प्रकाशनार्थ : राजेंद्र शर्मा के तीन व्यंग्य
*1. नॉन-बायोलॉजीकल से बायोलॉजीकल भये, कर-कर लंबी बात*
अब बोलें, जिन्हें मोदी जी के राज में विकास दिखाई ही नहीं देता है। यह उनकी आंखों में सिर्फ मोतियाबिंद उतर आने का मामला नहीं है, हमें तो लगता है कि उनकी नजर ही जाती रही है। वर्ना मोदी जी ने तो ऐसी-ऐसी जगहों पर और ऐसा-ऐसा विकास कर दिया है, जिसकी अब तक किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। नेहरू-वेहरू खानदान वालों की तो खैर बात ही क्या करना, किसी नरसिंह राव या मनमोहन सिंह ने भी नहीं और यहां तक कि प्रात:स्मरणीय वाजपेयी जी तक ने नहीं।
पहले कभी किसी ने सुना था कि कोई नॉन-बायोलॉजीकल से विकास कर के बायोलॉजीकल हो गया हो और वह भी देश के किसी कोने-कुचारे में नहीं, प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठे-बैठे! पहले नहीं सुना था ना! पर अब मोदी ने सुनवा भी दिया और वीडियो जारी कर के दिखवा भी दिया। नॉन-बॉयोलॉजीकल से बायोलॉजीकल और वह भी सिर्फ छ: महीने में। यानी न सिर्फ विकास, बल्कि ताबड़तोड़ विकास, तूफानी विकास, धुआंधार विकास। तुमको और कितना विकास मांगता है, भारतवर्ष वालों!
पर हाय, नकारात्मकता के मारे भारत देश। मोदी जी के विरोधी इस मौके पर भी अपनी नेगेटिविटी छोड़ने को तैयार नहीं हैं। उल्टे पूछ रहे हैं कि नॉन-बायोलॉजीकल से बायोलॉजीकल होना विकास कैसे हो गया?बायोलॉजीकल तो वैसे भी नॉन-बायोलाजीकल से छोटा शब्द है। बड़े से छोटे की ओर यात्रा को विकास कैसे कह सकते हैं। हमें तो ये ह्रास को ही विकास कहकर बेचे जाने का मामला लगता है, जिसमें मोदी जी का स्पेशलाइजेशन है।
भाई लोग इतने तक ही रुक जाते, तब तो फिर भी गनीमत थी। विकास की रफ्तार पर भी सवाल उठा रहे हैं और इसे ताबड़तोड़ ह्रास का मामला बता रहे हैं। और कह रहे हैं कि यह ताबड़तोड़ ह्रास चुनाव में पब्लिक के जोर का धक्का, जोर से ही लगाने की वजह से हुआ है। जब तक चार सौ पार की उम्मीद थी, मोदी जी नॉन-बायोलॉजीकल होने में जुटे हुए थे। पर चुनाव में पब्लिक ने ठुकरा दिया, दो सौ चालीस पर ही रोक दिया, नायडू और नीतीश की बैसाखियों का सहारा लेने पर मजबूर कर दिया, तो मोदी जी को बोध प्राप्त हो गया कि वह तो बायोलॉजीकल हैं, बाकी सब की तरह। गलतियां उनसे भी हो सकती हैं, होंगी भी, देवता थोड़े ही हैं! यह बाकी सब के जैसा होने का बोध-वोध कुछ नहीं है, यह तो रपट पड़े की हर-हर गंगा है।
बेशक, ये विरोधी जबर्दस्ती विकास को ह्रास साबित करने और उसे चुनाव जैसी दुनियावी चीजों से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। पर मोदी जी, बाकी सब के जैसे होते हुए भी, इन सब से ऊपर हैं। दरअस्ल, नॉन-बायोलॉजीकल से बॉयोलॉजीकल की यात्रा के पीछे, मोदी जी की गहरी दार्शनिक विकास यात्रा है। बल्कि यहां तो मोदी जी वास्तव में भौतिकवादी-विकासवादियों की कतार में आगे लगे दिखाई देते हैं। भौतिकवादी, यही तो मानते हैं कि पदार्थ से जीव बना है। नॉन-बायोलॉजीकल से बायोलॉजीकल बना है। मोदी जी उसका साक्षात प्रमाण बन रहे हैं, तो विरोधियों को दिक्कत हो रही है।
दरअस्ल, ये विरोधी ऊपर से कितना ही सेकुलर होने का चोला ओढ़ें, भीतर से ये भी भौतिकवाद के विरोधी ही निकलेंगे। और तो और, कम्युनिस्ट तक मोदी जी का विरोध करने के चक्कर में, भौतिकवाद का भी विरोध कर रहे हैं और नॉन-बायोलॉजीकल से बायोलॉजीकल होने पर सवाल उठा रहे हैं।
दार्शनिक दृष्टि से एक और अधकचरी दलील मोदी जी के विरोधियों की यह है कि आम चुनाव के टैम पर मोदी जी नॉन-बायोलॉजीकल हो चुके थे, इसके तो साक्ष्य खुद मोदी जी की ही जुबान में मौजूद हैं। लेकिन, उससे पहले मोदी जी क्या थे — बायोलॉजीकल या नान-बायोलॉजीकल या इल्लॉजीकल!
