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इस तरह हुआ गौतम बुद्ध का अवतार

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दिनेश चंद्र वर्मा

 

एशिया के अधिकांश देशों में ईश्वर के अवतार के रूप में आराध्य भगवान गौतम बुद्ध के उपदेशों और शिक्षाओं की सर्वव्यापकता इतनी अधिक रही है कि हिन्दू धर्म के दशावतारों में से एक अवतार गौतम बुद्ध का भी माना जाता है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में भी उनका उल्लेख हुआ है तथा उनकी शिक्षाओं को भी महत्व दिया गया है।

 

भारत, तिब्बत, श्रीलंका, चीन, थाईलैंड, बर्मा तथा अन्य एशियाई देशों में गौतम बुद्ध के जीवन चरित्र और अलौकिक चमत्कारों पर अनेक ग्रंथ लिखे गये हैं, पर आज भारत में लोग गौतम बुद्ध से बहुत कम परिचित हैं। जिसने भारत में जन्म लिया तथा ज्ञान के आलोक से न केवल संपूर्ण एशिया को अपितु यूरोप को भी आलोकित किया। रूस से मिली गौतम बुद्ध की प्रतिमाएं इस बात का प्रमाण है कि उनकी आराधना पूर्व से पश्चिम तक व्याप्त थी। गौतम बुद्ध के बारे में भारत में सीमित ज्ञान का एक बड़ा कारण यह है कि उनके बारे में विदेशों में जो साहित्य लिखा गया वह विदेशी भाषाओं में था। भारत में उनके बारे में अधिकांश सहित्य पाली भाषा में लिख गया और यह भाषा आज लगभग विलुप्तावस्था में है।

 

गौतम बुद्ध के जन्म और जीवन की जो कथाएं भारतीय बौद्ध ग्रंथों में मिलती हैं, उनके अनुसार भगवान बुद्ध मूलरूप से स्वर्ग के निवासी थे। उन्होंने बुद्ध बनने के लिए बोधिसत्व के रूप में अनेक जीवन योनियों में जन्म लिया था। ये योनियां देवताओं की भी थी, मानव की भी थी और प्राणियों की भी। बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय के अनुसार गौतम बुद्ध एकमात्र बोधिसत्व भी इस धरती पर आए थे।

 

बोधिसत्व का पाली भाषा में अर्थ होता है- जिसके जीवन का लक्ष्य ज्ञान प्राप्त करना हो। महायान सम्प्रदाय में गौतम बुद्ध के अतिरिक्त जिन अन्य बोधिसत्वों का उल्लेख मिलता है, उनमें अक्लोकितेश्वर, मंजुश्री, मारीचि, समतभ्रद, वज्रपाणि एवं मैत्रेय के नाम उल्लेखनीय है, इनमें गौतम बुद्ध अंतिम बोधिसत्व हुए। गौतम बुद्ध के बोधिसत्व के रूप में अवतरण की कथाएं जातक कथाएं कहलाती है। इन कथाओं की संख्या 550 है अर्थात् बुद्धत्व प्राप्त करने के पूर्व गौतम बुद्ध 550 बार इस धरती पर मानव एवं विविध प्राणियों के रूप में अवतरित हुये थे।

 

अधिकांश बौद्ध ग्रंथ कहते हैं कि बोधिसत्व के रूप में जब गौतम बुद्ध तुषित नामक स्वर्ग में रहा करते थे तब उनकी एक ही आकांक्षा थी- मानव जाति का कल्याण और उद्धार। जब वे अपनी इच्छा पर दृढ़ रहे तो उनसे पूछा गया कि वे यह निश्चित करें कि वे पृथ्वी के किस भाग में जन्म लेना चाहेंगे, किस जाति में जन्म लेना चाहेंगे तथा उनकी माता कौन होगी तथा मनुष्य का शरीर धारण करके वे कितने दिनों तक पृथ्वी पर रहना चाहेंगे? गौतम बुद्ध ने इसके उत्तर में भारत भूमि में, क्षत्रिय जाति में, राजा शुद्धोधन के घर में तथा रानी महामाया के गर्भ से जन्म लेने का निश्चय बताया। उन्होंने यह भी निश्चित किया कि उनके जन्म के सात दिन बाद ही रानी महामाया की मृत्यु हो जाएगी।

 

तुषित स्वर्ग से रानी महामाया के गर्भ में आने के पूर्व गौतम बुद्ध ने अपनी भावी माता को स्वप्न में अपने जन्म की सूचना दी। उनकी मां ने यह स्वप्न देखा कि एक सफेद हाथी उनके गर्भ में प्रवेश कर रहा है। रानी ने यह स्वप्न राजा शुद्धोदन को सुनाया। शुद्धोदन ने इस स्वप्न का अर्थ विद्वान ब्राह्मणों से पूछा। ब्राह्मणों ने इस स्वप्न का यही अर्थ बताया कि रानी के गर्भ में या तो चक्रवर्ती सम्राट जन्म लेने वाला है या फिर कोई ज्ञानी (बुद्ध)

