25 सितम्बर—
गुरुदेव पूज्य श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज एवं पूज्य भगत हंसराज जी महाराज (बड़े पिता जी) की कृपा से पूज्य पिता श्री कृष्ण जी महाराज एवं पूज्य माँ रेखा जी महाराज के पावन सान्निध्य में चल रहे रामायण ज्ञान यज्ञ के तीसरे दिन की सभा में आदरणीय श्री कृष्ण जी महाराज (पिता जी) ने रामायण ज्ञान यज्ञ में सभा को आरम्भ करते हुए साधको को संबोधित करते हुए कहा कि रामायण का परायण चल रहा है। महाराज की अपार कृपा बरस रही है। हर ओर मंगल ही मंगल है। ज्ञान यज्ञ, जप जग, और सेवा का यज्ञ तीनों यज्ञ समानांतर चल रहें हैं। आनंद की वर्षा हो रही है। इस ग्रंथ के पाठ में आनंद ही आनंद है। शुभ बेला है। पावन वायु मंडल है और पावन आप का साथ है। महाराज जी से यही बिनती है “अब तक जो निभाया है, आगे भी निभा देना”।
पिता जी महाराज ने कहा यह नवरात्रों के पावन दिन है। इन में हमें क्रोध, भ्रम और भय से दूर रहना है। मन से अहंकार को दूर करना चाहिए। हमें सदैव ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। ब्रह्मचर्य का अर्थ हमें अपनी इन्द्रियों को सयम में रख कर अपना जीवन सयम के साथ व्यतीत करना चाहिए।
नवरात्रों के दिनों में जो रामायण का सामूहिक परायण किया जाता है उस का बहुत अधिक फल मिलता है क्योंकि दैवी तरंगें चारों तरफ बह रही होती हैं।
आज बाल काण्ड को पूर्ण और अयोध्या काण्ड का आरम्भ किया गया।
पिता जी महाराज ने कहा
राम विजय के उपरांत राजा जनक अवधपुरी में राजा दशरथ को मिथिला में आने का निमंत्रण भेजते हैं। राजा दशरथ पुत्र विजय सुन बहुत प्रसन्न होते है और मिथिला आते है। जनक जी मिथिला में उन का स्वागत करते है। राम और लक्ष्मण पिता का आना सुन उन्हें मिलने आते हैं। राजा दशरथ राम जी को मिल उन्हें गले लगा लेते हैं और निज वंश का मान बढ़ाने के लिये वधाई देतें हैं। अगले दिन राजा जनक दशरथ जी को सभा में आने का निमंत्रण भेजतें हैं। दशरथ जी चारों पुत्रों सहित जनक जी को मिलते हैं सभा में वशिष्ठ गुरु लक्ष्मण जी का विवाह उर्मिला संग करने को कहतें हैं।
विश्वामित्र जी और वशिष्ठ ऋषि जनक जी को भरत और शत्रुघ्न का विवाह अपने भाई कुशध्वज की पुत्रियों से करने के लिये निवेदन करते हैं, जनक जी और दशरथ जी मुनि वचनों को सहर्ष स्वीकार कर लेते है। चारों राजकुमारों का एक साथ विवाह हो जाता है।दशरथ जी जनक जी से विदा ले कर चारों राजकुमारों और उन की पत्नियों संग अयोध्या आते हैं। रास्ते में परशुराम जी उन्हें रोकते हैं। राम जी उन को समझते है वह वापिस चलें जाते हैं। सब दिशा शांत हो जाती है। सब सुख से अयोध्या पहुंच जाते है।
महल में तीनों माताएं पुत्र और पुत्रवधुओं का स्वागत करतीं हैं। सभी राज कुमार वहां सुख से रहने लगते हैं। एक दिन दशरथ जी भरत जी को कहते हैं कि उस के मामा उन्हों बहुत दिन से बुला रहें है। भरत जी और शत्रुघ्न जी पिता की आज्ञा ले अपने मामा के घर चलें जातें हैं। पीछे राम जी और लक्ष्मण जी पितृ और लोगों की सेवा करते हुए अयोध्या में सुख से रहते हैं।
इसी के साथ बाल कांड का पाठ पूर्ण होता है।
