देशना जैन
उज्जयिनी के चक्रवती सम्राट महाराजा विक्रमादित्य जितने पराक्रमी थे, उतने ही महान साधक भी थे, अपनी साधना के बल पर उन्होंने अपने जीवन में अष्टलक्ष्मी की साधना करके वरदान स्वरूप अपनी राज्यलक्ष्मी को पुन: प्राप्त किया था। उनके द्वारा जो लक्ष्मी देवी का विग्रह बनवाया गया था वह आज भी उज्जैन शहर के नईपेठ क्षेत्र में स्थित है जो गजलक्ष्मी देवी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।
गजलक्ष्मी, देवी महालक्ष्मी के आठ रूपों में से एक है। बताया जाता है कि यहाँ विराजित प्रतिमा दो हजार वर्षों से भी अधिक प्राचीन है।
देवी गजलक्ष्मी की यह प्रतिमा समुद्री पाषाण जो कि स्फटिक जैसा होता है उससे बनी हुई है। सफेद हाथी पर पालकी में पद्मासन में बैठी लक्ष्मी देवी की यह प्रतिमा दुर्लभ प्रतिमा और अद्वितीय है। देवी गजलक्ष्मी की यह प्रतिमा पूरे भारत में एकमात्र है, जो सफेद हाथी पर विराजमान है। इसका उल्लेख स्कंद पुराण में भी मिलता हैं। माना जाता है कि यह प्रतिमा मंत्रों पर आधारित एवं स्थापित है। श्री सूक्त में गजलक्ष्मी का जो वर्णन आता है उसमें कहा गया है- “अश्वपूर्वाम् रथमध्याम् हस्तिनाद प्रमोदिनी।” अर्थात सफेद हाथी पर पूर्वमुखी, रथ के मध्य में हाथी पर विराजित माँ लक्ष्मी, हाथी की सूंड में कमल लिए हुए है।
*महाभारत काल से जुड़ा गजलक्ष्मी का इतिहास*
किवदंतियों के अनुसार अज्ञातवास के दौरान पांडव जंगलों में भटक रहे थे। तब माता कुंती अष्टलक्ष्मी पूजन करने के लिए परेशान थीं। पांडवों ने जब माँ को परेशान देखा तो देवराज इंद्र से प्रार्थना की। पांडवों की प्रार्थना से प्रसन्न होकर इंद्र ने ऐरावत हाथी को भेजा। इस हाथी पर माँ लक्ष्मी स्वयं विराजित हुईं और कुंती ने अष्टलक्ष्मी पूजन किया। वहीं दूसरी ओर गांधारी ने मिट्टी से बने हाथी पर लक्ष्मी पूजन किया। उसी वक्त इंद्र ने भारी बारिश की, जिससे मिट्टी का हाथी बह गया। कुंती पर देवी गजलक्ष्मी प्रसन्न हुईं और उनके आशीर्वाद से पांडवों को उनका खोया राज्य वापस मिला। इसी परंपरा को मानते हुए श्राद्ध पक्ष की अष्टमी के दिन मिट्टी से निर्मित माँ लक्ष्मी को हाथी पर बैठाकर पूजन करने का विधान है। यह व्रत राधा अष्टमी से शुरू होकर सोलह दिन में पूर्ण कर हाथी अष्टमी पर समाप्त होता है। इस दिन सुहागन महिलाएँ आटे और बेसन से बने गहने देवी लक्ष्मी को अर्पित करती हैं। इस अवसर पर गजलक्ष्मी का दूध से अभिषेक कर सोलह श्रृंगार किया जाता है और महाआरती होती है।
*विक्रमादित्य के काल में बनी गजलक्ष्मी प्रतिमा*
उज्जैन नगरी चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य की मानी जाती है। राजा विक्रमादित्य को जब शनि की साढ़े साती लगी और उसके प्रभाव से उनका राज्य-पाट छिन गया, तब राजा ने अपनी साधना और तप से देवी गजलक्ष्मी का आह्वान किया। देवी लक्ष्मी स्वयं सफेद ऐरावत हाथी पर सवार होकर राजा को दर्शन देने आयी और देवी लक्ष्मी ने प्रसन्न होकर कहा- “राजन, मैं तुम्हारी तप साधना से प्रसन्न हूँ, बोलो क्या वर चाहिए?” राजा विक्रमादित्य ने देवी से प्रार्थना की, “माँ गजलक्ष्मी रूप में आप मेरी इस नगरी में सदा के लिए वास कीजिए। मेरी नगरी हमेशा धन-धान्य से परिपूर्ण रहे और इस नगरी का स्वर्णिम नाम सदा चमकता रहे।” यह प्रार्थना सुनकर माँ गजलक्ष्मी ने तथास्तु कहा और सदा के लिए इस नगर के मध्य में वास किया। उसी काल में विक्रमादित्य द्वारा निर्मित यह गजलक्ष्मी प्रतिमा है।
*महाअष्टमी को होती है विशेष हवन साधना*
