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मुद्दे की बात : किसान आंदोलन बनाम हरियाणा विस चुनाव

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किसान आंदोलन के दौरान ही लोकसभा चुनाव में भाजपा को हरियाणा में भी उठाना पड़ा था नुकसान

मौजूदा वक्त एक अहम चर्चा यही है कि हरियाणा-पंजाब के बीच शंभू बॉर्डर पर डटे किसानों के आंदोलन का नतीजा क्या होगा ? दूसरे चरण में इस किसान-आंदोलन का आने वाले हरियाणा के विधानसभा चुनाव पर क्या असर पड़ेगा ? एमएसपी की गारंटी को लेकर पंजाब के किसानों ने इस साल 13 फरवरी से शंभू बॉर्डर के रास्ते दिल्ली कूच का ऐलान किया था। हालांकि हरियाणा सरकार ने पिछले आंदोलन की तर्ज पर किसानों को रोकने के लिए कई लेयर वाली बैरिकेडिंग कर भारी सुरक्षा प्रबंध कर दिए थे। उस दौरान किसानों-पुलिस में हिंसक टकराव भी हुआ। सियासी-नजरिए से किसानों के विरोध और पक्ष को लेकर पंजाब और हरियाणा की सरकारों के बीच भी तेजी से तनाव बढ़ा।

इसी बीच लोकसभा चुनाव हुए और हरियाणा में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को बड़ा सियासी नुकसान उठाना पड़ा। साल 2019 में बीजेपी ने राज्य की सभी 10 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी। जबकि 2024 के लोस चुनाव में भाजपा को महज 5 सीटें ही हासिल हो सकीं। जिसके चलते राज्य में कांग्रेस को सियासी-ऑक्सीजन मिल गई। इसी साल नवंबर महीने की शुरुआत में हरियाणा विधानसभा का कार्यकाल पूरा हो जाएगा। लिहाजा अगले विस चुनाव को लेकर पूर्व सीएम भूपिंदर हुड्‌डा की अगुवाई में कांग्रेसी ताल ठोंकने लगे हैं। जबकि भाजपा नेता और सीएम नायब सिंह सैनी इस राजनीतिक-चुनौती से निपटने के लिए कसरत में जुटे हैं। सियासी-जानकारों की मानें तो लोस चुनाव के नतीजों पर हरियाणा में कहीं ना कहीं किसान आंदोलन का खासा असर रहा। भले ही भाजपा लाख दावे करती रही है कि किसान आंदोलन में सिर्फ पंजाब के ही किसान शामिल रहे, लेकिन हरियाणा के किसानों की भागीदारी कम नहीं थी। अब मुद्दे की बात, पीएम मोदी तक पिछले किसान आंदोलन के दौरान माहौल बिगड़ने के बाद ही बैकफुट पर आए थे। तब उन्होंने तीन कानून वापस लेने का ऐलान किया, लेकिन कहीं ना कहीं केंद्र सरकार ने इमानदारी से अपने वादों पर अमल नहीं किया। तभी तो किसानों को एमएसपी की गारंटी को लेकर फिर मोर्चा संभालना पड़ा। इसी तरह अब आंदोलन के दूसरे चरण हरियाणा सरकार और किसानों के बीच बातचीत बेनतीजा रही। अब हालात और संगीन हो चुके हैं। हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद हरियाणा सरकार ने किसानों को दिल्ली कूच करने देने के लिए बॉर्डर नहीं खोला। इसकी बजाए हरियाणा सरकार ने पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे डाली।

सुप्रीम कोर्ट को भी गत दिवस पंजाब और हरियाणा की सरकारों को कहना पड़ा कि वे एमएसपी सहित अन्य मांगों को लेकर शंभू बॉर्डर पर प्रदर्शन कर रहे किसानों से संपर्क करने के लिए एक स्वतंत्र समिति गठित करने के वास्ते कुछ तटस्थ व्यक्तियों के नाम सुझाएं। न्यायालय ने यह हिदायत भी दी कि किसी को भी स्थिति को बिगाड़ना नहीं है। कोर्ट ने यह भी कहा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों को अपनी शिकायतें व्यक्त करने का अधिकार है। वह सभी पक्षों को शामिल करते हुए बातचीत की एक सहज शुरुआत चाहता है। न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति आर.महादेवन की पीठ ने साफ कहा कि किसी को भी स्थिति को और बिगाड़ना नहीं है। उनकी यानि किसानों भावनाओं को ठेस ना पहुंचाएं। एक राज्य के रूप में आप उन्हें समझाने की कोशिश करें।

अब आंदोलित किसानों का रुख जान लें। आंदोलित किसानों ने एक अगस्त को पंजाब, हरियाणा समेत कई राज्यों में उग्र प्रदर्शन किया। संयुक्त किसान मोर्चा (गैर राजनीतिक) और किसान मजदूर मोर्चा के नेतृत्व में किसानों ने लुधियाना, अमृतसर समेत पंजाब और हरियाणा के जिला मुख्यालयों में केंद्र सरकार और हरियाणा सरकार के खिलाफ पुतला दहन किया। विरोध प्रदर्शन के दौरान शहरों में कई किलोमीटर का पैदल मार्च निकाल। प्रदर्शनों में महिला किसान भी शामिल हुईं। किसानों ने 15 अगस्त को देशव्यापी ट्रैक्टर मार्च का ऐलान किया है। इतना ही नहीं, किसानों ने 22 सितंबर तक के लिए आंदोलन के कार्यक्रम तय कर लिए हैं।

सियासी जानकारों की नजर में इसके बाद ही हरियाणा में पूरी तरह चुनावी माहौल बन जाएगा। ऐसे में किसान आंदोलन की आंच वहां भाजपा सरकार को प्रभावित कर सकती है। जहां तक पंजाब का सवाल है तो अभी यहां विस चुनाव दूर हैं। बाकी लोस चुनाव में किसानों के विरोध का खमियाजा पंजाब में तो सीधेतौर पर बीजेपी ने भुगता ही है। लाख-टके की बात ये है कि अपने हकों की लड़ाई लड़ रहे किसान तो अपने हैं, चाहे वे पंजाब, हरियाणा या यूपी से हों, वे कोई विदेशी तो नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारें बातचीत से ही समस्या का हल निकाल सकता हैं। जबकि जमीनी हकीकत ये है कि किसानों और सरकार के बीच दूसरी बार संवादहीनता के चलते स्थिति नहीं सुधर रही। यहां याद दिला दें कि किसान तो अपने हैं, पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से आतंकवाद के मुद्दे पर रिश्ते बिगड़ने के बावजूद तत्कालीन भाजपा गठबंधन सरकार में पीएम अटल बिहारी बाजपेयी ने बातचीत का रास्ता बंद नहीं किया था।

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