आज का युवा तकनीकी रूप से आधुनिक है, लेकिन मानसिक स्तरपर अक्सर पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित है।

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भारत का ज्ञान-सागर अनंत है, वैदिक साहित्य केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं थे,बल्कि उनमें जीवन के प्रत्येक पहलू से जुड़ा विज्ञान समाहित था

 

जब तक हम युवाओं को अपनी हज़ारों साल पुरानी परंपरा,ज्ञान और संस्कृति को नहीं बताएँगे, हम वैसे ही रहेंगे जैसे अंग्रेजों ने हमें दिखाए हैं-एडवोकेट किशन सनमुख दास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र

 

गोंदिया – भारत विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक है। इसकी जड़ें हज़ारों वर्षों पुरानी परंपराओं, ज्ञान और संस्कृति में गहराई से जुड़ी हुई हैं।यहाँ वेद, उपनिषद,पुराण,महाभारत,रामा

यण योग,आयुर्वेद, वास्तुशास्त्र, खगोलशास्त्र और गणित जैसी महान धरोहरें विकसित हुईं।मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र ऐसा मानता हूं कि यही वह परंपरा थी जिसने भारत को ‘विश्वगुरु’ का दर्जा दिलाया। लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों ने हमारी शिक्षा प्रणाली, संस्कृति और इतिहास को इस प्रकार प्रस्तुत किया कि भारतीय अपनी ही जड़ों से कटते चले गए। आजादी के इतने वर्षों बाद भी हम अपने युवाओं को अपनी वास्तविक पहचान नहीं बता पाए हैं। जब तक यह स्थिति बनी रहेगी,तब तक हम उसीमानसिक गुलामी में जीते रहेंगे,जिसे अंग्रेज हम पर थोप कर गए थे।भारत का ज्ञान-सागर अनंत है। वैदिक साहित्य केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं थे, बल्कि उनमें जीवन के प्रत्येक पहलू से जुड़ा विज्ञान समाहित था। उपनिषदों ने आत्मा, ब्रह्म और जीवन के गूढ़ रहस्यों की खोज की।आयुर्वेद ने चिकित्सा को प्रकृति के साथ जोड़ा, जहाँ रोग निवारण के साथ- साथ जीवन जीने की कला भी सिखाई गई। सुश्रुत को शल्य चिकित्सा का पिता कहा गया, वहीं चरक ने संपूर्ण चिकित्सा शास्त्र को व्यवस्थित किया।गणित के क्षेत्र में आर्यभट, वराहमिहिर और भास्कराचार्य ने शून्य, दशमलव, ग्रहों की गति और खगोल विज्ञान पर अद्वितीय कार्य किए। योग की परंपरा ने शरीर, मन और आत्मा को संतुलित करने का मार्ग दिखाया। यदि यह सब हम अपने युवाओं को सिखाएँ, तो वे केवल पश्चिमी विज्ञान और संस्कृति के अनुयायी नहीं, बल्कि अपनी जड़ों से जुड़े हुए आत्मनिर्भर व्यक्तित्व बनेंगे।

साथियों बात अगर हम भारतीय संस्कृति की विशेषताओं की करें तो,भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता उसकी विविधता और समन्वय है। यहाँ अलग- अलग धर्म, जातियाँ, भाषाएँ और परंपराएँ हैं,फिर भी यह विविधता “एकता” के सूत्र में बंधी हुई है। गंगा-जमुनी तहज़ीब से लेकर बौद्ध, जैन,सिख और संत परंपरा तक, हर युग ने भारतीय संस्कृति को और अधिक समृद्ध किया। परिवार व्यवस्था,गुरु-शिष्य परंपरा और सामूहिक जीवन की अवधारणा ने समाज को एकजुट रखा। कला, संगीत, नृत्य और साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि जीवन जीने की प्रेरणा रहे।युवाओं को यदि यह बताया जाए कि उनकी संस्कृति कितनी व्यापक और गहन है, तो उनमें आत्मगौरव की भावना पैदा होगी और वे किसी विदेशी संस्कृति के प्रभाव में आसानी से नहीं बहेंगे।

