दुनियाँ में आर्थिक स्वार्थ वाली राजनीति का प्रचलन तेजी से बढ़ा- वैश्विक सहयोग की जगह प्रतिस्पर्धा व एकजुट की जगह गुटबाज़ी का माहौल बढ़ा
वैश्विक स्वार्थ राजनीति का सबसे बड़ा उदाहरण, 2022 से चल रहा रूस-यूक्रेन युद्ध व ट्रंप टैरिफ नीति है
दुनियाँ में राजनीति व अर्थव्यवस्था का रिश्ता स्वार्थ प्रधान के चरम पर पहुंचा-हर देश अपनी सुरक्षा ऊर्जा व्यापार और तकनीक संप्रभुता को सर्वोपरि रखकर नीतियां बनाने लगा- एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र
गोंदिया – वैश्विक परिदृश्य आज़ इस बात का सटीक साक्षी है कि राजनीति और कूटनीति अब सिर्फ़ विचारधाराओं या नैतिक मूल्यों पर नहीं टिकी, बल्कि उसका केंद्र आर्थिक स्वार्थ बन चुका है। प्रत्येक राष्ट्र अपनी रणनीति,नीतियों और कूटनीतिक चालों को इस आधार पर गढ़ रहा है कि उसकी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था मज़बूत हो, उसके संसाधनों पर उसका नियंत्रण बना रहे और वैश्विक शक्ति-संतुलन में उसकी पकड़ ढीली न हो। यह स्थिति वैश्वीकरण के उस सपने से बिल्कुल अलग है,जिसमें सबके हितों की साझेदारी की बात की जाती थी। इसके बजाय आज हम ऐसी दुनिया देख रहे हैं जहाँ हर शक्ति अपने आर्थिक हितों को सर्वोपरि मानते हुए, कभी सहयोग तो कभी टकराव के रास्ते पर आगे बढ़ रही है।2022 से चला आ रहा रूस-यूक्रेन संघर्ष 2026 तक वैश्विक स्वार्थ राजनीति का सबसे बड़ा उदाहरण है। अमेरिका और नाटो इसे लोकतंत्र बनाम तानाशाही की लड़ाई कहते हैं, लेकिन असल में यह ऊर्जा संसाधनों, हथियारों के बाजार और भू-राजनीतिक प्रभुत्व का खेल है। रूस, चीन और भारत नए ब्लॉकों (ब्रिक्स+) के जरिए अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती दे रहे हैं।भारतीय पीएम ने दिनांक 25 अगस्त 2025 को अहमदाबाद में अपने संबोधन के दौरान कहा कि“आज दुनियाँ में आर्थिक स्वार्थ वाली राजनीति हो रही है”।मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हुँ कि यह एक साधारण सा वाक्य प्रतीत होता है, लेकिन इसमें वैश्विक राजनीति,अर्थशास्त्र और कूटनीति की गहरी परतें छिपी हुई हैं। आधुनिक अंतरराष्ट्रीय संबंधों और विश्व राजनीति की दिशा को समझने के लिए इस कथन का विश्लेषण अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसीलिए आज हम मीडिया में उपलब्ध जानकारी के सहयोग से आर्टिकल के माध्यम से चर्चा करेंगे,दुनियाँ में आर्थिक स्वार्थ वाली राजनीति का प्रचलन तेजी से बढ़ा-वैश्विक सहयोग की जगह प्रतिस्पर्धा व एकजुट की जगह गुटबाज़ी का माहौल बढ़ा।
साथियों बात अगर हम वैश्विक स्तर पर आज़ आर्थिक स्वार्थकी राजनीति का नयायुग शुरू होने की करें तो आज की दुनिया राजनीतिक विचारधाराओं की बजाय आर्थिक हितों से ज्यादा संचालित हो रही है। जहाँ कभी पूँजीवाद और समाजवाद जैसी विचारधाराएँ निर्णायक हुआ करती थीं,वहीं अब राष्ट्र अपनी नीतियों को इस आधार पर गढ़ते हैं कि उनका आर्थिक लाभ और हानि किस सीमा तक होगा। देशों की विदेश नीतियाँ, सैन्य रणनीतियाँ,यहाँ तक कि सांस्कृतिक कूटनीति भी अब उसी चश्मे से देखी जाती हैं जिसमें सबसे पहले सवाल पूछा जाता है-“इससे हमारे देश को क्या फायदा है?”।