पूज्य पिता जी महाराज ने राम विवाह और बाल कांड के पूर्ण होने की सब को वधाई दी और अयोध्या काण्ड का आरंभ करवाया।
उन्होंने कहा संकट में राम सदा सहायक थे। वह सभी को सुख देने का प्रयत्न करते। इस प्रकार वह बहुत जन प्रिये हो गए। राम जी सब का आश्रय बन गए। राम जी के भरोसे सब प्रजा निश्चिंत थी। एक रात राजा दशरथ जी ने स्वपन देखा जिस में उन्हों ने अपने अंतिम समय निकट लगा तो उन्हों ने सभा में सभी मित्र राजाओं, सचिवों और पंचों को बुला कर श्री राम जी को युवराज बनाने का प्रस्ताव रखा तो सभा में उपस्थित सभी जनो ने प्रस्ताव का एक मत से हर्ष ध्वनि के साथ अनमोदन किया। राजा दशरथ वशिष्ठ ऋषि को बुला के उन्हें राजतिलक की तैयारी करने को कहते है और सचिवों को राम जी को सभा में बुलाने के लिये कहते हैं। राज आज्ञा सुन राम जी पिता के पास सभा में आते है। दशरथ जी उन्हें गले लगा अपने पास सिहासन पर बिठा कर सभा का निर्णय सुनाते हुए उन्हें युवराज बनाने का बताते हैं। सभी राम जी को बधाई देतें है। राम जी अपने महल में आ कर माता कौशल्या और सीता जी को इस का बतातें हैं। सभी अभिषेक की तैयारी करने लगतें हैं। राम जी के अभिषेक का समाचार विधुत वेग से सारे राज्य में फैल जाता है। सभी लोगों उत्सव मनाने लगते हैं।
महाराज ने कहा जब बुरा समय आता है तो पल भर में सब उलट पलट हो जाता है। क्या होना है कोई नही जानता। हम भविष्य की चिंता करते रहतें हैं , पर अगले पल का पता नही होता क्या होना है। हमारी सोच के अनुसार कोई भी काम नहीं होता। जो प्रभु चाहते हैं वही होता है। इसलिये कहतें की राम की बातें राम ही जानते हैं। लोग पूछते है कि बुरे समय की क्या निशानी होती है? बुरे समय की निशानी है, फिरे मस्तक बदले वाणी। दिमाग सही गलत का अंतर करना बंद कर देता है और शत्रु मित्र लगने लग जातें है। अपने पराये लगने लगते हैं।
रानी कैकई की प्रमुख दासी मंथरा को राजा दशरथ द्वारा राम को युवराज बनाने की बात पता चलती है। वह क्रोधित हो कर रानी कैकई के पास आ उसे राम जी के राज्याभिषेक का बताती है। रानी कैकई यह सुन हर्षित हो जाती है और कहती है कि भरत और राम दोनो मुझे बहुत प्यारे हैं और राम मुझे अपने प्राण से भी प्यारा है। रानी मंथरा को मुंह मांगा वर मांगने को कहती है, तो मंथरा कोप में आ रानी को बार बार भड़कती है। रानी उस की बातों में आ जाती है। मंथरा कैकई को राम का राज्याभिषेक रोक कर भरत जी को राजा व राम को चौदह वर्ष वनवास में भेजने को कहती है। वह अपनी बातों से रानी के मन को इस तरह भ्रमित करती है कि रानी कैकई राम को बनवास भेजने के लिए तैयार हो जाती है। इस के लिये मंथरा उसे दशरथ जी द्वारा दिये दो वचनों की याद करवाती है और उसे अब राजा से उन वचनों के मांगने को कहती है। रानी उस की बातों में आ कोप भवन मैं चली जाती है। दशरथ रानी को मिल राज्याभिषेक की बात बताने उस के महल में आतें है। जब उन को रानी के कोप भवन में जाने का पता चलता है तो वह अनहोनी का सोच घबरा जातें है। वह रानी को मानने की कोशिश करतें हैं और उस के कोप का कारण पूछते हैं।