आखिर, जब तक मां जिंदा थीं, तब तक तो मोदी जी को भी यही लगता था कि उन्हें बायोलॉजीकली पैदा किया गया था यानी बायोलॉजीकल थे! तो पहले बायोलॉजीकल, फिर नान-बायोलॉजीकल और अब फिर से बायोलॉजीकल, इसमें कोई भी, कैसा भी विकास कहां हुआ। यह तो लौट के बुद्धू घर को आए हुआ। यानी चले तो खूब पर, रहे वहीं के वहीं ; ऐसे चलने को यात्रा नहीं कहते। विकास की यात्रा कहने का तो खैर सवाल ही नहीं है। बस इसमें मोदी जी एक ही बात का संतोष कर सकते हैं कि जहां यात्रा ही नहीं है, वहां अगर विकास नहीं हो सकता, तो ह्रास भी नहीं होगा। बस मुंबइया जुबान में थंबा होगा! पर मोदी जी मूल रूप से इल्लॉजीकल ही रहे हों और बाद में नॉन बायोलॉजीकल और अब बायोलॉजीकल उसी में से निकले हों तो? है कोई जवाब!
पर मोदी जी के विरोधी भी उतने ही ढीठ हैं, दुष्टता से अब भी बाज नहीं आ रहे। कह रहे हैं कि मोदी जी के बायोलॉजीकल होने से सबसे ज्यादा खुशी भगवा पार्टी के मार्गदर्शक मंडल में हैं। अडवाणी जी, जोशी जी के मन में नयी उम्मीद जाग गयी है कि मोदी जी जैसे ही 75 पार कर जाएंगे, बाकी सब की तरह वह भी मार्गदर्शक मंडल की शोभा बढ़ाने आ जाएंगे। कुछ तो नया होगा, कुछ तो बोरियत घटेगी! बस उनके मन में एक ही आशंका है — जो बंदा एक बार बायोलॉजीकल से नान बायोलॉजीकल और नान बायोलॉजीकल से बायोलॉजीकल हो सकता है, वह 75 तक पहुंचते-पहुंचते फिर से पल्टी नहीं मार जाएगा और फिर से बायोलॉजीकल से नान-बायोलॉजीकल नहीं बन जाएगा, इसकी क्या गारंटी है? बायोलॉजीकल को तो वैसे भी कुर्सी का प्रेम तो बांधता ही है।
हद तो यह है कि विरोधी बायोलॉजीकल मोदी जी के यह मानने से भी खुश होकर राजी नहीं हैं कि उनसे भी गलतियां हो सकती हैं, वह देवता थोड़े ही हैं। विरोधियों के पास 2002 के गुजरात से लेकर, नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन तक, लंबी सूची है गलतियां मनवाने के लिए। उल्टे यह कहकर डरा और रहे हैं कि मोदी जी की और जोखिम उठाने की क्षमता अभी भी बाकी है यानी लोग नोटबंदी 2.0 के लिए तैयार रहें या गुजरात 2.0 के लिए! नान बायोलॉजीकल से डर नहीं लगता है साहब, बायोलॉजीकल से लगता है।
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*2. शीश महल बनाम स्वर्ण कुटी*
भाई मानना पड़ेगा, मोदी जी की फकीरी को। करोड़ों लोगों के सिर पर पक्की छत का इंतजाम करने में लगे हुए हैं। इसी सब के लिए अठारह-अठारह घंटे काम कर रहे हैं। पर अपने लिए एक पक्का तो क्या, कच्चा घर तक नहीं बनवाया है। सिर पर पक्की छत की बात तो भूल ही जाएं, अगले ने अपने लिए न खपरैल की न फूस की, न तिरपाल की, किसी तरह की छत का इंतजाम ही नहीं कराया है। मोदी जी ने जब से दिल्ली में अपनी पार्टी का चुनाव प्रचार शुरू करते हुए अपनी इस फकीरी की याद दिलायी है, बेचारे दिल्ली