watch-tv

मौन हुई लोक संगीत की मुखर गायिका शारदा सिन्हा

👇खबर सुनने के लिए प्ले बटन दबाएं

Listen to this article

कुमार कृष्णन

पद्मभूषण शारदा सिन्हा का जाना, न सिर्फ बिहार-पूर्वांचल, बल्कि भारतीय लोक संगीत के एक युग का अंत है। ये उद्गार राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश के हैं।

दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में ज़िन्दगी मौत के जंग में वे हार गयीं और सैप्टीसिमिया के कारण रिफैक्ट्ररी शाक के कारण उनका निधन हो गया ।

शारदा सिन्हा ने मैथिली , भोजपुरी के साथ साथ बिहार की सभी लोक भाषाओं में गायन किया है। उनका गायन लोक जीवन, संस्कारों, और रीति रिवाजों से जुड़ा हुआ था।

उनकी पहचान हिंदी सिनेमा की पार्श्व गायिका के रूप में भी है। अपने प्रशंसकों के बीच ‘ बिहार की समृद्ध लोक परंपराओं को राज्य की सीमाओं से बाहर भी लोकप्रिय बनाने वालीं शारदा सिन्हा के कुछ प्रमुख गीतों में ‘‘छठी मैया आई ना दुआरिया’’, ‘‘कार्तिक मास इजोरिया’’, ‘‘द्वार छेकाई’’, ‘‘पटना से’’, और ‘‘कोयल बिन’’ शामिल थे। इसके अलावा उन्होंने बॉलीवुड फिल्मों में भी गाना गया था। इनमें ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर- टू’ के ‘तार बिजली’, ‘हम आपके हैं कौन’ के ‘बाबुल’ और ‘मैंने प्यार किया’ के ‘कहे तोसे सजना ये तोहरी सजनिया’ जैसे गाने शामिल हैं।

 

 

उनकी आवाज में विरह है, मिठास है, सुकून है, माटी का सुखद एहसास है। इसी कारण से भौतिक रूप में न रहने के बावजूद लाखों-करोड़ों संगीत प्रेमियों की आत्मा में बसती हैं। खासकर, बिहार में। बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश में शायद ही कोई ऐसा घर हो जहां विवाह, उपनयन या मुंडन संस्कार में शारदा सिन्हा की मौजूदगी न हो। अपने दमदार व पारंपरिक गीतों के माध्यम से मौजूदगी। कड़वा सच है कि आज बिहार, यूपी ही नहीं, राजस्थान में भी लोक गीतों का प्रचलन खत्म होेने को है, जबकि इन लोकगीतों में हमारे प्राण बसते हैं। अपने स्पन्द-प्रदायी कोकिला-कंठ से लोकधुन और लोक-परंपराओं को उन्होंने अप्रतिम ऊँचाई प्रदान की। वे अब किसी मंच पर गाती हुईं दिखाई नहीं देंगी, किन्तु जब तक पृथ्वी पर सूर्योपासना का यह महापर्व होता रहेगा, शारदा जी अनन्त काल तक अपने स्वर में जीवित रहेंगी।

जिस आवाज़ से छठ की शुरूआत हुआ करती थी, वही आवाज़ छठ के शुरू होते ही ख़ामोश हो गई। शारदा सिन्हा जी अब हमारे बीच नहीं हैं। शारदा सिन्हा ने अपनी गायकी से ऐसी सामूहिकता का सृजन किया जिसे पहचानने के लिए ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना नहीं पड़ता है बल्कि चुपचाप अपने भीतर महसूस करना होता है। उनके गीत छठ का हिस्सा हैं। कहते हैं छठ में कुछ भी बाहरी परिवर्तन नहीं हुआ, जो पुराना है वही चला आ रहा है सिवाय शारदा सिन्हा के छठ गीतों के। क्या कोई छठ को शारदा सिन्हा की आवाज़ से अलग कर सकता है? इन्हीं दिनों उनके गीत लाउड स्पीकर पर बजने लगते हैं। खेत, खलिहानों और नदी किनारे बने घाटों से आ रही उनकी आवाज़ गांव-घर बुलाने लग जाती थी। शारदा सिन्हा की आवाज़ बिहार जैसे ग़रीब राज्य को समृद्ध बनाती थी। आज बिहार की समृद्धि थोड़ी कम हो गई।

जब भी भारत के गाँवों में, विशेषकर बिहार और पूर्वांचल में, कोई मंगल अनुष्ठान होगा, उनके गाए गीतों के स्वर शताब्दियों तक हमारे मन-प्राण को झंकृत करते रहेंगे!

