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1775 में ही पड़ गई थी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव

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वेद अग्रवाल

 

भारतीय स्वतंत्रता का इतिहास जब-जब लिखा जाएगा, तब-तब 10 मई 1875 का दिन बड़ी श्रद्घा एवं सम्मान के साथ अंकित किया जाएगा। इस दिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम चिंगारी मेरठ की ब्रिटिश सेना की बैरकों में फूटी थी।

 

वैसे भारत के इस स्वतंत्रता संग्राम की नींव तो 1775 में ही पड़ गई थी, जब झूठे आरोप मढ़कर बंगाल के महाराज नंदकुमार को फांसी पर चढ़ा दिया गया था। उनकी धन सम्पत्ति छीन ली गई थी और उन्हें सत्ताच्युत कर दिया गया था। सच तो यह है कि भारत में अंग्रेज साम्राज्य की जो सुदृढ़ इमारत भारत के पहले गर्वनर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज के समय से खड़ी होनी शुरू हुई थी, उसकी नींव में जो पहली नरबलि चढ़ाई गई, वह महाराज नंद कुमार की थी।

 

हेस्टिंग्ज ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के डायरेक्टरों यानि अपने मालिकों की धनलिप्सा पूरी करने के लिए न्यायालय के विवेक को ताक पर रखकर जहां भी धन था, उसकी प्राप्ति के लिए धन के स्वामियों पर लोमहर्षक अत्याचार किए। वह स्वयं भी रिश्वत और घूसखोरी के आरोपों का पात्र बना। इंग्लैंड की संसद में कई सांसदों ने उसकी घोर और कटु शब्दों में निंदा की। लेकिन वारेन हेस्टिंग्ज ने बेईमानी से प्राप्त धन के बल पर इंग्लैंड के कतिपय पत्रकारों और सत्ताधीशों को खरीद लिया, और किसी तरह घनघोर अपमान से अपनी रक्षा की। कहा जाता है कि समाचार पत्रों में अपने पक्ष में लेखन और प्रकाशन पर ही उन दिनों उन्होंने बीस हजार पौंड खर्च कर दिए थे।

 

मिथ्या आरोप लगाकर अकारण ही हेस्टिग्ज ने रूहेला सरदारों पर आक्रमण करवा दिया। रूहेलाओं को उनकी सम्पत्ति, सत्ता और धरती से वंचित कर दिया।

 

फलस्वरूप सन्ï 1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट पास हुआ। हेस्टिंग्ज की प्रभुता पर अंकुश लगाने के लिए चार सदस्यों की परिषद नियुक्त कर दी गई, लेकिन यह अंकुश बहुत प्रभावी नहीं सिद्घ हुआ। अवध की बेगमों और काशी नरेश राजा चेत सिंह पर आमानुषिक अत्याचार किए गए। उनकी धन सम्पत्ति ही नहीं लूटी गई, बल्कि उन्हें सत्ताच्युत भी किया गया। उन्हें घोर अपमान के कड़वे घूंट पीने पर बाध्य होना पड़ा।

 

महाराज नंद कुमार को फांसी हेस्टिंग्ज के अनेक काले कारनामों की लंबी श्रृंखला की पहली कड़ी थी। महाराज नंद कुमार का अपराध यह था कि उन्होंने गवर्नर जनरल के बढ़ते अत्याचारों को सह न सकने के कारण हेस्टिंग्ज की पोल गवर्नर जनरल की परिषद के सामने खोल दी। यही नहीं, अपने आरोप प्रमाणित भी कर दिए। उन्होंने बतलाया कि हेस्टिंग्ज ने किस प्रकार लगभग साढ़े तीन लाख से अधिक रुपया घूस के रूप में खाया है। इससे हेस्टिंग्ज साहब आपे से बाहर हो गए और उन्होंने येन-केन प्रकारेण महाराज नंद कुमार को अपने रास्ते से हटाने की ठान ली। इसमें उनके कतिपय अंग्रेज साथियों और कुछ भारतीयों की भी सांठगांठ तथा मिलीभगत थी। हालांकि कुछ अंग्रेज विशेष रूप से सर फिलिप फ्रांसिस, वारेन हेस्टिंग्ज के कट्ïटर विरोधी थे, लेकिन उन्होंने भी जब महाराज नंद कुमार पर विपत्ति आयी तो सहायता देने से साफ मुंह मोड़ लिया।

 

 

महाराज नंद कुमार के आरंभिक जीवन के विषय में जो कुछ लिखा गया है, उसे जान लेने से फांसी की घटना के महत्व को समझने में सरलता होगी। महाराज नंद कुमार ने बारह वर्ष की उम्र से लेकर बीस वर्ष की उम्र तक आठ वर्ष निरन्तर मुर्शिदाबाद में पं. बापूदेव शास्त्री के घर में रहकर शास्त्राध्ययन किया और फारसी पढ़ी। पं. बापूदेव कोरे सूत्र घुटाने वाले संस्कृत शास्त्री न थे। वह राजनीति, समाजनीति तथा धर्मनीति के भी पूरे पंडित थे। मुर्शिदाबाद के नवाब अली वर्दी खां एवं मीर कासिम अली खां, जो प्रजा के हित में अपना हित समझते थे, सदा शास्त्री जी के साथ सलाह मशविरा किया करते थे।

 

जब नंद कुमार की अवस्था बाईस वर्ष की हुई, तब पं. बापूदेव के अनुरोध पर नवाब अली वर्दी खां ने महाराज नंद कुमार को महिषादल परगने का राजस्व वसूल करने के कार्य पर नियुक्त कर दिया।

 