वासियों को बड़ा गिल्ट-सा महसूस हो रहा है। उनमें से ज्यादातर के सिर पर तो फिर भी पक्की नहीं तो कच्ची, अपनी नहीं, तो किराए की या झुग्गी की ही कम-से-कम छत तो है, जबकि देश का प्रधानमंत्री बेचारा खुले आसमान के नीचे रातें गुजार रहा है ; सर्दियों में ठिठुर-ठिठुर कर, गर्मियों में झुलस-झुलस कर और बारिश में भीग-भीग कर। इसके बाद भी विरोधी हैं कि मोदी जी के खुद को देश का प्रथम सेवक बताने पर, उनके हवाई जहाजों के दाम के ताने मारते हैं। इसका भी ख्याल नहीं करते कि वे दो हवाई जहाज, वे छ:-छ: करोड़ की गाड़ियां, वगैरह सब कुछ तो देश के प्रधानमंत्री की ऑफीशियल सुविधा के लिए है, नरेंद्र दामोदर दास मोदी के निजी उपयोग के लिए थोड़े ही है!
ऐसा ठंड में ठिठुर-ठिठुर कर रातें गुजारने वाला प्रधानमंत्री अगर दिल्ली वाले अरविंद केजरीवाल के शीश महल को गलत कहे, तो क्या गलत है? कहां केजरीवाल, जो एक राज्य का मामूली मुख्यमंत्री है, वह भी केंद्र शासित क्षेत्र यानी आधे-अधूरे राज्य का, उसके ऊपर से मोदी के राज में आधे-अधूरे राज का यानी लैफ्टीनेंट गवर्नर के पौने राज्य के अंगूठे तले, तिहाई-चौथाई राज्य का नाम के वास्ते पूर्व-मुख्यमंत्री और कहां अखंड भारत का यशस्वी प्रधानमंत्री। फिर भी देख लीजिए, छोटे सरकार के नाम शीश महल और बड़े सरकार के नाम सिर्फ हवा महल, बिना छत और बिना दरो-दीवार! उस पर दिलजले के मुंह से एक आह भी निकल जाए, तो विरोधी जान के पीछे पड़ जाएं कि इतनी ऊंची गद्दी पर बैठकर, इतनी छोटी बात मुंह से कैसे निकाल दी!
उल्टे विरोधी अब तो इल्जाम लगा रहे हैं कि मोदी जी के सिर के ऊपर छत ही न होने के दावे झूठे हैं। केजरीवाल ने शीश महल बनवाया, बुरा किया, नहीं बनवाना चाहिए था। फिर भी शीश महल हो या जो भी कुछ हो, था तो सरकारी। तभी तो केजरीवाल के सीएम की कुर्सी छोडऩे की देर थी, शीश महल खुद-ब-खुद छूट गया। लेकिन, इतना ही सरकारी चांदी का महल तो मोदी जी के पास भी है। दस साल में उसके नवीनीकरण के खर्चों का हिसाब-किताब भी तो मोदी जी को देना चाहिए या उसे भी अपनी डिग्री की तरह राष्ट्रहित में गोपनीय ही बनाए रखेंगे। और मोदी जी जो साढ़े चार सौ करोड़ से ज्यादा में अपना सोने का महल, नये सेंट्रल विस्टा के हिस्से के तौर पर बनवा रहे हैं, उसका क्या? सुनते हैं कि मोदी जी के नये महल में तो शाही जमानों की तरह निजी गुप्त सुरंगें भी होंगी, दफ्तर से सीधे बैड रूम तक जाने वाली। मोदी जी उसका नाम भले ही स्वर्ण कुटी रखवा दें, पर होगा तो वह शीश महल से दसियों गुना बढक़र ही। खैर जो भी हो, मोदी जी पर शीशे के महल में बैठकर, दूसरों के घर पर पत्थर फैंकने का इल्जाम कोई नहीं लगा सकता है। मोदी जी ने पहले ही पूरी सावधानी बरती है, चांदी के महल में बैठकर, शीशे के महल वालों पर पत्थर फैंक रहे हैं!