साथियों बातें कम इस संबंध में अनेक देशोंकी अपडेट स्वार्थ -संचालित नीतियों को जाननेकी करें तो (1) अमेरिका की स्वार्थ-संचालितनीतियाँ:-अमेरिका की राजनीति आज सबसे स्पष्ट रूप से आर्थिक स्वार्थ पर आधारित दिखती है। डोनाल्ड ट्रंप के दौर से ही “अमेरिका फर्स्ट” नीति ने यह साफ़ कर दिया था कि वैश्विक सहयोग तभी तक टिकेगा, जब तक उससेअमेरिका को लाभ है। ट्रंप ने चीन पर भारी टैरिफ लगाए, डब्लूटीओ के नियमों को चुनौती दी और नाटो सहयोगियों से रक्षा खर्च में बढ़ोतरी की मांग की।बाइडेन प्रशासन ने भले लोकतंत्र और मानवाधिकार की भाषा अपनाई हो, लेकिन उनकी नीतियों का मूल भी अमेरिका की आर्थिक मज़बूती ही है। यूक्रेन युद्ध में खुले समर्थन का कारण भी रूस को कमजोर कर यूरोप के ऊर्जा बाजार और हथियारों के व्यापार पर अमेरिकी पकड़ बनाना है। अमेरिकी टेक कंपनियों पर चीन से दूरी बनाने का दबाव, भारत जैसे देशों में निवेश और सप्लाई- चेन शिफ्ट करना-ये सब दर्शाते हैं कि आर्थिक स्वार्थ ही विदेशनीति की दिशा तय करता है। (2) चीन का विस्तारवाद और आर्थिक हित:-चीन का मॉडल पूरी तरह आर्थिक हितों पर आधारित है। “बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव” के ज़रिये चीन ने एशिया, अफ्रीका और यूरोप में भारी निवेश किया, ताकि उसकी कंपनियों को नए बाजार मिलें और कर्ज़ देकर राजनीतिक प्रभाव भी कायम किया जा सके। लेकिन श्रीलंका, पाकिस्तान और अफ्रीकी देशों में “डेब्ट ट्रैप” की स्थिति बताती है कि चीन की नीतियाँ सहयोग से ज्यादा स्वार्थ पर आधारित हैं। दक्षिण चीन सागर में उसका आक्रामक रवैया भी समुद्री व्यापार और प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण के आर्थिक उद्देश्य से जुड़ा है। अमेरिका और यूरोप से तकनीकी प्रतिस्पर्धा, सेमीकंडक्टर पर पकड़ बनाने की कोशिश, और अफ्रीका में दुर्लभ धातुओं पर अधिकार हासिल करना-ये सब दर्शाते हैं कि चीन अपनी नीतियों को सिर्फ़ आर्थिक हित के तराज़ूपर तोल रहाहै।(3) यूरोप की दुविधा:-आदर्श बनाम आर्थिक ज़रूरतयूरोपीय संघ अक्सर जलवायु परिवर्तन, मानवाधिकार और वैश्विक न्याय की बातें करता है। लेकिन जब बात ऊर्जा, व्यापार और बाज़ार की आती है, तो वही यूरोप आर्थिक स्वार्थ के आगे झुक जाता है। जर्मनी और फ्रांस ने वर्षों तक रूस से सस्ती गैस पर अपनी अर्थव्यवस्था खड़ी की, जबकि रूस की नीतियों को लेकर आलोचना भी करते रहे। यूक्रेन युद्ध के बाद रूस पर प्रतिबंध लगाने का दबाव अमेरिका से आया, लेकिन अब यूरोप महंगे ऊर्जा संकट से जूझ रहा है। इसके अलावा, यूरोप का अफ्रीकी देशों के साथ व्यापारिक संबंध, शरणार्थी संकट को रोकने