शिअद की ‘कड़ी-शर्तों’ पर राजी न हो सकी बीजेपी
लुधियाना 26 मार्च। जैसी राजनीतिक-आशंका थी, आखिरकार शिरोमणि अकाली दल-बादल के साथ भारतीय जनता पार्टी का गठबंधन नहीं हो सका। लिहाजा अब दोनों पार्टियां पंजाब में अकेले ही लोकसभा चुनाव लड़ेंगी। भाजपा प्रदेश प्रधान सुनील जाखड़ ने सोशल मीडिया के जरिए मंगलवार को इसका खुलासा किया।
जाखड़ ने कहा कि भाजपा पंजाब में अकेले चुनाव लड़ने जा रही है। यह फैसला पार्टी ने लोगों, वर्करों, लीडरों से बात करके लिया है। पंजाब की जवानी, व्यापारी, मजदूरों आदि के भविष्य के लिए यह फैसला लिया गया है। जो काम भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेृत्तव में पंजाब के लिए किए हैं, वो किसी ने नहीं किए। किसानों के फसलों का एक-एक दाना पिछले 10 साल उठाया गया, जिसका भुगतान उनके खातों में एक हफ्ते के अंदर पहुंचा। पंजाब के सुनहरे भविष्य बेहतरी, पंजाब की सुरक्षा और अमन-शांति को मजबूत रखकर ही देश तरक्की करेगा। इसके मद्देनजर ही यह फैसला लिया गया। उन्होंने उम्मीद जताई कि पंजाब के लोग इस लोस चुनाव में भाजपा के समर्थन में वोट करेंगे।
क्यों नहीं मिल सके सियासी-सुर ? दरअसल शिअद की कोर कमेटी में पारित प्रस्ताव ही पंजाब में अकाली दल और भाजपा के गठजोड़ में रोड़ा बन गया। भाजपा को अकाली दल की कोर कमेटी के पारित प्रस्ताव में कई मुद्दों पर कड़ी आपत्ति थी। कारण यह था कि कई संवेदनशील मुद्दे सीधेतौर पर राष्ट्रवाद से जुड़े थे। मसलन, एनएसए को खत्म करने, फिरोजपुर व अटारी बार्डर खोलने जैसे मुद्दों पर बीजेपी, अकालियों के सुर से सुर मिलाने का रिस्क कतई नहीं लेना चाहती थी।
दो बड़ी वजह यह भी रहीं : अकाली-भाजपा गठजोड़ दोबारा न होने की दो खास वजह किसान आंदोलन और बंदी सिखों की रिहाई के मामले भी रहे। दरअसल इन मुद्दों से अकाली बड़ी आस लगाए हुए हैं। ताकि वह पंजाब में अपनी खोई सियासी-जमीन फिर से वापिस हासिल कर सकें। ऐसे हालात में अगर अकाली इन दोनों मुद्दों पर पीछे हटते तो किसान और पंथक वोट उनको हासिल नहीं होने थे।
किसान आंदोलन के चलते हुए थे अलग : लंबे समय तक चले शिअद-भाजपा गठजोड़ में साल 2020 में दरार आई थी। तब तीन कृषि कानूनों को रद्द कराने के लिए किसान आंदोलन कर रहे थे। केंद्र की भाजपा सरकार में अकाली साझीदार थे। लिहाजा किसान पंजाब में बीजेपी के साथ अकाली नेताओं का बहिष्कार कर रहे थे। तब बड़े सियासी-नुकसान से डरे अकालियों ने अहम फैसला लिया। नतीजतन, सितंबर-2020 को शिअद सांसद हरसिमरत कौर बादल ने केंद्र में मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। फिर शिअद ने भाजपा से अलग होने का ऐलान कर दिया था।
चुनावी-गठजोड़ 1996 में किया था : यूं तो शिअद और भाजपा का सियासी-रिश्ता काफी पुराना था। एनडीए के वजूद में आने पर शिअद ने ही इसमें शामिल होने की पहल की थी। हालांकि 1992 तक दोनों पार्टियां अलग-अलग चुनाव लड़ी रहीं। चुनाव के बाद अकाली, भाजपा का समर्थन करते थे। साल 1996 में शिअद ‘मोगा डेक्लरेशन’ पर साइन कर 1997 में पहली बार भाजपा के साथ चुनावी-मैदान में उतरा था। इस गठबंधन ने पंजाब में दो बार सरकार बना सत्ता-सुख भोगा था। बेशक, दूसरी प्रकाश सिंह बादल ही सीएम रहे, लेकिन उनके बेटे सुखबीर बादल ने बतौर डिप्टी सीएम सत्ता की कमान संभाली।
सियासी-रिश्तों में ऐसे पड़ी दरार : पंजाब में गठबंधन की सरकार रहते डिप्टी सीएम सुखबीर बादल की हर मामले में दखलंदाजी या कहें मनमानी से भाजपा नेता बिदकने लगे। पंजाब के पार्टी नेताओं के इसी असंतोष का सीधी असर 2014 में लोकसभा चुनाव में देखने को मिला। अकालियों को सत्ता में रहते हुए भी बड़ा झटका लगा। उसे 2009 में मिली 8 सीटों के बाद इस चुनाव में 4 सीटों पर संतोष करना पड़ा। आपसी खींचतान का नुकसान बीजेपी को भी रहा, उसकी पहले 3 सीटें थीं, जो इस चुनाव में सिमटकर 2 ही रह गईं।
पिछले लोस चुनाव में लगा बड़ा झटका : पिछले लोस चुनाव में पंजाब के चुनावी मैदान पर कांग्रेस, शिअद-भाजपा गठजोड़ और आप के बीच था। कांग्रेस ने आठ सीटें जीतकर 40.18 फीसदी वोट हासिल कर लिए थे। जबकि शिअद-भाजपा गठजोड़ को महज चार सीटें मिलने के साथ ही उसका वोट प्रतिशत भी 37.08 ही रहा था।
अब क्या होगा, चर्चाएं शुरु : गठजोड़ न होने के बाद इस लोस चुनाव में पंजाब में भाजपा और शिअद की राजनीतिक स्थिति कैसी रहेगी, ऐसे चर्चाएं भी तेज हो गई हैं। साथ ही इसका कितना सियासी-फायदा कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को मिल सकता है, यह भी कयास लगाने का दौर शुरु हो गया है। हालांकि सियासी-जानकारों का मानना है कि फिलवक्त कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। सभी प्रमुख दलों के उम्मीदवार घोषित होने के बाद ही सही आंकलन किया जा सकता है।
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