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जिस नैया के राम खावईया, वो नय्या फिर क्यों डोले : श्री कृष्ण जी महाराज

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शनिवार, 05 अक्टूबर  :   परम पूज्य संत शिरोमणी श्री स्वामी सत्यानन्द जी महाराज की असीम कृपा से  पूज्य भक्त श्री हंसराज जी महाराज (बड़े पिता जी) के आशीर्वाद से पूज्य श्री कृष्ण जी महाराज (पिता जी) एवं पूज्य माँ रेखा जी महाराज की अध्यक्षता में ऋषि नगर लुधियाना में चल रहे राज्यस्तरीय “रामायण-ज्ञान-यज्ञ” के चौथे दिन की सभा में पूजनीय श्री कृष्ण जी महाराज (पिता जी) ने उपस्थित साधको के लिये सुख एवं समृद्धि की कामना की।

 

 

पूज्य पिता जी महाराज ने कहा हमें महाराज जी का कोटि कोटि धन्यवाद करना है कि उन्होंने इस यज्ञ मे शामिल होने का सुअवसर प्रदान किया।

रामायण का परायण चल रहा है। पावन दिन है, पावन भूमि है, पावन वायुमंडल है, पावन वेला है। वैसे तो हर घड़ी पावन होती है। इन दिनों हर और रामायण का पाठ होता है इस लिए इन दिनों विशेष कृपा वाली तिरंगे चलती हैं। हमें यही प्रार्थना करनी है की भाने तेरे से प्रभ, भला भद्र हो जाए, जग में सब नर नारी का कष्ट न कोई पाए।

 

वैसे तो रामायण के परायण में हर समय आनंद की अनुभूति होती है। हर समय लगता है, जितना इस समय आनंद आया, आगे कभी नहीं आया। क्योंकि पिछला आनंद हम भूल जाते हैं। हमें व्रती बनना है। व्रती का अर्थ है वहम नही करना, क्रोध नही करना, भय नही करना, चिंता नहीं करनी क्योंकि जिस नैया के राम खावईया, वो नय्या फिर क्यों डोले। दीनाबन्धु दीना नाथ, लाज मेरी तेरे हाथ। हमारी लाज तो प्रभु के हाथ है फिर हमें किस बात की चिंता।

यही प्रार्थना करनी है, अब तक जो निभाया है, आगे भी निभा देना।

 

आज अयोध्याकाण्ड में से कैकेयी द्वारा दशरथ जी से दो वर मांगने से ले कर माँ सीता जी और लक्ष्मण जी के राम जी के साथ वन जाने तक के प्रसंग पढ़े गए।

 

पूज्य पिता जी महाराज ने कहा कि तेरे मन में और है साहिब के मन और। चिंतन में जन काल बिताते, पल में पासे जाते, कितनी रचो मनोरथ माला, पर भावी पर पर्दा काला, तब कहते हैं सुजन सियाने, राम की बातें राम ही जानें। मनुष्य सोचता रहता है, ऐसा होगा, वैसा होगा, होने का समय भी आ जाता है, पर होता वही है जो प्रभु चाहतें हैं। उस मालिक के मन में क्या है कोई नही जानता। जब बुरा समय आने वाला हो तो बोल बिगड़ जाते हैं और मस्तक फिर जाता है। जब अनहोनी होने वाली होती है, तो हृदय का कोना कोना हिलने लगता है। दिल घबराने लग जाता है।

 