के लिए समझौते, और चीन के साथ तकनीकी सहयोग भी आर्थिक हितों की राजनीति को उजागर करता है। (4) रूस का संसाधन-आधारित स्वार्थ:-रूस की राजनीति का मूल उसकी ऊर्जा और हथियारों पर आधारित अर्थव्यवस्था है। पुतिन ने बार-बार तेल और गैस को हथियार की तरह इस्तेमाल किया है। यूक्रेन पर आक्रमण के पीछे सिर्फ़ भू-राजनीतिक नहीं बल्कि आर्थिक कारण भी हैं-काला सागर और डोनबास क्षेत्र पर नियंत्रण रूस के लिए औद्योगिक और ऊर्जा हितों से जुड़ा है। अफ्रीका में रूस की बढ़ती सैन्य मौजूदगी और खाद्य अनाज की आपूर्ति पर उसका नियंत्रण भी आर्थिक स्वार्थ को सामने लाता है। रूस आज अपने हथियार, ऊर्जा और खनिजों को इस्तेमाल कर वैश्विक राजनीति को प्रभावित करने की रणनीति अपना रहा है।(5)भारत का संतुलनकारी रवैया:-भारत भी इस वैश्विक परिदृश्य में अपने आर्थिक हितों को केंद्र में रख रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान भारत ने रूस से सस्ते तेल की खरीद जारी रखी, भले ही पश्चिमी देशों ने दबाव बनाया। यही भारत की “रणनीतिक स्वायत्तता” की झलक है। अमेरिका और यूरोप से तकनीकी निवेश और व्यापारिक साझेदारी बढ़ाते हुए भी भारत रूस और ईरान से अपने संबंध बनाए रख रहा है।”मेक इन इंडिया” “आत्मनिर्भर भारत”और डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे कार्यक्रम सीधे तौर पर आर्थिक स्वार्थ से प्रेरित हैं। साथ ही,भारत जलवायु परिवर्तन की वैश्विक राजनीति में भी यह स्पष्ट करता है कि वह केवल तभी बड़े कदम उठाएगा जब विकसित देश उसके आर्थिक हितों को सुरक्षित करेंगे। (6) मध्य-पूर्व: तेल, धर्म और शक्ति की राजनीति:-मध्य-पूर्व की राजनीति पूरी तरह तेल और गैस पर आधारित है। सऊदी अरब और यूएई ने अपनी आर्थिक नीतियों को “विजन 2030” जैसे कार्यक्रमों से विविधीकरण की ओर मोड़ा है, लेकिन उनकी प्राथमिकता अभी भी तेल निर्यात पर टिकीहै,इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष और ईरान-सऊदी प्रतिद्वंद्विता भी ऊर्जा मार्गों और क्षेत्रीय प्रभाव से जुड़ी है।अमेरिका और यूरोप का इस क्षेत्र में दखल केवल इसलिए है कि वे तेल की निर्बाध आपूर्ति चाहते हैं। हाल ही में ब्रिक्स में सऊदी अरब और ईरान की सदस्यता भी बताती है कि आर्थिक स्वार्थ कैसे नए भू-राजनीतिक समीकरण गढ़ रहा है।(7) अफ्रीका: संसाधनों पर वैश्विक खींचतान:- अफ्रीका दुनिया का सबसे समृद्ध महाद्वीप है प्राकृतिक संसाधनों के मामले में। लेकिन यहाँ की राजनीति में वैश्विक शक्तियों का हस्तक्षेप साफ़ दिखता है। चीन, रूस, अमेरिका और यूरोप सब यहाँ की खनिज संपदा, ऊर्जा और बाज़ारों पर पकड़ बनाने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। कोबाल्ट, लिथियम और दुर्लभ धातुओं की वैश्विक मांग ने अफ्रीका को तकनीकी युद्ध का नया केंद्र बना दिया है। लेकिन स्थानीय जनता गरीबी और असमानता से जूझ रही है, क्योंकि वैश्विक राजनीति केवल संसाधनों को हथियाने तक सीमित है।