शारदा सिन्हा ने करीब 50 साल पहले यानी साल 1974 में पहला भोजपुरी गाना गाया था।लेकिन इसके बाद उनका संघर्ष जारी रहा। फिर साल 1978 में उन्होंने छठ गीत ‘उग हो सुरुज देव’ गाया। इस गाने ने रिकॉर्ड बनाया और यही से शारदा सिन्हा और छठ पर्व एक दूसरे के पूरक हो गए। करीब 46 साल पहले गाए इस गाने को आज भी छठ घाटों पर सुना जा सकता है।

शारदा सिन्हा के छठ पूजा में।गाए गीत लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हैं।शारदा सिन्हा ने छठ पूजा पर कई लोक और पारंपरिक गीत गाए। उनके गीतों के बगैर तो छठ पर्व अधूरा होता है और छठ पूजा भी। छठ में सूप,डाला और ठेकुआ की तरह जरूरी है शारदा सिन्हा के छठ गीत।उन्होंने भोजपुरी, मगही, बज्जिका और मैथिली जैसी भाषाओं में कई छठ गीत गाकर छठ पर्व को भक्ति और उत्साह से भर दिया।उनके छठ गीतों में बिहार की माटी की सोंधी सुगंध, भाव और भक्ति विभोर करने वाले शब्द होते थे।उनके छठ गीतों में हे दीनानाथ (सूर्य देव) और छठी मैया की पुकार होती थी, सुहाग और संतान रक्षा की मुराद होती थी।

उनके चेहरे पर मासूमियत और कंठ में सरस्वती विराजमान थीं। वे प्रशिक्षित शास्त्रीय गायिका थीं, जिन्होंने अपने कई गीतों में लोक संगीत का मिश्रण किया। उन्हें अक्सर ‘मिथिला की बेगम अख्तर’ कहा जाता था। वह हर साल छठ पर्व पर एक नया गीत जारी करती थीं। बिहार कोकिला’ के नाम से मशहूर एवं सुपौल के हुलास गाँव में 1 अक्टूबर 1952 को जन्मीं सिन्हा छठ पूजा एवं विवाह जैसे अवसरों पर गाए जाने वाले लोकगीतों के कारण अपने गृह राज्य बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में मशहूर थीं। उनके पिता सुखदेव ठाकुर शिक्षा विभाग में अधिकारी थे। वे अपने पिता को पहला गुरू मानती थीं। उन्होंने आरंभ से ही प्रोत्साहन और हौसला दिया। गाँव के नाटक में पहली बार उन्होंने सरस्वती वंदना का गीत गाया था। बचपन से ही उन्होंने संगीत को जीवन बना लिया था। शुरूआती दौर में संगीत सीखने को लेकर मां नाराज थीं। उनके पिता बहुत बडे़ विद्वान और दूरदर्शी थे। उनका मानना था कि बच्चों का रूझान जिस ओर हो,उसे उसी दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इस दौरान गाना बहुत ही चुनौतीपूर्ण था। स्टेज पर लड़कियों के गाना गाने को लेकर समाज का नज़रिया प्रगतिवादी नहीं, बल्कि रूढ़िवादिता से ग्रस्त था। तमाम विरोधों को झेलते हुए पिता ने गाँव के कार्यक्रम में गाने की इजाजत दी। पिता ने रूढ़िवादिता से ग्रस्त लोगों को दो टूक लहजे में कहा-” आपको शरम आती है तो आप घरों में बैठिए, उसने सीखा है तो आगे बढ़ने का अवसर तो मिलना चाहिए।” इनके पिता ने अपनी बेटी के संगीत प्रेम को बचपन में ही पहचान लिया और ट्रेनिंग शुरू करा दी। घर पर ही इन्हें संगीत की शिक्षा मिलने लगी। हालांकि, पढ़ाई भी साथ-साथ जारी रही। उन्होंने नहीं समझा होता तो आज शारदा सिन्हा नहीं होती। नाटकों के एक दृश्य से दूसरे दृश्य के बीच का जो अंतराल होता था, उस बीच वह गाती थीं। उन्होंनें स्टेज पर पहला पहला गाना ‘जय जगदीश्वरी मातु सदा पालनहारी’ गाया ।शादी के बाद उनकी गायकी को लेकर ससुराल में आपत्ति हुई लेकिन उनके पति ने उनका साथ दिया और संगीत साधना में रमी रहीं।सिन्हा ने 1970 के दशक में पटना विश्वविद्यालय में साहित्य का अध्ययन किया और उसी दौरान उनके मित्रों और शुभचिंतकों ने उन्हें गायन के प्रति अपने जुनून को निखारने के लिए प्रेरित किया था। बार-बार उनको इस तरह की सलाह मिलती थी, खुद उनकी भी संगीत के प्रति रुचि भी उनको आखिरकार एक प्रसिद्ध गायिका बनने की राह दिखाती चली गयी।