नवरात्रि का पर्व महालक्ष्मी मंदिर में धूमधाम से मनाया जाता है। प्रतिदिन माता का अभिषेक, श्रृंगार, आरती की जाती है। नवरात्रि की अष्टमी पर रात में त्रिकुण्डीय यज्ञ का आयोजन कर समस्त प्रकार के विभिन्न श्री यंत्रों को अभिमंत्रित कर भक्तों को वितरित किए जाते है। यह यंत्र भक्त अपने घर, दुकान, तिजोरी में स्थापित करते हैं और शुभ फल पाते हैं।
*दीपावली पर विशेष आयोजन*
दीपावली एवं पुष्य नक्षत्र के दिन कई व्यापारी मंदिर पहुंचते हैं। मंदिर में कई वर्षों से बही- खाता लिखने की परंपरा जारी है। आज भी यहाँ कई व्यापारी पहला बही-खाता लिखने के लिए आते हैं। गजलक्ष्मी मंदिर में धनतेरस से लेकर पड़वा तक चार दिवसीय भव्य आयोजन होता है। धनतेरस को एक सौ ग्यारह लीटर दूध से अभिषेक, चौदस के दिन एक सौ इक्यावन लीटर दूध से अभिषेक, दीपावली के दिन सुबह इक्कीस सौ लीटर दूध से भव्य अभिषेक कर देवी गजलक्ष्मी का सोलह श्रृंगार कर आरती की जाती है, वहीं शाम को छप्पन भोग (अन्नकूट) लगाया जाता है।
धनतेरस पर राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश से बड़ी संख्या में श्रद्धालु गजलक्ष्मी मंदिर पहुंचते हैं। वे प्रति वर्ष वितरित होने वाली श्री (बरकत) लेने आते हैं। श्रद्धालुओं को श्री के रूप में एक नारियल, ब्लाउज पीस, पीले चावल, सिक्का, कौड़ी और श्री यंत्र मिलता है। मान्यता है कि जो भी भक्त श्री को अपने घर में रखता है, उसके घर में हमेशा धन, वैभव और सुख-समृद्धि बनी रहती है। मंदिर में साल भर दान के रूप में आने वाली बिंदी-सिंदूर तथा साल भर माता को अर्पित किया हुआ अभिमंत्रित सिंदूर दीपावली के दूसरे दिन सुहाग पड़वा के अवसर सुहागन माता-बहनों को मंदिर से सदा सुहागन आशीर्वाद के साथ वितरित किया जाता है।
*मंदिर में अन्य प्रतिमाएं*
गजलक्ष्मी प्रतिमा के पास में ही बांयी ओर भगवान विष्णु की काले पाषाण की दशावतार की दुर्लभ प्रतिमा है, जो दक्षिण भारत के बालाजी स्वरूप में स्थापित है। यहाँ उनके चरणों में जय-विजय पार्षद के रूप में विराजित हैं। साथ ही, नीचे एक तरफ लक्ष्मी और दूसरी तरफ गरुड़ हैं। प्रतिमा के ऊपरी भाग में ब्रह्मा, विष्णु, महेश विराजित हैं। गजलक्ष्मी के दांयी तरफ गरुड़ पर सवार लक्ष्मीनारायण की प्रतिमा स्थापित है। परिसर में प्रवेश द्वार पर ही हनुमान तथा आँकड़े से बने गणेश भी स्थापित हैं। मंदिर के पीछे की ओर एक छोटा मंदिर है, जहाँ शिवलिंग, महालक्ष्मी माता और खड़े गणेश की आशीर्वाद देती प्राचीन प्रतिमा है। इसके आसपास राहु-केतु शिवलिंग रूप में विराजित हैं।
*होली पर भी होता है फाग का आयोजन*
गजलक्ष्मी मंदिर में जैसे दीपावली उत्सव मनाया जाता है, वैसे ही होली का भव्य आयोजन किया जाता है। पूरे फागुन मास में प्रति शुक्रवार को होली के गीतों के साथ फाग उत्सव मनाया जाता है। यहाँ पर सर्व सिद्धि के उपाय किए जाते हैं। अनेक लोग अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए देवी के दर्शन को आते हैं। यहाँ पर अभिमंत्रित श्री यंत्र, गोमती चक्र, एकाक्षी नारियल और कमल गट्टे की माला सिद्ध की हुई मिलती है। मुख्य रूप से लोग यहाँ मनोकामना सिद्धि के लिए उल्टा स्वस्तिक बनाने आते हैं। यहाँ के पुजारी का कहना है कि गजलक्ष्मी माता को राजा विक्रमादित्य की राजलक्ष्मी भी कहा जाता है। हाथी पर सवार लक्ष्मी माता मान-सम्मान और वैभव दिलाने वाली होती हैं। इसलिए हर शुक्रवार भारी संख्या में लोग दर्शन के लिए पहुंचते हैं।
(विभूति फीचर्स)