साथियों बात अगर हम इस परिपेक्ष में वैश्विक संस्थाएँ और आर्थिक स्वार्थ की करें तो,डब्लूटीओ, आईएमफ, विश्व बैंक जैसी संस्थाएँ सिद्धांत रूप से वैश्विक संतुलन के लिए बनी थीं। लेकिन वास्तविकता यह है कि इन पर पश्चिमी देशों का दबदबा है और उनकी नीतियाँ अक्सर उन्हीं के आर्थिक हितों को साधती हैं। आईएमफ की शर्तों ने कई गरीब देशों को कर्ज़ जाल में फँसाया,डब्लूटीओ के नियम बड़े देशों के हितों के मुताबिक ढाले गए,और विश्व बैंक की परियोजनाएँ अक्सर पर्यावरण और स्थानीय समुदायों की कीमत पर पूरी हुईं। इसी के जवाब में ब्रिक्स,जी-20 और एससीओ जैसी संस्थाएँ उभर रही हैं, जो पश्चिमी वर्चस्व को चुनौती देकर अपने-अपने स्वार्थ पूरे करना चाहती हैं।
साथियों बात अगर हम तकनीकी युद्ध और डेटा की राजनीति की करें तो,आज की दुनिया में तकनीक नया हथियार है। अमेरिका और चीन 5जी, एआई,सेमीकंडक्टर और साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश कर रहे हैं। यूरोप डेटा प्राइवेसी के नाम पर अपने हित साध रहा है।भारत,अफ्रीका और एशिया- प्रशांत देश इस तकनीकी प्रतिस्पर्धा में निवेश आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। “चिप वॉर” ने साफ कर दिया है कि तकनीकी विकास भी अब राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक शक्ति का प्रश्न बन चुका है।
साथियों बात अगर हमजलवायु परिवर्तन की राजनीति की करें तो,जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक सम्मेलन और समझौते अक्सर आदर्शवादी दिखते हैं, लेकिन असलियत आर्थिक स्वार्थ से जुड़ी है। विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देश कार्बन उत्सर्जन कम करें, जबकि खुद उन्होंने दशकों तक प्रदूषण फैलाकर आर्थिक तरक्की हासिल की। हरित ऊर्जा, कार्बन क्रेडिट और क्लाइमेट फंड सब ऐसे उपकरण हैं, जिनका इस्तेमाल शक्तिशाली देश अपने आर्थिक हित साधने के लिए करते हैं। भारत और चीन जैसे देश यह साफ़ कह रहे हैं कि विकास की गति धीमी करना उनके हित में नहीं, जब तक विकसित देश उन्हें तकनीकी और आर्थिक मदद नहीं देंगे।
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि आर्थिक स्वार्थ ही राजनीति का ध्रुवतारा:-दुनियाँ की राजनीति का असली चेहरा अब आर्थिक स्वार्थ है।चाहे अमेरिका की “अमेरिका फर्स्ट” नीति हो,चीन का बेल्ट एंड रोड, रूस की ऊर्जा कूटनीति, यूरोप की दुविधाएँ, भारत की संतुलनकारी रणनीति, या अफ्रीका-मध्यपूर्व पर वैश्विक खींचतान-सब जगह राष्ट्रीय नीतियों का ध्रुवतारा आर्थिक हित ही है। वैश्विक संस्थाएँ और समझौते भी इन्हीं हितों के इर्द-गिर्द घूमते हैं। भविष्य में भी विश्व व्यवस्था इसी सिद्धांत पर आगे बढ़ेगी-जहाँ सहयोग, संघर्ष और गठबंधन सब कुछ आर्थिक लाभ के आधार पर तय होंगे।
*-संकलनकर्ता लेखक – कर विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र *