 

रानी महामाया ने लुम्बिनी के उद्यान में बुद्ध को जन्म दिया। प्रसव के समय वे एक शाल वृक्ष के नीचे खड़ी थी। जन्म के समय इंद्र सहित कई देवी-देवता उपस्थित थे। बुद्ध के शरीर पर जन्म के समय ही 32 शुभचिन्ह अंकित थे। अपने जन्म के साथ गौतम बुद्ध उठ खड़े हुये। वे सात कदम चले तथा उन्होंने उद्घोष किया- मैं संसार में अग्रणी हूं। शुद्धोदन ने जब गौतम बुद्ध के जन्म का उत्सव मनाया तो देवताओं तथा असित नामक ऋषि ने कहा- यह बालक बुद्धत्व (ज्ञान) प्राप्त करेगा। पर कुछ ब्राह्मणों ने कहा कि यदि यह बालक वृद्ध पुरुष, रोगी पुरुष, शव (मृत शरीर) और साधु को नहीं देखे तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा अन्यथा यह बुद्धत्व प्राप्त करेगा। राजा शुद्धोदन अपने पुत्र को चक्रवर्ती सम्राट बनाना चाहते थे, इसलिये गौतम बुद्ध पर कड़ी चौकसी रखी जाने लगी तथा यह प्रयास किया जाने लगा कि वह सांसारिक सुखों की ओर उन्मुख हो। बाल्यावस्था में गौतम बुद्ध का नाम सिद्धार्थ था।

 

इसके बाद की कथा से सभी परिचित हैं। सिद्धार्थ का विवाह 16 वर्ष की आयु में राजकुमारी यशोधरा या गोपा से हुआ। उनके राहुल नाम का एक पुत्र भी हुआ। एक दिन राजमहल से जब वे बाहर निकले तो उन्हें एक वृद्ध पुरुष, एक रोगी, एक साधु तथा एक शव देखने को मिला। इनके बारे में जानकारी मिलते ही सिद्धार्थ का हृदय दुख एवं वेदना से भर गया। इसके बाद 29 वर्ष की उम्र में उन्होंने एक रात को अपनी पत्नी तथा पुत्र को सोता हुआ छोड़ा तथा राजमहल त्याग दिया। बौद्ध ग्रंथों में इस घटना को महाभिनिष्कृमण कहा गया है।

 

विभिन्न धर्मों में जिस प्रकार की कल्पना शैतान या दुष्टात्माओं की कि गयी है उसी प्रकार की कल्पना बौद्ध ग्रंथों में भी है।

 

सिद्धार्थ ने जब राजमहल त्यागा तो दुष्टात्मा मार ने उन्हें पथभ्रष्ट करने का प्रयत्न किया तथा उन्हें सारी धरती का सम्राट बनाने का भी प्रलोभन दिया पर सिद्धार्थ अपने पथ से विचलित नहीं हुए। मार की कल्पना बौद्ध धर्म में उसी प्रकार की है, जिस प्रकार हिन्दू धर्म में कामदेव की।

 

अनोमा नदी पार करने के बाद सिद्धार्थ ने अपने बाल तलवार से काटे तथा उन्हें आकाश की ओर उछालकर कहा यदि मैं बुद्ध बनने वाला हूं तो ये बाल पृथ्वी पर नहीं आए। इसके साथ ही स्वर्ग के देवताओं ने यह बाल संभाले, उन्हें सीधा किया तथा उन्हें एक स्वर्ण मंजूषा में रखकर स्वर्ग ले गये।

 

यहां से सिद्धार्थ पैदल ही राजगृह पहुंचे। मगध का शासक बिम्बसार उनके पास आया तथा अपना राज्य उन्हें सौंपने का प्रस्ताव किया। बुद्ध ने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया तथा वे चलते-चलते गया के पास उरूवेला नामक स्थान पर पहुंचे। इसी स्थान पर उन्होंने छह वर्ष तक कठोर तपस्या की, जिससे उनका शरीर कृश हो गया। इसी समय सिद्धार्थ की यह धारणा बनी कि मांस और रक्त सुखाने से बुद्धत्व प्राप्त नहीं होगा। तभी (तपस्या की अवधि में बने) उनके पांच अनुयायी उन्हें छोड़कर चले गये।

 

