सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ने भी उठाया मुद्दा, गलती के लिए कौन जिम्मेदार ?
पांच साल पहले दिल्ली दंगों पर जांच एजेंसी ने सही-आधुनिक वैज्ञानिक तरीक़े इस्तेमाल कर जांच नहीं की। यह नाकामी लोकतंत्र के पहरेदारों को निश्चित रूप से परेशान करेगी। यह कोई आम आदमी या मीडिया की टिप्पणी नहीं, बल्कि देश की राजधानी दिल्ली स्थित कड़कड़डूमा कोर्ट के एडिशनल सेशन जज विनोद यादव के शब्द हैं।
उन्होंने अपने दो फ़ैसलों में ये टिप्पणी की। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक उन्होंने यह भी कहा था कि इन दो मामलों में जांच बहुत ख़राब तरीक़े से हुई है और जांच एजेंसी ने बस अदालत की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश की। पुलिस के कामकाज पर यह एक तल्ख़ टिप्पणी है। पिछले पांच सालों में ऐसे कई मामले हैं, जिसमें कोर्ट ने पुलिस की कड़ी आलोचना की। जैसे, कोर्ट ने किसी मामले में कहा कि जांच सही से नहीं की या अभियुक्त को ग़लत तरीक़े से फंसाया। किसी मामले में कहा कि पहले से तय धारणा के आधार पर चार्जशीट दायर की गई। साल 2020, फरवरी में दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा हुई थी। दिल्ली पुलिस के कोर्ट में दिए आंकड़ों के मुताबिक़ दंगों में 53 जानें गई थीं। इनमें 40 मुसलमान व 13 हिंदू थे। इनके अलावा सैकड़ों घायल हुए, करोड़ों की संपत्ति का नुक़सान हुआ था। पुलिस ने दंगों से जुड़ी 758 एफ़आईआर दर्ज़ की थीं। पुलिस ने दो हज़ार से ज़्यादा लोग गिरफ़्तार किए थे। हालांकि बड़ा सवाल यही है कि पांच साल बाद कितनों को इंसाफ़ मिला ?
पिछले दो महीनों में बीबीसी हिंदी ने इन सारी एफ़आईआर की मौजूदा स्थिति देख कोर्ट के फैसलों का अध्ययन किया। जिसके मुताबिक बहुत कम मुकदमों में अभियुक्तों को दोषी पाया गया। यही नहीं, 80 फ़ीसदी से ज़्यादा केसों में अभियुक्त बरी हो रहे या ‘डिस्चार्ज हुए। डिस्चार्ज यानि जिस मामले में पुलिस की चार्जशीट दायर होने के बाद कोर्ट को आरोप तय कर करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं दिखे। 120 से ज़्यादा फ़ैसलों में सिर्फ 20 केस ऐसे मिले, जिसमें लोग दोषी पाए गए। इनमें भी 12 मामले ऐसे हैं, जिनमें अभियुक्तों ने अपना गुनाह क़बूल कर लिया। हाईकोर्ट में दाख़िल जवाब में दिल्ली पुलिस ने दावा किया कि हर केस की जांच निष्पक्ष तरीक़े से हुई। बीबीसी हिंदी ने सूचना के अधिकार के तहत जानकारी पाने के लिए आवेदन किया। आरटीआई से 62 केस की सूचना मिली, ये सारे केस हत्या से जुड़े हैं। अप्रैल, 2024 में पुलिस ने कोर्ट के सामने एक ‘स्टेटस रिपोर्ट’ दाख़िल की थी। इसमें उन्होंने इन सभी केस में क्या चल रहा है, यह बताया था। पुलिस के मुताबिक क़रीब 38% (289) केसों में तहक़ीक़ात चल रही थी। क़रीब 39% (296) में तहक़ीक़ात पूरी होने के बाद कोर्ट में मुकदमा चल रहा था। बचे 23% केस में या तो फ़ैसला आ गया था या उन्हें खारिज कर दिया गया था। 758 एफ़आईआर में से 62 मामले हत्या से जुड़े थे। ये मामले दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच को सौंपे गए थे। दिल्ली पुलिस के मुताबिक इनमें से अब तक सिर्फ़ एक केस में अपराधी ठहराया गया है। चार मामलों में लोग बरी हुए, 39 में मुकदमा जारी है और 15 में जांच चल रही है।
बीते दिसंबर ही कड़कड़डूमा कोर्ट ने 22 वर्षीय मोनिश उर्फ़ मोसिन की ग़ैर इरादतन हत्या के लिए पांच लोगों को सात साल की सज़ा दी थी। वहीं, एक केस दिल्ली दंगों की साज़िश से जुड़ा है. इसमें 20 लोगों परयूएपीए की धाराएं लगाई गईं। इसे आतंकवाद से जुड़ा क़ानून भी माना जाता है। इस मामले में अब तक मुकदमा शुरू नहीं हुआ है। जिन केस में फ़ैसले आए हैं, उनमें अब तक 80% से ज़्यादा केस में अभियुक्त बरी या डिस्चार्ज हो गए हैं।
