पंजाब में केक खाने से हो गई थी बच्ची की मौत
कर्नाटक की स्थानीय बेकरियों में बन रहे केक में कैंसर पैदा करने वाले तत्व मिले हैं। इस बाबत कर्नाटक सरकार ने राज्य की सभी बेकरियों को चेतावनी जारी की है। जिसमें कहा गया है कि बेकरियां सेफ्टी स्टैंडर्ड का कड़ाई से पालन करें, वर्ना उन पर सख्त एक्शन लिया जाएगा। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक हाल ही में कर्नाटक फूड सेफ्टी और क्वालिटी डिपार्टमेंट ने लोकल बेकरियों में बन रहे 235 केक की सैंपल टेस्टिंग की। इनमें से 12 केक में कार्सिनोजेनिक तत्व मिले हैं। कार्सिनोजेन्स ऐसे तत्व होते हैं, जिनके कारण कैंसर हो सकता है। सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि केक सिर्फ कर्नाटक में नहीं बिक रहे हैं, पूरे देश में हर छोटी-बड़ी बेकरी में बन और बिक रहे हैं। फेस्टिवल-सीजन में यह और गंभीर चिंता का विषय है। दरअसल वैस्टर्न-कल्चर में ढल चुके भारतीय भी बर्थ-डे के अलावा त्यौहारों व हर खुशी के मौके पर अमूमन केक काटने के अलावा तोहफे के तौर पर एक-दूसरे को देते हैं। इसी नजरिए से दैनिक भास्कर की एक खास रिपोर्ट में भी इसे लेकर चिंता जताई गई। यहां बताते चलें कि कुछ महीने पहले पंजाब के पटियाला शहर में अपने बर्थडे पर बेकरी से लाया केक खाने से एक लड़की मौत हो गई थी। कुछ दिन सेहत विभाग ने कांफेक्शनरी आइटम बनाने वालों पर सख्ती बरती, फिर सब कुछ ठंडे बस्ते में चला गया।
चिंता की बात यह है कि हमारे फवेरेट केक-रेड वेलवेट और ब्लैक फॉरेस्ट में कार्सिनोजेन होने का अधिक जोखिम होता है। दरअसल केक को गाढ़ा, चमकदार लाल और चॉकलेटी रंग देने के लिए आर्टिफिशियल कलर्स का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा इनमें फ्लेवर वाले स्वाद के लिए खतरनाक केमिकल्स मिलाए जाते हैं, जो जान के लिए जोखिम बन जाते हैं। कर्नाटक सरकार ने कुछ महीने पहले ही आर्टिफिशियल कलर्स के इस्तेमाल को लेकर कड़ा रुख अपनाया था। फूड सेफ्टी कमिश्नर श्रीनिवास के. ने मार्च में गोभी मंचूरियन, कॉटन कैंडी, कबाब और पानीपुरी की चटनी में आर्टिफिशियल रंगों का इस्तेमाल बैन कर दिया था। उस दौरान भी फूड सेफ्टी डिपार्टमेंट को सैंपल टेस्टिंग में कार्सिनोजेन मिला था। कार्सिनोजेन का सीधा सा मतलब है कि यह कैंसर का कारण बन सकता है। अगर केक में या किसी भी फूड आइटम में कार्सिनोजेन है और हम उसे खा रहे हैं तो यह कैंसर जैसी गंभीर बीमारी को ‘आ बैल मुझे मार’ कहने की तरह है।
एम्स, ऋषिकेश में कैंसर विभाग में डाइटीशियन रहीं डॉ. अनु अग्रवाल के मुताबिक जिस तरह केक में कार्सिनोजेन मिला है, वैसे ही यह तंबाकू में होता है। इन दोनों के बीच फर्क यह है कि इनमें कार्सिनोजेन की मात्रा अलग-अलग होती है। इसे ऐसे समझिए कि अगर तंबाकू के कारण 5 साल में कैंसर डेवलप हो रहा है तो ये केक भी फ्रीक्वेंट तरीके से खाने पर 10 साल में कैंसर डेवलप हो सकता है। हालांकि सभी केक में कार्सिनोजेन नहीं होता है। केक में यह खतरनाक तत्व आर्टिफिशियल कलर्स के कारण मिला है। अभी आर्टिफिशियल कलर्स कार्सिनोजेन की उपस्थिति के कारण चर्चा में हैं। जबकि फूड को अपीलिंग दिखाने के लिए आर्टिफिशियल फूड कलर का इस्तेमाल हर मामले में खतरनाक होता