साथियों बात अगर हम अंग्रेजों द्वारा थोपी गई मानसिकता की करें तो, अंग्रेजों ने भारत को केवल राजनीतिक रूप से ही गुलाम नहीं बनाया,बल्कि मानसिक औरसांस्कृतिक गुलामी भी थोपी।“मैकॉले की शिक्षा प्रणाली”का मुख्य उद्देश्य था कि भारतीय ऐसे लोग बनें,जो रंग- रूप से भारतीय हों लेकिन सोच और मानसिकता से अंग्रेज। इसके लिए उन्होंने पारंपरिक शिक्षा प्रणाली को ध्वस्त किया और अंग्रेजी माध्यम को श्रेष्ठ बनाकर प्रस्तुत किया। भारतीय भाषाओं, साहित्य और दर्शन को पिछड़ा और अवैज्ञानिक कहकर तिरस्कृत किया गया। इतिहास को इस तरह से लिखा गया कि विदेशी आक्रांताओं को महिमा मंडित किया गया और भारतीय उपलब्धियों को या तो छोटा कर दिया गया या नकार दिया गया। इस कारण पीढ़ी दर पीढ़ी भारतीय युवाओं का अपनी परंपरा पर विश्वास कमजोर होता चला गया।

साथियों बात अगर हम युवाओं पर पश्चिमी प्रभाव की करें तो, आज का युवा तकनीकी रूप से आधुनिक है, लेकिन मानसिक स्तर पर अक्सर पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित होता है।पश्चिमी फैशन, भोजन,संगीत,सिनेमा और जीवनशैली उसे आकर्षित करते हैं। अंग्रेजों द्वारा थोपी गई मानसिकता का असर आज भी है,जहाँ कई युवा भारतीय परंपरा को पिछड़ा समझते हैं,उन्हें यह बताया ही नहीं गया कि हमारी संस्कृति कितनी महान और वैज्ञानिक है। यदि किसी युवा को यह ज्ञान न हो कि योग केवल व्यायाम नहीं, बल्कि मानसिक शांति और आत्मविकास का साधन है,तो वह इसे पश्चिमी जिम संस्कृति से तुलना करके ही देखेगा।इसी प्रकार, यदि उसे आयुर्वेद की शक्ति नहीं बताई जाएगी,तो वह केवल आधुनिक दवाइयों पर ही जिंदगी भर निर्भर रहेगा।

साथियों बात अगर हमपरंपरा से कटाव के दुष्परिणामों की करें तो,जब युवा अपनी परंपरा और संस्कृति से कट जाते हैं, तो सबसे बड़ा नुकसान उनकी पहचान को होता है।वेआत्मगौरव खो देते हैं और किसी विदेशी संस्कृति का अंधानुकरण करने लगते हैं।समाज में नैतिक मूल्यों का क्षरण होता है और परिवार व्यवस्था कमजोर पड़जाती है। उपभोक्तावाद और भौतिकवाद जीवन का अंतिमलक्ष्य बन जाता है। ऐसे में राष्ट्र की सामूहिक चेतना भी कमजोर होती है। यदि हम युवाओं को अपनी जड़ों से नहीं जोड़ पाए, तो भविष्य की पीढ़ियाँ भारतीय होने पर गर्व करना ही भूल जाएँगी और केवल वही रूप देखेंगी, जो अंग्रेज उन्हें दिखाकर गए थे।

साथियों बात अगर हम युवाओं तक परंपरा पहुँचाने की आवश्यकता की करें तो,युवाओं तक परंपरा और संस्कृति पहुँचाने का कार्य केवल शिक्षा संस्थानों का ही नहीं,बल्कि परिवार, समाज और मीडिया का भी है।विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में भारतीय ज्ञान परंपरा को आधुनिक संदर्भों के साथ पढ़ाया जाए।परिवार में बच्चों को कहानियों,पर्व-त्योहारों और अनुष्ठानों के माध्यम से संस्कृति का अनुभव कराया जाए। मीडिया और डिजिटल प्लेटफार्मों का उपयोग भारतीय कला, संस्कृति और परंपराओं को प्रस्तुत करने के लिए किया जाए। यदि यह काम व्यवस्थित ढंग से किया जाए, तो युवा अपनी संस्कृति से जुड़ेंगे और अपने भविष्य को उसी आधार पर गढ़ेंगे।

