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प्रदूषण की समस्या का निदान वृक्षारोपण से ही सम्भव है 

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वी. स. सक्सेना

वह समस्त परिवेश जिसमें मनुष्य वास करता है और जिनका उसके जीवन से सीधा संबंध है, उसे पर्यावरण कहते हैं। इसमें जल, वायु, मृदा, पेड़-पौधे तथा जीव जंतु शामिल हैं।

प्रदूषण से पर्यावरण में असंतुलन पनपता है। प्रदूषण जल, वायु या भूमि के भौतिक, रसायनिक और जैविक गुणों में होने वाला कोई भी अवांछनीय परिवर्तन है, जिससे अजैविक या जैविक घटकों में विघटन होने की संभावना हो। इस प्रकार प्रदूषण मनुष्य की अवांछित गतिविधियों का अवांछित प्रभाव है। प्रदूषक, वह कोई भी पदार्थ होता है जो अनुचित स्थान पर अनुचित समय पर, अनुचित मात्रा में पाया जाये। प्रदूषक पदार्थों को ठोस, द्रव, गैस, ताप, ध्वनि, विकिरण आदि में विभाजित किया जाता है।

प्रदूषण नियंत्रण में वृक्षों की भूमिका

वृक्ष प्रकृति के विशालतम प्रदूषण नियंत्रक हैं और प्राण-वायु आक्सीजन के सर्वश्रेष्ठï उत्पादक संयंत्र हैं। ये जलवायु में अनुकूलता लाते हैं। एक स्वस्थ हरे वृक्ष द्वारा 450 लीटर जल का प्रतिदिन वाष्पीकरण होता है। जिससे वृक्ष के आसपास 14 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान कम होता है। एक ही वृक्ष 5 वातानुकूल संयंत्र (रूम कंडीशनर) के समकक्ष उपयोगी है।

हरित मेखला वायु वेग को भी नियंत्रित करती है। जल चक्र में वृक्ष अहम् भूमिका अदा करते हैं, जल द्वारा भू-क्षरण को रोककर वास्तव में अपने भारी जड़-जंजाल द्वारा जल को भंडारित करते हैं। इसलिये कहते हैं कि एक वृक्ष दस लाख छोटे बांधों का काम करता है।

वृक्षों का अभियांत्रिकी महत्व के अलावा सबसे महत्वपूर्ण योगदान अपशिष्ट जल का उपयोग करने में है। ये ध्वनि एवं वायु प्रदूषण भी काफी सीमा तक कम कर देते हैं। ये नगरों में निर्मित भवनों, मार्गों और अन्य स्थापत्य कला के घटकों को सुंदरता प्रदान करते हैं। ललित कलात्मक प्रभाव भी वृक्षों के सुनियोजित रोपण से प्राप्त किया जा सकता है। वास्तव में पेड़, नगरीय तनावों, प्रतिबलों के लिये रामबाण हैं। ये मूक वृक्ष सहस्त्रों वर्षों जीवित रहकर इतिहास के जीवंत साक्षी हैं। काश हम उनकी भाषा, उनकी जीवन पद्धति समझ सकते।

बढ़ते औद्योगीकरण, नगरीकरण, जनसंख्या विस्फोटन और हरीतिमा विनाश से आज मानव की रोटी,  कपड़ा और मकान की मूलभूत आवश्यकताओं में आक्सीजन भी जुड़ गई है। नगरों में वाहनों द्वारा ही इतना प्रदूषण फैलने लगा है कि सांस लेना दूभर हो गया है। वायुमण्डल में विषैली गैसों का अनुपात बढ़ता जा रहा है चाहे वह कार्बन-डाई-आक्साइड हो, नाईट्रिक आक्साइड हो अथवा अन्य गैस। हरे वृक्ष जहरीली कार्बन-डाई-आक्साइड को भोजन के रूप में लेकर उसे परिवर्तित कर जीवन वायु आक्सीजन देते हैं। अत: जहां वायु प्रदूषण की संभावना हो, वहां सघन वृक्षारोपण करना चाहिये। उद्योगों के परिसर और उसके आसपास 500 मीटर चौड़ी हरित मेखला लगाने से नाइट्रिक-आक्साइड और सल्फर-डाई आक्साइड भी काफी कम हो जाती है। वृक्षों को, प्रदूषक तत्वों के स्त्रोतों के चारों ओर गोलाकार कतारों में लगाना चाहिये। जिनमें ऊंचे तथा सदाबहार वृक्ष हों यथा मौलश्री, खिरनी, आसापाला, आकाशमुनि, सुबबूल, सेंजना, पुत्रजीवा, आम, शीशम नीम आदि।

ऐसे उद्योग जिनमें धूलकण प्रचुर मात्रा में निकलते हैं यथा सीमेंट उद्योग, स्टोन क्रेशर, खनन क्षेत्र, वहां खुरदरी या रोमिल पत्ती वाले वृक्ष लगाने चाहिये यथा अर्जुन, बहेडा, सादह, बरगद, सिद्धा, पुत्रजीवा, पापड़ी, हरसिंगार, ढाक, अंजीर, रोहिडा, कठ, सागवान, कलम, गेंदा, आल, मुजाल आदि।