सिद्धार्थ उस स्थान से चले तथा एक नदी के किनारे पहुंचे तो सुजाता ने उन्हें खीर खाने को दी। खीर खाने के बाद उन्होंने सोने के उस भारी बर्तन को नदी की जलधारा में फैंक दिया, जिसमें सुजाता खीर लाई थी तथा कहा- यदि आज मैं बुद्ध बनने वाला हूं तो यह भारी बर्तन ऊपर आ जाये अन्यथा पानी में डूब जाये। बर्तन पानी में नहीं डूबा। उसी दिन संध्या को सिद्धार्थ एक पीपल के वृक्ष के समीप पहुंचे। यही वृक्ष आज बोधि वृक्ष के नाम से विख्यात है। इस वृक्ष तक पहुंचने के पूर्व उन्हें स्वास्तिक का चिन्ह तथा एक घसियारा मिला, जिससे उन्होंने घास के आठ पूले लिये। पीपल के इस पेड़ को चारों ओर से देखने के बाद उन्होंने पूर्व दिशा में घास रखी और उस पर बैठकर प्रतिज्ञा की- चाहे मेरा चर्म, मेरी अस्थियां, मेरी मज्जा नष्ट हो जाय मेरा रक्त सूख जाये पर मैं इस स्थान से तब तक नहीं हटूंगा जब तक कि मुझे संपूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं हो जाएगा।

 

सिद्धार्थ की यह प्रतिज्ञा सुनकर दुष्टात्मा मार ने उन्हें कष्ट पहुंचाना प्रारंभ किया। उसने ऐसी तेज आंधी चलाई कि हाहाकार मच गया, पर सिद्धार्थ अपने स्थान पर अडिग बैठे रहे। मार ने उन पर पत्थर और अंगारे बरसाए पर सिद्धार्थ अडिग रहे। मार और उसकी सेनाएं जब सिद्धार्थ को डिगा नहीं सकी तो सिद्धार्थ ने पृथ्वी से कहा कि वह इस बात की साक्षी रहें कि मैं अपने स्थान से हिला तक नहीं हूं। तभी देवताओं ने आकाशवाणी की कि मार पराजित हो गया है तथा सिद्धार्थ विजयी हुए हैं। इसके साथ ही सूर्यास्त हुआ और रात्रि को सिद्धार्थ को बुद्धत्व प्राप्त हो गया। रात्रि के पहले प्रहर में उन्हें अपने पूर्व जन्मों का वृतान्त ज्ञात हुआ। दूसरे प्रहर में उन्हें संसार की वर्तमान स्थिति का ज्ञान हुआ तथा तीसरे प्रहर में उन्हें संसार की कार्यकारण श्रृंखला का ज्ञान हुआ।

 

बुद्धत्व प्राप्ति के बाद 49 दिन तक गौतम बुद्ध ने सात सप्ताह किया। इसके बाद के सात सप्ताह उन्होंने बोधिवृक्ष के नीचे बिताए, जहां उन्होंने मुक्ति का आनंद लिया तथा अभिधर्म पिटक का ज्ञान लिया। इसके बाद जब वे एक अन्य पीपल के पेड़ के पास पहुंचे तो दुष्टात्मा मार की पुत्रियां च्छिा, कामना और वासना ने उन्हें दिग्भ्रमित करने का प्रयास किया। इसके बाद वे एक अन्य वृक्ष के पास पहुंचे वहां उन्हें दो व्यापारियों ने रोटी और मधु अर्पित की। पर बुद्ध के पास कोई बर्तन नहीं था, जिसमें वे ये रोटी और मधु ले सकते, तभी देवताओं ने उनके पास चार पाषाण पात्र पहुंचाए, जिनमें से एक में रोटी और मधु रखकर गौतम बुद्ध ने भोजन किया।

 

इसके बाद बुद्ध की संसार से अपने ज्ञान को परिचित कराने की कल्याणकारी यात्रा शुरू हुई। उन्होंने अपने पहले पांच प्रवचन सारनाथ (वाराणसी) के निकट मृगदाव में दिये तथा वहां धर्मचक्र की स्थापना की। यहां उन्होंने आर्य अष्टांग मार्ग की व्याख्या की। बुद्ध के अनुसार इन अष्टांग मार्गों के अनुसरण से निर्वाण की प्राप्ति होती है। ये अष्टांग मार्ग है- सम्यक विचार, सम्यक प्रेरणा, सम्यक भाषण, सम्यक व्यवहार, सम्यक जीविका, सम्यक प्रयास, सम्यक स्मृति, चेतना तथा सम्यक ध्यान। अपने प्रवचनों में उन्होंने सांसारिक दुखों के कारण तथा उनके निवारण के उपाय बताए।

 

इस समय बुद्ध की आयु 35 वर्ष की हो गयी थी। शेष 45 वर्ष उन्होंने यात्राएं की तथा धर्मोपदेश दिये। इस अवधि में उन्होंने आग तथा पानी पर चलकर दिखाया। बुद्ध के धर्मोपदेशों से प्रभावित होकर अनेक राजा-रानी उनके शिष्य बने। उनके पिता शुद्धोदन भी उनके अनुयायी बने।