पिता जी महाराज ने कहा मंथरा कैकई को राम जी का

राज्याभिषेक रोक कर भरत जी को राजा व राम जी को चौदह वर्ष वनवास में भेजने को कहती है। जैसे अमृत के प्याले में यदि विष मिल जाए तो अमृत भी विष बन जाता है ऐसे ही मंथरा ने रानी के मन मे नीच भाव भर दिए। मंथरा अपनी बातों से रानी के मन को इस तरह भ्रमित करती है कि रानी कैकई राम जी को बनवास भेजने के लिए तैयार हो जाती है। इस के लिये मंथरा उसे दशरथ जी द्वारा दिये दो वचनों की याद करवाती है और उसे अब राजा से उन वचनों के मांगने को कहती है। रानी उस की बातों में आ जाती है और राजा दशरथ को वचनो में बांध कर अपने दो वर एक में भरत लो राज्य और दूसरे में राम को चौदह वर्ष का बनवास मांग कर राजा को अपनी बात मानने को विवश कर देती है। दशरथ उसे कहते हैं कि यदि राम वन में चले जाएगा तो उस की बिना मैं मर जायुगा। परंतु रानी उस की बात नही मानती। अंत में विवश हो कर राजा दशरथ सचिव सुमंत्र को भेज राम जी को अपने पास बुलाते हैं। राम जी माता पिता के पास आ पिता को रोता देख घबरा जाते हैं और माँ कैकयी से इस का कारण पूछते हैं तो माँ अपने दोनों वर, भरत को राज्य और राम को चौदह वर्ष का वनवास का बताती है।

पिता जी महाराज ने कहा, कहाँ राज्य अभिषेक और कहाँ वन जाने का आदेश, दोनों विपरीत परिस्थिति होने के बाद भी राम जी के मुख पर परेशानी की कोई रेखा देखने को नहीं मिली। इतना वज्राघात सी पीड़ा देने वाला समाचार सुन केवल राघव जी जैसा कोई शूरवीर व धैर्यवान ही इस आघात को सहन कर सकता था। राम जी माता पिता की आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं।

 

होता है जन जग में कोई,

बज्र पड़े पर हिले न जो ही।

विपदा घोर घटा बन आवे,

उसको तो भी डुला न पावे।।

 

धीर जनों पर हैं दुःख आते,

उनसे तो वे परखे जाते।।

 

पिता जी महाराज ने कहा पापी जन तो आप, पानी वत नीचे चले। जब मनुष्य एक पाप कर लेता है तो वह रुकता नही और पाप करता चला जाता है। जब व्यक्ति का पतन होने आता है तो वह पानी वत नीचे गिरता चला जाता है। पानी पर्वतों जब निकलता है तो कितना मीठा होता है पर जब वह नीचे गिरता है तो अंत में खारा हो जाता है। दांत, केश और नाखून जब अपना स्थान तज देते हैं तो मनहूस हो जाते हैं। इसी प्रकार रानी कैकेई अपनी मर्यादा तोड़ पारिवारिक प्रेम को त्याग गिरती चली गई।

 

राजा रानी से विदा हो कर राघव जी वन जाने से पहले माता कौशल्या को मिलने उन का आशीर्वाद लेने उन के महल में आते हैं। माता कौशल्या राम जी के राज तिलक की सफलता के लिये पूजा कर रही होती हैं। माता राघव जी को देख प्रसन्न हो कर उन्हें अपने गले लगा लेती हैं। राघव जी माता को चौदह वर्ष के बनवास का बताते है। माँ यह सुन अचेत हो जाती है। राम जी उन्हें तुरंत उठा कर समझा के शांत बनाते है। माँ उन को अपने साथ ले चलने के लिय कहती हैं। तभी लक्ष्मण जी आ जाते हैं। वह माता कौशल्या के दुख को देख कहते हैं, माँ मैं राम को वन नही जाने दूगा। मैं अपने धनुष से तीक्ष्ण बाण बरसा कर देश को निर्जन कर दूँगा। राम जी उन्हें शांत करवाते हैं और कहते हैं कि अपने घर में बल उपयोग उचित नही होता। अपने घर में बल उपयोग बहुत बड़ा पाप होता है। यह जो हो रहा भगवान की इच्छा से हो रहा। जिस सुख दुख का कोई कारण नही दिखता, ऐसा सुख दुःख भगवान इच्छा से आता है। इस में माता पिता और किसी अन्य का कोई दोष नही है। बेटे का धर्म अपने पिता की साख रखना होता है। इस लिये मुझे पिता के वचन पूरे करने ही हैं। राम जी के समझाने पर कौशल्या उन्हें वन जाने की आज्ञा दे देती हैं।