अभियुक्तों के बरी होने के दो कारण मुख्य थे। पहला कारण था, क़रीब आधे यानी 49 केस में गवाह अपने पहले के बयान से पलट गए। दूसरा कारण था, क़रीब 60% यानी 66 केस ऐसे थे, जिनमें पुलिस वाले ही गवाह थे. कई कारणों से कोर्ट ने उनके बयान को विश्वसनीय नहीं माना। इनमें कुछ केस में पुलिस वालों के बयानों में परस्पर विरोध था। कोर्ट ने आशंका जताई कि वे सच नहीं बोल रहे हैं। कुछ ऐसे केस भी थे, जिसमें पुलिस ने अभियुक्तों की ‘पहचान’ काफ़ी दिनों बाद की थी। कोर्ट ने उनके बयान पर सवाल खड़े किए। कुछ केस ऐसे थे जिसमें ड्यूटी शीट के मुताबिक गवाही देने पुलिस वालों की तैनाती किसी और इलाक़े में थी और वे गवाही किसी और इलाक़े के बारे में दे रहे थे।
अभियुक्तों के बरी होने के कुछ और कारण भी थे। कुछ ऐसे भी मामले थे, जिसमें कोई गवाह या सबूत नहीं थे। कुछ ऐसे मामले भी थे, जहां एक से ज़्यादा कारणों से लोग बरी हो गए। जैसे, गवाहों का पलटना, पुलिस के बयान का विश्वसनीय ना होना और वीडियो सबूत ठीक से पेश ना करना। एक ऐसा भी केस था जिसमें कोर्ट ने कहा कि पुलिस ने साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ की। आधा वीडियो कोर्ट में पेश किया, ताकि ग़लत इंसान को फंसाया जा सके। एक फ़ैसले में अभियुक्तों को बरी करते हुए कोर्ट ने कहा कि जांच में बहुत कमियां थीं। जज ने यहां तक कहा कि इस बात की आशंका है कि गवाह के रूप में दो पुलिस वालों का इस्तेमाल बस इसलिए किया गया, ताकि ये दिखाया जा सके कि केस हल हो गया है। कुछ मामलों में कोर्ट ने कहा कि बहुत सारी शिकायतों की एक साथ जांच की गई, जो सही नहीं थी। इनमें से कुछ केस में कोर्ट ने कहा कि पुलिस को शिकायतों की जांच दोबारा से करनी होगी।
यही नहीं, कम से कम दो मामले में कोर्ट ने पुलिस पर 25,000 रुपए का जुर्माना लगाया। कम से कम दो मामले ऐसे भी थे, जहां कोर्ट ने सीनियर अफ़सर को जांच अधिकारी के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने को कहा। एडवोकेट अब्दुल ग़फ़्फ़ार दिल्ली दंगों के 100 से ज़्यादा केस से जुड़े हैं। वह कहते हैं कि आमतौर पर पुलिस अफ़सर के पास केस कम होते हैं तो उन पर भार कम होता है। दंगों के केस में क़रीब 80-90% केस में जांच उस स्तर की नहीं हो पाई। रक्षपाल सिंह भी वकील हैं, वह भी क़रीब 90 केस से जुड़े हैं। उनके मुताबिक जांच में कमियां थीं, पर यह भी देखते की ज़रूरत है कि दंगों के ठीक बाद कोविड-19 की वजह से लॉकडाउन लग गया। इतने सारे केस की जांच करने के लिए पुलिस के पास संसाधन कम थे।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज भी खफा !
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन लोकुर के मुताबिक प्रॉसिक्यूशन और पुलिस को बैठकर सोचना चाहिए कि उन्होंने पांच सालों में क्या हासिल किया। किसी को जेल में डालने पर पुलिस और प्रॉसिक्यूशन की भी जवाबदेही होनी चाहिए। लोग सालों जेल में रहते हैं और फिर बेल पर या बरी होकर बाहर आते हैं और कुछ नहीं होता। जो उन्हें जेल में डालते हैं, उनके ख़िलाफ़ भी कुछ नहीं होता, क्यों ? अगर ये पाया जाए कि जेल में डालना ग़ैर-क़ानूनी था या जेल में डालने की ज़रूरत नहीं थी तो पुलिस और प्रॉसिक्यूशन की जवाबदेही भी तय करना ज़रूरी है।
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