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*3. दुनिया के मजदूरो मशीन बनो!*
अब कोई कुछ भी कहे, एल एंड टी कंपनी वाले सुब्रमण्यम साहब की बात में हमें तो दम नजर आता है। सिंपल सी बात है। इतवार की छुट्टी यानी सोमवार, मंगलवार, बुधवार, बृहस्पतिवार…किसी भी दिन की छुट्टी की मजदूरों-कर्मचारियों को जरूरत ही क्या है? बिल्कुल टाइम वेस्ट। घर पर बैठकर बीवी का चेहरा ताकते रहो, ताकते रहो, ताकते रहो ; यह भी कोई करने वाला काम है। इससे अच्छा तो सातों दिन, बारहों महीना कारखाने, दफ्तर में काम करो। पैदावार ज्यादा तो मुनाफा भी ज्यादा और जीडीपी भी ज्यादा। और जीडीपी ज्यादा तो सरकार के खजाने में पैसा ज्यादा। यानी मालिक भी खुश और निर्मला ताई भी खुश। सिर्फ बीबी को खुश करने के चक्कर में देश की जीडीपी क्यों डुबो रहे हैं ये मजदूर-वजदूर।
इतनी अक्ल की बात करने में सुब्रमण्यम जी अकेले नहीं हैं। उनसे पहले इन्फोसिस वाले नारायण मूर्ति जी भी यही एडवाइज दे चुके थे। बस वो इतवार वगैरह की छुट्टी के चक्कर में नहीं पड़े थे और सीधे पाइंट पर आ गए। दिन में काम के घंटे कम से कम बाहर-चौदह तो होने ही चाहिए। और वह देश के प्रधानमंत्री, मोदी जी को फॉलो कर रहे थे। जब नारायण मूर्ति की कान में यह बात पड़ी कि मोदी जी दिन में अठारह-अठारह घंटे काम करते हैं, तो एकदम से उन्हें बोध प्राप्त हो गया। यही तो सारी समस्याओं का समाधान है, सारे रोगों की रामबाण औषधि है। सब ज्यादा घंटे काम करें, देश खुद-ब-खुद आगे बढ़ जाएगा। सुब्रमण्यम जी ने गेंद और आगे बढ़ा दी। सवाल उनकी कंपनी में शनिवार की छुट्टी नहीं देने पर पूछा गया था, उन्होंने इतवार की छुट्टी को भी नजर लगा दी।
सुब्रमण्यम साहब, मूर्ति साहब, मोदी साहब लोगों की बदकिस्मती से, इन मजदूरों-वजदूरों के साथ एक बड़ी प्राब्लम है। जब तक काम नहीं मिलता, तब तो फिर भी ठीक रहते हैं, पर काम मिला नहीं कि ये खुद को इंसान समझने लगते हैं। खुद को तो खुद को, अपनी बीबी, बच्चों को भी इंसान समझने लगते हैं। उनकी तरफ इंसानों की नजर से देखने लगते हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि किसी मिडास मंतर से सारे मेहनत करने वालों को मशीन बना दिया जाए? न कोई बीवी को निहारते बैठेगा और न छुट्टी के नाम पर किसी भी दिन की बर्बादी होगी। मजदूरी की झिकझिक भी खत्म।
*(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)*