 

उन दिनों बुद्ध के छह कट्टर विरोधी भी थे। राजा प्रसेनजित की सभा में बुद्ध ने इन विरोधियों के समक्ष अपनी अलौकिक शक्ति प्रदर्शित की। उन्होंने आकाश में पूर्व से पश्चिम तक मार्ग का निर्माण किया। उनके शरीर के ऊपरी हिस्से से जलधारा प्रवाहित हुई तथा इसके साथ ही निचले हिस्से से अग्नि की ज्वालाएं प्रगट हुई। बाद में उनके शरीर से सुनहरी किरणें निकली, जो सारे विश्व में बिखर गयी।

 

राजगृह प्रवास के दौरान बुद्ध के चचेरे भाई देवदत्त ने उनकी हत्या के तीन प्रयास किये। पहले एक हत्यारा भेजा, फिर शिलाएं फैंकी और अंत में उन्मत्त हाथी भेजा, पर ये तीनों प्रयास असफल हुए। हत्यारे एवं उन्मत्त हाथी के हृदय परिवर्तित हो गए और शिलाएं वहां तक पहुंच नहीं पायी।

 

राजा प्रसेनजित की सभा में चमत्कार दिखाने के बाद गौतम बुद्ध सशरीर त्रयत्रिंश नामक स्वर्ग में पहुंचे, वहां से जब वे पृथ्वी पर लौटे तो उनके साथ इंद्र और ब्रह्मा भी थे।

 

बुद्ध का निधन यद्यपि चंद नामक एक भक्त द्वारा सुअर के सूखे मांस का भोजन कराने के कारण हुआ, पर उन्हें पहिले से ही यह भासित था कि उनका अंत निकट है। उन्होंने दो शाल वृक्षों के बीच अपना बिस्तर लगवाया। (यह घटना कुशीनगर के समीप की है।) बुद्ध उत्तर दिशा में अपना मस्तक रखकर लेट गये। अंतिम क्षणों में उन्होंने अपने शिष्य आनंद सहित अनेक अनुयायियों को धर्मोपदेश दिया तथा महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए।

 

बुद्ध के महापरिनिर्वाण के समय पृथ्वी तक कांप उठी, कुशीनगर में भूकंप एवं आंधिया आयी। छह दिनों तक बुद्ध का शव उनके अनुयायियों के दर्शनार्थ रखा गया। सातवें दिन उनके शव को पांच सौ वस्त्रों से ढककर चिता पर रखा गया। पर चिता प्रज्जवलित नहीं हुई, क्योंकि बुद्ध के शिष्य कश्यप अंतिम दर्शनों से वंचित रह गये थे। बाद में कश्यप आए, उन्होंने बुद्ध की वंदना की तो चिता प्रज्वलित हो उठी।

 

बुद्ध के अस्थि अवशेषों को कुशीनगर के शासक मल्ल अपने पास ही रखना चाहते थे, जबकि सात अन्य शासक भी इन अवशेषों को प्राप्त करना चाहते थे। ये शासक अपनी सेनायें लेकर कुशीनगर पर आक्रमण करना चाहते थे। तभी द्रोण नामक एक ब्राह्मण की मध्यस्थता से ये अस्थि अवशेष आठ शासकों में बांटे गये। ये आठ शासक थे- मगध का अजात शत्रु, वैशाली के लिच्छवि, कपिलवस्तु के शाक्य, अल्पकप्प के बाली, रामग्राम के कोलिय, बेउद्रीप के ब्राह्मण, पावा के मल्ल तथा कुशीनगर के मल्ल।

 

इस बंटवारे के बाद पिप्पलिवन के मौर्य भी वहां पहुंचे तो अस्थियां कुशीनगर से जा चुकी थी, उन्हें चिता की भस्म से ही संतोष करना पड़ा। अस्थियां ले जाने वाले शासकों ने इन अस्थियों को स्तूपों में सुरक्षित रखा। पर आज केवल रामग्राम का स्तूप ही ऐसा है, जो क्षतिग्रस्त नहीं हुआ है।

 

बौद्ध साहित्य में गौतम बुद्ध को बोधिसत्व, तथागत, सिद्धार्थ, शाक्य मुनि एवं शाक्य सिंह के नाम से अनिहित किया गया है।

 

उनका सारा जीवन चरित्र ही अलौकिक चमत्कारों से भरा बताया गया है, जिससे आज के युग में अधिकांश लोग असहमत हो सकते हैं। पर इस तथ्य से सभी सहमत हैं कि वे अलौकिक देव-पुरुष थे, जिन्होंने इस संसार को सत्य, अहिंसा, शांति और प्रेम का संदेश दिया।

(विनायक फीचर्स)

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