जहां दुर्गन्ध को कम करना हो, वहां सुगंध देने वाले पेड़-पौधे यथा सिरस, गुलाब, नागचंपा, खरबूजी चंपा, रातरानी, दिन का राजा, कामिनी, लेन्टाना, जूही, चमेली, मोगरा, नीबू, करोंदा आदि लगाना उपयुक्त रहता है।

वृक्ष प्रकृति के फेफड़े हैं इनको स्वस्थ रखिये और स्वयं भी स्वस्थ रहिये।

ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण

ध्वनि एक अदृश्य प्रदूषण है जिसको न तो देखा जा सकता है और न सूंघा जा सकता है और न ही छुआ जा सकता है। केवल सुना जा सकता है। उद्योग, वाहनों तथा ध्वनि प्रसारक संयंत्रों द्वारा इतना शोर होता है कि मनुष्य के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पडऩे लगा है। उच्च रक्तचाप एवं तंत्रकीय रोग का मुख्य कारण ध्वनि प्रदूषण है। शोर को रोकने के लिये इसके स्त्रोत के निकट सघन (पास पास) वृक्षारोपण करना चाहिये। शोर नियंत्रण में उन पौधों को लगाना चाहिये जिनकी पत्तियां मांसल और मोटी हो यथा बरगद, कटहल, पाकर, गूलर, कदम,  बहेडा, अर्जुन, सादड, बादाम, पीलू, बीलपत्र, महुआ, अरीठा, थोर, तेंदू, जामुन, आल, कामिनी, कनेर, नागफनी, नागचंपा, केवड़ा, रामबांस, केला आदि। पौधे जिनकी शाखायें कंपन करती हों जिससे शोर प्राच्छादित हो जावे यथा पीपल, सिरस, फराम, केजुअरीना, पुत्रजीवा, करंज, बांस, आसापाला, रोहिडा, नीम, बेर, सिल्वर, ओक, बोटल ब्रुश, खेजडी, सफेदा, चंदन आदि पौधे भी उपयुक्त हैं। ये पौधे पशु-पक्षियों को आश्रय देते हैं जो मीठी बोली से शोर के दुष्प्रभाव को कम करते हैं। वनस्पति को शोर के स्त्रोत के निकट लगाना चाहिये, बजाय उस स्थान के जिसका ध्वनि प्रदूषण से बचाव करना हो। जहां तक हो घनी पत्ती वाले, सदाबहार वृक्ष लगावें और उनमें बीच बीच में घास झाड़ी आदि को साफ न करें। सड़कों पर तेज शोर रहता है। यहां 15 से 20 मीटर चौड़ी वृक्षावली जिसकी मध्य पंक्ति 10 से 12 मीटर ऊंची हो और जो सड़क की मध्य रेखा से 10 से 12 मीटर दूर हो, वह अत्यंत लाभदायक होती है। सड़क के दोनों छोरों पर दो मीटर पट्टी में घनी झाडिय़ां भी लगाना न भूलें।

जल प्रदूषण नियंत्रण

नगरों के मलमूत्र वाहित जल, औद्योगिक अपशिष्ट के कारण जल प्रदूषित होता जा रहा है और जल-जनित रोग भी बढ़ते जा रहे हैं। उनका यांत्रिक और रसायनिक उपचार महंगा पड़ता है अत: जैविक निस्पंदन धारणा (लिविंग फिल्टर कन्सेप्ट) को मूर्त रूप दिया जाने लगा है। इस प्रक्रिया में अपशिष्ट जल को भूमि पर छोड़ दिया जाता है जिससे मिट्टïी, पेड़, झाड़ी सूक्ष्म जीवन आदि अपशिष्ट जल के भौतिक और रासायनिक गुणों में परिवर्तन करने में प्रभावी भूमिका निभा कर उस अपशिष्ट जल को भूमिगत जल स्त्रोतों तक पुन: भरण (रिचार्ज) में योगदान देते हैं।

52 हेक्टर वृक्षारोपण में, इस प्रकार का 45 लाख लीटर अपशिष्ट जल हर रोज प्रयोग में लाया जा सकता है जिससे वृक्षों की बढ़ोत्तरी ही नहीं होती अपितु जल का पुन: आवर्तन (रिसाइकल) तथा पुन: भरण होता है। ऐसे वृक्षारोपणों में जल प्रेमी वृक्ष यथा जामुन,  पलास, जारूल, करंज, अर्जुन, बबूल, सुबबूल, सफेदा आदि लगाये जा सकते हैं। घरेलू पानी, शक्कर फैक्ट्री आदि कारखानों से निकले पानी में पौध लगाने के लिये उभार वृक्षारोपण (माउंड प्लान्टिंग) करना चाहिये।

लैगून विधि से मल-जल से जो नत्रजन, फास्फोरस व खनिज तत्वों से  भरपूर होता है, जलीय वनस्पति लगाकर  बहुमूल्य कार्बनिक खाद प्राप्त की जा सकती है। वाहित मल को एक श्रृंखला में बने छोटे गड्डों में निस्तारित कर उनमें जलीय वनस्पति यथा शैवाल, नाडी, चांदनी, कुमुदनी, ऐरा, स्माइकारश, बुलरश, ऐरोहेड आदि आसानी से पनपायी जा सकते हैं।