 

शुभ मंगल वन में सुत मेरे,

होवें हैं ये आशिष मेरे।

रात-दिवस हो मंगल दाता,

शान्ति-करण हो सायं प्रातः।।

 

बार-बार शुभ आशिष सेती,

बोली मुख से आज्ञा देती।

आशा पूर्ण हो सुत! तेरी,

सुख से जा है आज्ञा मेरी।।

 

पिता जी ने कहा माँ की महिमा का कोई वर्णन नही कर सकता। जब माता हर्ष में पुत्र को गले से लगती है तो चारों ओर सुख और खुशियां की झडी लग जाती है। पुण्यवान संताने ही माँ की शीतल छाया और सेवा का सुअवसर पाती हैं।

 

राम जी माँ से वन जाने की आज्ञा पा सीता जी के पास आते है। वह राज तिलक की तैयारी कर रही होती हैं। राम जी उन को अकेले छोड़ कर जाने का और पीछे उन का दुख सोच उदास हो जाते हैं। सीता जी राम जी को उदास देख घबरा जाती हैं और इस का कारण पूछती हैं।

राम जी उन्हें अपने वन गमन का बताते हैं और उसे पीछे अकेली रह माता पिता की सेवा करने को कहतें। यह सुन सीता जी राम संग जाने को कहती हैं। राम जी उन्हें वन के कष्टों का बताते हैं तो सीता जी कहती हैं विवाह के समय जब मेरे माता पिता ने मेरा हाथ आपके हाथ में दिया था तो कहा था अब तेरा भाग्य पति के साथ बंध गया है। तूने सुख दुख में उस के संग रहना है। माता, पिता, बंधु, सुत, और नौकर चाकर सब अपने किये कर्मों के फल भोगते हैं, परंतु पत्नी का भाग्य पति संग बँधा होता है। यदि आप अपने पिता का वचन भंग नही कर सकते तो मैं भी अपने पिता का वचन भंग नही कर सकती। मेरी अयोध्या वहीं हैं जहाँ मेरे राम हैं। इस लिए मैं आप के संग चलूँगी। सीता जी का हठ देख राम जी उन्हें साथ ले जाने को मान जाते है।

 

सती सत्य शुभ सन्त सहारे,

भूमि सहती भार भी भारे।

वंश जाति की शोभा सारी,

पतिव्रता गई सती पुकारी।।

 

राम जी और सीता जी को वन जाने के लिये तैयार देख कर लक्ष्मण जी भी श्री राम जी के साथ जाने की ज़िद करते है। राम जी उन का हठ देखकर साथ जाने की अनुमति दे देते है।

 

पिता जी ने प्रार्थना की, कि जिन भाईयो में कटुता आ गई है, उन में राम लक्ष्मण जैसा प्रेम आवे, क्योंकि भाई जैसा सुखदायी नही भाई जैसा दुःखदायी नहीं।

 

भाई भुज के सबल सहारे,

कार्य होते जग में भारे।

निर्भय फिरते भाई वाले,

उनके कहने जाते पाले।।

 

महाराज जी ने सभी के भाग्य की सराहना करते हुए कहा की इतनी व्यस्तता के बाद भी केवल भाग्यवान ही यज्ञ में आ पाते है।

रामायण जी के परायण में राम जी, सीता जी व लक्षमण जी का वन जाने का प्रसंग बहुत ही वेदना व करुणामय था।

 

पूज्य माँ रेखा जी महाराज को वनवास जाने का प्रसंग पढते हुए भावुक होते देख कर सभी साधक अपने भाव नहीं रोक पाए।

 

मां जी महाराज द्वारा गाये भजन “कर्मा की रेखा न्यारी रे न्यारी, होनी होके रहे, रे बिधना टारे नाही टरे।” सुन सभी साधक भाव विभोर हो गए।

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