नवाब थे तो विधर्मी पर वे गुण के सामने काले-गोरे, हिन्दू मुसलमान का भेद कम रखते थे। अत: नंद कुमार के काम पर प्रसन्न होकर, नवाब साहब ने उन्हें हुगली का फौजदार (गर्वनर) नियुक्त किया।

 

हुगली में वह पांच वर्ष फौजदार रहे। इस पद पर काम करके उन्होंने लगभग दो-तीन लाख रुपये पैदा किए। अनंतर गुरूदर्शन की अभिलाषा से महाराज नंद कुमार मुर्शिदाबाद गए। बापूदेव शास्त्री की एक कन्या थी, जिसका नाम प्रमदा देवी था। शास्त्री जी का कोई पुत्र न था। अत: जिन दिनों नंदकुमार शास्त्री के घर में रहकर शास्त्राध्ययन करते थे, उन दिनों उनकी गुरूपत्नी उन पर निज पुत्रवत, स्नेह करती थीं।

 

महाराज नंद कुमार ब्राह्मण थे। उन्होंने अपने जन्म ग्राम में एक बार यज्ञ किया था, जिसमें एक लक्ष ब्राह्मïणों को भोजन कराया था। महाराज ऐसे उदार थे कि जो कोई मनुष्य उनसे याचना करता, वह उनके घर से निराश नहीं जाता था। महाराज गुरूभक्त भी थे।

 

अत: गुरूदर्शनार्थ मुर्शिदाबाद जाते समय भगिनी सदृश प्रमदा देवी और मातृवत गुरूपत्नी की भेंट के लिए बहुमूल्य आभूषण बनवाकर ले गए किन्तु जब महाराज मुर्शिदाबाद पहुंचे, तब गुरू पत्नी की मृत्यु और गुरू कन्या के वैधव्य का दारूण समाचार सुनकर, महाराज बड़े दुखी हुए। उनका हृदय दया, ममता, भक्ति एवं कृतज्ञता से परिपूर्ण था।

 

जिनके लिए वे बहुमूल्य आभूषण बनवाकर ले गए थे, उनमें से एक का देहांत हो गया और दूसरी का, आभूषण धारण करने का अधिकार अपहृत हो गया। इसलिए नंद कुमार ने उन आभूषणों के लाने की चर्चा तक गुरू से न की और आभूषणों को निज परिचित बुलाकीदास महाजन की दुकान में अमानत के रूप में जमा करा दिया। साथ ही मन में संकल्प कर लिया कि इनकी बिक्री का धन प्रमदा देवी को दे देंगे। अनंतर मीर कासिम और कम्पनी के बीच युद्घ हुआ। मुर्शिदाबाद लूटा-पीटा गया। उसी लूट-खसोट में महाराज नंदकुमार की अमानत भी लुट गई। बुलाकीदास वैण्णव थे। उन्होंने महाराज को उनकी अमानत के बदले में 48021 रुपए का एक रूक्का लिख दिया। सन् 1769-70 के दुर्भिक्ष से पीडि़त बंगालियों को इन्ही रुपयों में से थोड़े से रुपयों से चावल खरीदकर बांटा गया। बुलाकीदास की मृत्यु के बाद मोहन प्रसाद पमरदास प्रभृति ने इसी रूक्के की बात उठाकर सुप्रीम कोर्ट के जजों की अनुमति से और हेस्टिंग्ज साहब के अनुरोध से, महाराज पर जाली दस्तावेज बनाने का आरोप लगाकर, उन्हें मरवा डाला।

 

आरोप लगाने वालों में उनके परम शत्रु जगत चंद्र, कमालुद्दीन आदि भी थे। इन सबने मुकद्दमा चलाने का यह काम मिस्टर हेस्टिंग्ज के संकेत पर किया। अंतत: फर्जी गवाहों की झूठी गवाही पर कलकत्ता जेल में महाराज नंदकुमार को फांसी दे दी गई।

 

इसके बाद ब्रिटिश हुकूमत का शिकंजा धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत पर कसता गया, किन्तु साथ-साथ असंतोष की चिंगारी भी अन्दर ही अन्दर सुलगती गई, जिसकी चरम परिणति 10 मई 1857 को मेरठ में हुए सैनिक विद्रोह के रूप में सामने आई। भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया और अनेक जनरलों को मौत के घाट उतार दिया। मेरठ से भड़की स्वातंत्रय-चाह की इस प्रथम चिंगारी ने सम्पूर्ण उत्तर भारत को अपनी जद में ले लिया। आम किसान से लेकर मुगल सम्राट तक इस आग में अपनी आहुति देने को कूद पड़े। राजा महाराजा, अमीर-उमरा, किसान-मजदूर सभी अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हो गए। हालांकि अंग्रेज क्रान्ति की इस आग पर काबू पाने में सफल रहे, मगर उनकी चूल-चूल हिल गई। फलस्वरूप उन्होंने बड़ी बेदर्दी से भारतीयों का दमन कर कृत्रिम शांति स्थापित करने में सफलता पा ली, किन्तु आग अन्दर-अन्दर ही भड़कती रही। यह ज्वाला 1942 तक सुलगती रही और फिर अंग्रेजों के विरूद्घ कश्मीर से कन्याकुमारी व असम से अटक तक भड़क उठी। जगह-जगह हिंसा का तांडव हुआ। 1946 में बंबई में ब्रिटिश नौसेना ने विद्रोह कर दिया, जिससे ब्रिटिश सरकार सिर से पांव तक कांप गई और अंतत: 1947 में उसे भारत से पलायन करना पड़ा।

(विभूति फीचर्स)

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