उनके प्यार और समर्थन से ही उन्होंने गायन के प्रति अपने जुनून को आगे बढ़ाया और जल्द ही प्रसिद्धि उनके पीछे-पीछे चली गई। बकौल शारदा सिन्हा “हमारी शादी 1970 के दशक में हुई थी और मेरे ससुराल का घर मेरे अपने घर से काफी अलग था… जहां घर पर भजन गाना ठीक था, मेरे ससुराल की महिलाओं को सार्वजनिक रूप से गाने की अनुमति नहीं थी।”लेकिन उनके ससुर और पति बृजकिशोर सिन्हा ने उनका पूरा समर्थन किया। ससुर की प्रेरणा से उन्हें ठाकुरबाड़ी में भजन गाने का मौका मिला, जिससे उनके संगीत का सफर फिर से शुरू हो पाया। उनके ससुर से जुड़ा एक किस्सा काफी लोकप्रिय है, जब शारदा जी ने सिर पर पल्लू लेकर तुलसीदास जी का भजन मोहे रघुवर की सुधि आई गाया। गाने के बाद समारोह स्थल पर मौजूद उनके ससुर सहित सभी लोगों ने उन्हें आशीर्वाद दिया।

 

शारदा सिन्हा बिहार के बेगूसराय की रहने वाली थीं। बेगूसराय शारदा सिन्हा का ससुराल था। उनके पति बृजकिशोर सिन्हा भी शिक्षा विभाग में ही काम करते थे। शारदा सिन्हा लोक गायिका के साथ-साथ समस्तीपुर कॉलेज में प्रोफेसर भी थीं।दोनों पति-पत्नी सेवानिवृत्ति के बाद दिल्ली से सटे इंदिरापुरम में अपने बेटे के साथ सालों से रह रहे थे।

उन्होंने दरभंगा स्थित ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय से संगीत में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की और साथ ही लोक गायिका के रूप में अपनी पहचान भी बनाई। इसके बाद फिल्म जगत में भी सिन्हा को पहचाने जाना लगा।

शारदा सिन्हा ने 1990 की मशहूर बॉलीवुड फिल्म ‘‘मैंने प्यार किया’’ में ‘‘कहे तोसे सजना’’ गीत गाया था और लोगों ने इस गाने को बहुत ज्यादा पसंद किया था। इस फिल्म में सलमान खान ने मुख्य भूमिका निभायी थी। शारदा सिन्हा इसके बाद और ज्यादा लोकप्रिय हो गईं और उन्होंने अपनी आवाज के माध्यम से लोक संगीत की समृद्ध परंपरा को आगे बढ़ाना जारी रखा। हालांकि उन्होंने इस बात का ध्यान भी रखा कि वह कभी भी घटिया और द्विअर्थी गीत न गाएं।

शारदा सिन्हा को उनके संगीत योगदान के लिए कई पुरस्कार मिले, जिनमें 1991 में पद्मश्री, 2000 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 2006 में राष्ट्रीय अहिल्या देवी अवार्ड, 2015 में बिहार सरकार पुरस्कार और 2018 में पद्मभूषण शामिल हैं।

कुमार कृष्णन

(विनायक फीचर्स)

Leave a Comment