साथियों बात अगर हम परंपरा और आधुनिकता का संतुलन की करें तो,युवाओं को यह समझाना होगा कि परंपरा का मतलब पुराने ढर्रे पर अटक जाना नहीं है। आधुनिकता और परंपरा में टकराव नहीं, बल्कि संतुलन आवश्यक है। हमें आधुनिक विज्ञान और तकनीक को अपनाना चाहिए, लेकिन साथ ही अपनी सांस्कृतिक जड़ों को भी मजबूती से थामे रहना चाहिए। योग और आयुर्वेद को आधुनिक चिकित्सा प्रणाली के साथ जोड़ना,भारतीय भाषाओं को तकनीक के साथ विकसित करना,और प्राचीन दर्शन को आधुनिक समस्याओं केसमाधान से जोड़ना इसी संतुलन का उदाहरण है। यह संदेश युवाओं को देना होगा कि वे आधुनिक बनें, लेकिन अपनी पहचान और संस्कृति को भूले नहीं।

साथियों बात अगर हम भविष्य की राह की करें तो भारत का भविष्य उसके युवाओं पर निर्भर है। यदि युवा अपनी परंपरा और संस्कृति से जुड़ेंगे,तो वे आत्मगौरव और आत्मनिर्भरता के साथ राष्ट्र निर्माण करेंगे। यदि वे केवल पश्चिमी ढांचे में ढलेंगे, तो उनकी सोच भी पराधीन रहेगी। इसलिए अब यह समय है कि हम युवाओं को अपने गौरवशाली अतीत से परिचित कराएँ। स्कूलों में भारतीय इतिहास और परंपरा को सही स्वरूप में पढ़ाया जाए, विश्वविद्यालयों में भारतीय ज्ञान परंपरा पर शोध हो, और समाज में सांस्कृतिक जागरूकता बढ़ाई जाए। तभी भारत पुनः विश्वगुरु की दिशा में आगे बढ़ सकेगा।इसलिए“जब तक हम युवाओं को अपनी हज़ारों साल पुरानी परंपरा, ज्ञान और संस्कृति को नहीं बताएँगे, हम वैसे ही रहेंगे जैसे अंग्रेजों ने हमें दिखाए हैं”,यह कथन केवल एकचेतावनी नहीं, बल्कि हमारे लिए मार्गदर्शन है। युवाओं को यदि अपनी पहचान का ज्ञान नहीं होगा, तो वे कभी भी आत्मगौरव महसूस नहीं करेंगे।आज आवश्यकता है कि हम अपनी शिक्षा प्रणाली, सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक गतिविधियों में इस चेतना को जगाएँ। जब युवा अपनी जड़ों से जुड़े होंगे, तभी भारत वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनेगा। तभी हम अंग्रेजों की बनाई हुई छवि से बाहर निकलकर अपनी असली पहचान पा सकेंगे।

अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि आज का युवा तकनीकी रूप से आधुनिक है,लेकिन मानसिक स्तरपर अक्सर पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित है।भारत का ज्ञान- सागर अनंत है,वैदिक साहित्य केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं थे,बल्कि उनमें जीवन के प्रत्येक पहलू से जुड़ा विज्ञान समाहित था,जब तक हम युवाओं को अपनी हज़ारों साल पुरानी परंपरा,ज्ञान और संस्कृति को नहीं बताएँगे, हम वैसे ही रहेंगे जैसे अंग्रेजों ने हमें दिखाए हैं।

 

*-संकलनकर्ता लेखक – कर विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र *

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