छिन्न हो गया हो और सत्ता प्राप्त करना तथा अन्य लाभ प्राप्त करना ही उसका एक मात्र लक्ष्य रह गया हो। उदाहरण के लिये यदि कांग्रेस को संसद में बहुमत प्राप्त न होता तो राजीव गांधी फाउन्डेशन ट्रस्ट को एक हजार करोड़ की रकम क्यों सहज ही मिल जाती?
गांधीजी वास्तव में दलीय पद्धति के खिलाफ थे। वे चाहते थे कि बुद्धि सम्पन्न, ईमानदार और समाज सेवी व्यक्ति शासन में आकर लोगों का भला करें। इसलिये उन्होंने भारत के आजाद होते ही कांग्रेस को भंग करने की सलाह दी थी। परन्तु उनकी कामना फलीभूत न हो सकी और हमारे यहां अंग्रेजी ढंग का दलीय लोकतंत्र स्थापित हो गया। एक गरीब देश की सरकार की वर्तमान शान-शौकत, मंत्रियों के दौरे और चुनावी खर्च देखकर निश्चय ही गांधी जी की आत्मा विचलित हो उठती होगी। गांधी जी अपने देश की अस्मिता के अनुरूप एक ऐसी पंचायती शासन व्यवस्था कायम करना चाहते थे जिसमें प्रत्येक व्यक्ति स्वावलम्बी, स्वशासित और आत्मबल से सम्पन्न बन सके। गांधी जी अंग्रेजियत के सख्त खिलाफ थे। वे मानते थे कि अंग्रेज यहां हमारी कमजोरी से ही टिके हुए हैं और यह कमजोरी है हमारी मानसिक गुलामी, हमारा पश्चिमी सभ्यता के जाल में फंसना। गांधीजी का कथन है “मेरी पक्की राय है कि हिन्दुस्तान अंग्रेजों से नहीं बल्कि आजकल की सभ्यता से कुचला जा रहा है। उसकी चपेट में वह फंस गया है।” (हिन्द स्वराज्य, पृष्ठ 39)
गांधी जी अंग्रेजों द्वारा स्थापित नौकरशाही, शिक्षा व्यवस्था और अदालतों के खिलाफ थे। वे अंग्रेजी ढंग की व्यवसायिक और भोगवादी मानसिकता को प्रश्रय देने वाली संस्थाओं के भी खिलाफ थे,जो भारतीयों के आत्मिक उत्थान में बाधक एवं गुलाम बनाने वाली हैं। अंग्रेज मानते है कि राजा कभी गलती नहीं करता। यह साम्राज्यवाद को पुष्ट करने वाला अचूक नुस्खा है। इसी के तहत उन्होंने राज करने वाले आई.सी.एस., आई.पी.एस. के साथ ही छोटे राजाओं और जागीरदारों का एक विशिष्ट वर्ग बनाया। आजादी के बाद नाम बदलकर छोटे-मोटे हेर-फेर के साथ अंग्रेजों के समय की यही नौकरशाही व्यवस्था चल रही है। जाहिर है कि यह नौकरशाही हुक्म चलाकर राज तो कर सकती है लेकिन जनता की सेवक नहीं बन सकती। राजा कभी गलती नहीं करता, इसी मान्यता के तहत आई.ए.एस.अफसरों को विशेष अधिकार और सुविधाएं प्राप्त है। इस वर्ग के असीमित अधिकारों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कलेक्टर जैसे जिले का राजा होता है।
बड़े से बड़े अधिकारी, बुद्धिजीवी, उद्योगपति, किसान आदि सबको उसके समक्ष झुकना पड़ता है। उसके दायित्वों के साथ अधिकारों की सूची हनुमान की पूंछ की तरह दिनों-दिन बढ़ती जाती है। शांति और व्यवस्था के अलावा अपराधों की छानबीन, चुनाव, विकास कार्य, सूखा और बाढ़ से बचाव, राहत कार्यों की देख-भाल, वस्तुओं की कीमतों पर नियंत्रण, आवश्यक वस्तुओं का उचित मूल्य पर वितरण, भूमि संबंधी विवादों का निपटारा, राजस्व की वसूली आदि न जाने क्या क्या? उसकी नाराजगी से किसी पर गाज गिर सकती है और मेहरबानी से कोई भी भूस्वामी बन सकता है। वह चक्रवर्ती सम्राट दशरथ की तरह कह सकता है-
कहु केहि रंकहि करौं नरेसू।
कहुं केहि नृपहिं निकारौं देसू॥
