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मुद्दे की बात : अब ग्लोबल-वॉर्मिंग से निपटने का वक्त

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मानव-जनित समस्या पर गंभाीर चर्चा होगी अजरबैजान में

अगले हफ्ते साल का वह वक्त होगा, जब मानव-जनित ‘ग्लोबल वार्मिंग’ से निपटने की वैश्विक कार्रवाई को बेहतर बनाने के मकसद से दुनिया के तमाम देश जुटेंगे। सब अजरबैजान की राजधानी बाकू में दो-सप्ताह के सालाना जलवायु सम्मेलन के लिए पहुंचेंगे।

यहां गौरतलब है कि द हिंदू ने भी इस मुद्दे पर खास रिपोर्ट प्रकाशित की है। जिसके अनुसार वैश्विक तापमान को पूर्व-औद्योगिक स्तर के 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक रखने की किसी भी संभावना के वास्ते, विभिन्न वैज्ञानिक आकलनों में यह कहा गया है कि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 2025 से पहले चरम पर होना चाहिए। साल 2030 तक इसमें 43 फीसदी की गिरावट होनी चाहिए। हालांकि, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए विभिन्न देशों द्वारा की गई सभी सामूहिक प्रतिबद्धताओं का सारांश निकालने पर 2019 के स्तर की तुलना में 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के वैश्विक उत्सर्जन में महज 2.6 फीसदी की ही कमी आएगी।

यहां बताते चलें कि कोविड-19 महामारी के साल 2020 को अगर छोड़ दें तो वैश्विक उत्सर्जन में हर साल बढ़ोतरी ही हुई है और 2023 में 53 बिलियन मीट्रिक टन का उत्सर्जन हुआ। यह देखते हुए कि ज्यादातर अमीर देश अपनी जीवनशैली पर समझौता करने से कतराते हैं और गरीब व विकासशील देश अमीर बनने की आकांक्षा रखते हैं। लिहाजा एकमात्र व्यावहारिक समाधान यही है कि विकासशील देश सिद्ध जीवाश्म-ईंधन आधारित राह से बचते हुए अमीर बनें। हालांकि ऊर्जा के स्वच्छ लेकिन भूमि-प्रधान और अपेक्षाकृत महंगे नवीकरणीय स्रोतों को अपनाने में जो लागत आती है। वही विवाद की असली जड़ बनी हुई है। वर्ष 2009 में कोपेनहेगन में आयोजित जलवायु शिखर सम्मेलन में विकसित देशों ने इस ऊर्जा संबंधी बदलाव को संभव बनाने के लिए विकासशील देशों को 2020 तक ‘जलवायु वित्त’ के रूप में सालाना 100 बिलियन डॉलर का वित्तपोषण करने पर सहमति व्यक्त की थी। यूं तो संयुक्त राष्ट्र को इस बात की पुष्टि करनी है कि ये वित्तीय लक्ष्य पूरे हुए हैं या नहीं, लेकिन ‘जलवायु वित्त’ की परिभाषा में स्पष्टता की कमी और वित्तीय ऋण प्रणाली में देरी की वजह से विकासशील देशों में इन लक्ष्यों से कोसों दूर रह जाने को लेकर भारी नाराजगी है।

वर्ष 2016 के पेरिस समझौते के हिसाब से यह जरूरी है कि दुनिया के तमाम देश 2025 से पहले 100 बिलियन डॉलर के आधार मूल्य के साथ एक नया सामूहिक मात्रात्मक लक्ष्य (एनसीक्यूजी) तय करें। फिर इसमें विकसित देशों की तरफ से एक नामुनासिब बहाना यह भी है कि चीन और भारत जैसे प्रमुख उत्सर्जक, जो बड़ी अर्थव्यवस्थाएं और प्रमुख प्रदूषक हैं, को भी योगदान देना चाहिए। व्यापक रूप से यह अपेक्षा की जा रही है कि यही एनसीक्यूजी बाकू में चर्चा का एक प्रमुख बिंदु होगा। चर्चा का एक अन्य मुद्दा कार्बन बाज़ार है, जिसे लंबे समय से वित्त की समस्या के समाधान के बतौर देखा जाता रहा है। अमीर देश या कंपनियां विकासशील देशों में अपने समकक्षों को नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन तथा कार्बन उत्सर्जन से निपटने के उपायों के लिए वित्त प्रदान करती हैं और व्यापार योग्य क्रेडिट प्राप्त करती हैं।

हालांकि, इसका हिसाब-किताब करने के नियम तय करना एक जटिल समस्या है। जलवायु वार्ताओं की पहचान यह है कि वे जुबानी कुश्ती के ऐसे कानूनी अखाड़े हैं जहां उत्सर्जन को कम करने का घोषित लक्ष्य पहुंच से और दूर खिसकता हुआ जान पड़ता है। अब वक्त आ गया है कि ठोस कार्रवाई को केंद्र में रखा जाए।

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