है। इसे फूड-डाई भी कहते हैं। इसके कारण गंभीर एलर्जी, अस्थमा और अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर जैसी स्थितियां बन रही हैं। पहले इंसान अपने भोजन के लिए प्रकृति पर निर्भर थे। पूरे दिन मेहनत करके जंगल, खेत और शिकार से अपना भोजन जुटाते थे। फिर दौर बदला तो इंसान की विलासिता की चाहत बढ़ी तो भोजन जीवन का एक हिस्सा भर रह गया। अब तो लोग अपने भोजन के लिए बाजार पर निर्भर हो गए। इससे बिजनेसमैन को फूड इंडस्ट्री में आने का मौका मिला। उन्होंने खाने को जरूरत से ज्यादा चाहत, फैशन और स्टैंडर्ड में बदल दिया, क्योंकि यह उनके लिए ऊर्जा के स्रोत से ज्यादा प्रोडक्ट है, जिसे ज्यादा-से-ज्यादा बेचकर पैसे कमाने हैं।
कमाई और फायदे के लिए उन्होंने तरह-तरह के फ्लेवर और आर्टिफिशियल रंगों का इस्तेमाल किया। यह सब कुछ खतरनाक केमिकल्स से बनता है। इसके कारण हमारे शरीर को गंभीर नुकसान हो रहे हैं। छोटे बच्चों को अस्थमा, कैंसर या किडनी डिजीज जैसी समस्याएं होती हैं तो लोग सवाल करते हैं कि बच्चे तो किसी नशे का सेवन नहीं करते हैं, फिर वे इन गंभीर बीमारियों का शिकार क्यों बन रहे हैं। ऐसे सभी सवालों का जवाब ये है कि आम लोग इस बात से बेखबर हैं कि पैकेट में बंद अच्छे फ्लेवर वाले पाउडर्स और ड्रिंक्स पिलाने से बच्चों को कोई लाभ होने की बजाए नुकसान हो रहा है। लोग टीवी, अखबार में विज्ञापन देखकर, पड़ोसियों और रिश्तेदारों को देखकर अपने बच्चों के लिए भी पैकेज्ड फूड आइटम्स ला रहे हैं।
इन सबमें ढेर सारा आर्टिफिशियल फ्लेवर, आर्टिफिशियल कलर और आर्टिफिशियल शुगर मिला होता है। डॉ. अनु अग्रवाल के मुताबिक बच्चों की पसंद की ज्यादातर चीजें जैसे आइसक्रीम, कैंडी और केक आर्टिफिशियल कलर्स और फ्लेवर्स से बनी हैं। चूंकि छोटे बच्चों के इंटर्नल ऑर्गन्स बेहद नाजुक होते हैं, इसलिए ये खतरनाक केमिकल्स बच्चों के शरीर में जाकर अधिक जोखिम पैदा करते हैं। बच्चों के टेस्ट बड कैसे डेवलप होंगे, ये पूरी तरह से उनके अभिभावकों के हाथ में होता है। अगर बच्चों के टेस्ट बड शुरू से फल, सब्जियों, दालों और अनाज के लिए विकसित होंगे तो वे पैकेज्ड फूड्स की जिद नहीं करेंगे। जब तक बच्चों के खाने की कमान पेरेंट्स के हाथ में है, उन्हें कोशिश करनी चाहिए कि उनका खाना घर पर ही पकाया गया हो। अगर बच्चों को मीठे का स्वाद चाहिए तो कोशिश करें कि यह उन्हें किसी प्राकृतिक सोर्स से मिले। यह कोई फल या गन्ना हो सकता है।
इस प्रेक्टिस से बच्चे शुरुआती नाजुक उम्र में किसी भी तरह के केमिकल से दूर रहेंगे। यह उनके स्वास्थ्य और भविष्य के लिए अच्छा है। फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया की गाइडलाइंस के मुताबिक पैकेज्ड फूड्स के रैपर में आर्टिफिशियल कलर्स के इस्तेमाल की जानकारी देनी होती है। अगर इसमें फूड डाई का प्रयोग हुआ है तो रैपर पर लिखना होता है। जब स्थानीय स्तर पर आर्टिफिशियल रंग इस्तेमाल होते हैं तो इनकी पैकिंग में इस तरह की गाइडलाइंस फॉलो नहीं की जाती हैं। इसलिए इसकी पहचान करना मुश्किल है। इसका बेहतर रास्ता यही है कि खाने की ज्यादातर चीजों के लिए प्राकृतिक स्रोतों पर ही निर्भर रहें।
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