इसी प्रकार ज्यादातर सभी विभाग प्रमुख आई.ए.एस. अफसर होते हैं। इस तंत्र में विशेषज्ञ हमेशा दोयम दर्जे पर रखे जाते हैं। अत: इस नौकरशाही व्यवस्था के खिलाफ लोगों का असंतोष दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। इसने चाटुकारिता, भ्रष्टाचार आदि के लिये खूब उर्वर भूमि तैयार की है। गांधीजी नौकरशाहों के स्थान पर लोक सेवक चाहते थे। इसलिये उन्होंने गांवों को स्वावलम्बी बनाने के लिये पंचायतों की प्रमुखता पर जोर दिया था।
गांधीजी स्वीकार करते थे कि अंग्रेजी शिक्षा से हमने अपने देश को गुलाम बनाया है। उससे नौकरों की जहां एक बड़ी फौज खड़ी हुई है, वहां हम अग्रेजियत के गुलाम हो गये हैं। गांधीजी का मत था कि अंग्रेजों द्वारा स्थापित अदालतें लोगों में पारस्परिक वैर-विरोध बढ़ाकर उन्हें कंगाल बनाती हैं और वे लोगों को वास्तविक न्याय नहीं देतीं। वे सत्ता के उपादान हैं और वे लोगों को परनिर्भर बनाकर उन्हें सभ्यता के आवरण में कायर बनाती हैं। इन अदालतों में न्याय पाने के लिये वकीलों की जरुरत होती है और वकीलों का हित झगड़ा बढ़ाने में होता है। गांधी जी वकालत को जलालत मानते थे। वकीलों की जरुरत इसलिये होती है कि साधारण जन कानून से वाकिफ नहीं होते। कानून अंग्रेजी में हो तो और मुश्किल है। अदालतों की कार्यपद्धति में वकील के बिना काम नहीं चल सकता। इसलिये गांधीजी पंचायती अदालतों के समर्थक थे। वर्तमान समय में न्याय की प्रक्रिया और लम्बी तथा खर्चीली हो गयी है। इससे अक्सर देखा गया है कि गरीबों को न्याय नहीं मिलता और पैसे के बल पर असली अपराधी छूट जाते है। गांधीजी ने स्पष्ट घोषणा की थी कि “हम मानते है कि आपकी कायम की हुई शालाएं और अदालतें हमारे किसी काम की नहीं है। उनके बजाय हमारी असली पुरानी शालाएं और अदालतें हमें चाहिए। हिन्दुस्तान की आम भाषा अंग्रेजी नहीं बल्कि हिन्दी है। वह आपको सीखनी होगी और हम तो आपके साथ अपनी भाषा में ही व्यवहार करेंगे।”(हिन्द स्वराज्य, पृष्ठ 8)
गांधीजी के अनुसार हमारी गुलामी की जड़ अंग्रेजी शिक्षा है। इस शिक्षा ने सामान्य जनता से अलग एक शोषक वर्ग पैदा किया है और अंग्रेजी शोषण का अंग बन गयी है। नौकरशाह, वकील, डाक्टर नेता सब इसके बल पर सामान्य जनता का शोषण करते हैं। दूसरी ओर अंग्रेजी हमें अपने परिवेश से काटकर पश्चिमी सभ्यता का गुलाम बनाती है। गांधी जी का कहना था कि इस बात से जितनी जल्दी निजात पा ली जाए, उतना ही अच्छा है। नहीं तो रोग उतना ही असाध्य होता जायेगा। गांधी जी कहते है अगर हम धीरज धर कर बैठे रहेंगे तो सभ्यता की चपेट में आए हुए लोग खुद की जलाई हुई आग में जल मरेंगे। परन्तु आज स्थिति बिल्कुल इसके विपरीत है। हम तेजी से विकास करते और खुशहाल बनने के सपने में पश्चिमी जीवन पद्धति एवं कार्यशैली में जकड़ते जा रहे हैं। भोगवादी दृष्टि से कारण शासन तंत्र और गरीब जनता की बीच की दूरी बढ़ती जा रही है।
गांधीजी इस किस्म के विकास के खिलाफ थे। उनका कहना था “अमरीका के रॉकफेलरों से हिन्दुस्तान के रॉकफेलर कुछ कम हैं, ऐसा मानना निरा अज्ञान है। गरीब हिन्दुस्तान तो गुलामी से छूट सकेगा लेकिन अनीति से पैसे वाला बना हुआ हिन्दुस्तान गुलामी से कभी नहीं छूटेगा। “(हिन्द स्वराज्य पृष्ठ 83)
आजकल विकास के नाम पर हम तेजी से ऐसा ही गुलामी का फन्दा अपने पर कसते जा रहे है। गांधीजी की कल्पना का वह स्वराज्य हमारे सोच की धुंध में खो गया है।क्या हमें इस बात पर विचार करते हुए अपने शासन को सही दिशा देने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए?
(विभूति फीचर्स)