डक बीड विधि

वाहित मल जल की सतह पर तैरने वाले सूक्ष्म पादप यथा लमना, स्पाईरोहेला, वाटर वेलवेट, वाटरमील तथा शैचाल द्रुत गति से बढ़ते हैं। प्रोटीन से ओतप्रोत डक बीड से पशुओं के लिये ही नहीं मानवों के लिये खाद्य पदार्थ बनाये जाने लगे हैं। ये खेती के लिये उत्तम कोटि की हरी खाद भी देते हैं तथा हंस, मुर्गाबी, मछली, सूअरों के लिये भी पौष्टिक भोजन देते हैं।

जल कुंभी विधि

जल कुंभी तेज गति से, जल की सतह पर बढ़ जाती है। साधारणतया: इसको एक खरपतवार के रूप में जाना जाता है किंतु यदि इसका निरंतर एवं सुनियोजित ढंग से विदोहन किया जावे तो प्रति हेक्टर प्रतिदिन 22 से 44 कि.ग्रा. पोटेशियम, 21 से 22 कि.ग्रा. कैल्शियम, 2 से 4 किलो मैग्नीशियम तक इससे प्राप्त किया जा सकता है जो एक अच्छी खाद के रूप में प्रयोग लाया जा सकता है। यही नहीं यह विषैले कैडमियम व पारा को भी अवशोषित कर जल शुद्धिकरण में महत्वपूर्ण योगदान देती है।

औद्योगिक क्षेत्रों में वृक्षारोपण

हालांकि उद्योगों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रदूषण फैलते हैं तथापि औद्योगीकरण का परित्याग नहीं किया जा सकता। आवश्यकता इस बात की है कि हमारे उद्यमी प्रदूषण कम करने में हरे भरे वृक्षों का उपयोग करे। वास्तव में वृक्ष आर्थिक दृष्टि से संचित निधि ही है।  कई प्रांतों के प्रदूषण नियंत्रण मंडलों द्वारा उद्योगों को स्थापित करने के लिये जारी अनुपलब्धता प्रमाण पत्र में निर्देश अंकित होते हैं कि प्रत्येक औद्योगिक परिसर में 33 प्रतिशत भाग हरियाली से आच्छादित होना चाहिये। उद्योगों के परिसर की सीमाओं पर, वाहनों के रुकने के स्थानों पर तथा परिसर के सौंदर्यीकरण की दृष्टि से 2- 3- 2 मीटर की दूरी पर आकर्षक एवं सुंदर फूलवाले वृक्ष लगाना उचित होगा।

जहां तक हो, उनमें सदाबहार

वृक्षों को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिये। प्रदूषण नियंत्रण मंडल, उद्योग निदेशालय आदि यह भी सुनिश्चित करें कि ऐसे औद्योगिक क्षेत्रों में हरे वृक्ष पर्याप्त संख्या में लगे।

ऐसे क्षेत्रों में जहां नये पथ अथवा मार्ग बनाये जाते हैं, इनके दोनों ओर आवश्यक रूप से वृक्षावली लगाना बाध्यकारी हो। औद्योगिक क्षेत्र की अभिकल्पना के समय कुछ भूखंड ऐसे छोड़ दिये जायें, जिसमें वाटिकायें अथवा वृक्ष-कुंजों का विकास किया जा सके। जिन भूमि खंडों में नदी, नाले हों अथवा किसी अन्य कारण से उद्योग के लिये अनुपयुक्त हो, वहां ऐसी पड़त भूमि को वृक्षारोपण के लिये औद्योगिक क्षेत्र के विकास के साथ ही उपयोग करना नितांत वांछनीय ही नहीं आवश्यक भी है। जिन उद्योगों के परिसर में वृक्षारोपण के लिये कम भूमि उपलब्ध हो, उनको अन्यत्र ऐसे वृक्ष कुंज, वाटिकायें आदि बनाने में योगदान देने के लिये बाध्य करना अनुचित नहीं होगा।

औद्योगिक क्षेत्रों में प्रदूषण को दृष्टिगत रखते हुये वृक्षों का चुनाव करना चाहिये। लाल फूल वालों में गुड़हल, कोरल ट्री, सेमल, पलाश, बांटलबुश, फाउंटेन ट्री, रेन ट्री, गुलाबी फूल वालों में पिंक केशिया, सदाबहार, कोरीशिया, पीले फूल वालों में गनियारा, मिजारी, सिल्वर, ओक, कदम्ब, भिंडी, बुखान, सेहिड़ा, आकाशमुनि, अमलतास, सफेद फूल वालों में नीम, चमेली, सेंजना, नागचंपा, सफेदा, जामुन, आकाशनीम, सप्तपर्णी सिरस, आशापाला, बैंगनी फूलों वालों में जारूल, कचनार, बकायन, नीम, बेकरेन्डा आदि सुन्दरता के लिये लगाये जा सकते हैं। (विभूति फीचर्स)

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