मुद्दे की बात : इजराइल को ईरान पर हमला कर क्या मिला ?

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एक्सपर्ट की राय, ईरान की ताकत नहीं आंक सका इजराइल सीजफायर को राजी हुआ !

इजराइल और ईरान के बीच 12 दिनों की जंग अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के युद्धविराम की घोषणा के साथ ख़त्म हुई। ईरान के साथ इस जंग की तुलना 1967 में इजराइल की तीन देशों के साथ छह दिनों की जंग से हो रही है।

अब मीडिया में इसे लेकर रिपोर्ट सामने आ रही है। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक इजराइली अखबार यरूशलम पोस्ट में रक्षा और ख़ुफ़िया विश्लेषक योनाह जर्मी बॉब ने एक लेख लिखा। जिसमें उन्होंने जिक्र किया कि इजराइल 1948 में बना, लेकिन 1967 में छह दिनों के युद्ध से मध्य पूर्व का नक़्शा बदलने से उसकी एक नई पहचान बनी। उसने छह दिनों की जंग में तीन देशों मिस्र, सीरिया और जॉर्डन को मात दी थी। जंग से पहले लोगों को लगता था कि ये तीन देश इजराइल का नामोनिशान मिटा देंगे। इजराइल और ईरान में कभी बराबरी नहीं थी। इसके बावजूद ईरान ने साबित किया कि उसके पास संसाधन, सब्र और प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ने की क्षमता है। ईरान तो इजराइल से 1,500 किमी दूर है, लेकिन वह सात मोर्चों पर उसे घेरने में कामयाब रहा। हालांकि इजराइली के पीएम बिन्यामिन नेतन्याहू ने दावा किया कि 12 दिनों की जंग में वह अपना लक्ष्य हासिल करने में कामयाब रहे।

हालांकि यही सवाल उठ रहे हैं कि इजराइल को 12 दिनों की जंग से क्या हासिल हुआ ? वहीं युद्धविराम की घोषणा के बाद ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली ख़ामेनेई के एक्स अकाउंट पर एक पोस्ट में कहा गया, जो ईरान के लोगों और उसके इतिहास को जानते हैं, उन्हें पता है कि ईरान वैसा राष्ट्र नहीं है, जो सरेंडर कर दे। देपुर्तगाल की यूनिवर्सिटी ऑफ मिन्हो में मोहम्मद इस्लामी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के प्रोफ़ेसर हैं । उन्होंने कहा, ईरान के परमाणु कार्यक्रम को इन 12 दिनों में गहरा झटका लगा, इस पर कोई सवाल नहीं है। नुक़सान के बावजूद ईरान का मिसाइल प्रोग्राम अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहा। ईरानी मिसाइलें इजराइल और उसके सहयोगियों के एयर डिफ़ेंस सिस्टम को भेदने में कामयाब रहीं। इस जंग में इजराइल के साथ अमेरिका था और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर दूसरे पश्चिमी देशों का भी साथ था तो दूसरी तरफ़ ईरान अकेला था।

ट्रंप ने ग़ज़ा में युद्ध-विराम कराने से इंकार कर दिया था। ईरान की बैलिस्टिक मिसाइल क्षमता अब भी बनी हुई है। अगर इजराइल तख़्तापलट कर देता तो कह सकते थे कि उसे 1967 जैसी ही कामयाबी मिली। ईरान की भी अपनी क्षमताएं हैं। उसकी 10 प्रतिशत मिसाइलें इजराइल के एयर डिफेंस सिस्टम को भेदने में कामयाब रही, यह अपने आप में बड़ी बात है। ईरान इस युद्ध को महीनों चला सकता था, उसने पलटवार की दक्षता दिखाई। इजराइल को समझ में आ गया था कि ईरान इस जंग को महीनों तक खींच सकता है, इसलिए नेतन्याहू युद्धविराम के लिए राज़ी हो गए। ईरान इस युद्ध से सबक लेगा, क्योंकि उसे अपनी कमज़ोरी और इजराइल की मज़बूती का अहसास हो गया है। ईरान में तख़्तापलट इजराइल चाहता है, ना कि अमेरिका। अमेरिका ने तीन देशों में तख़्तापलट किया और उसे कुछ हासिल नहीं हुआ। वो चाहे अफ़ग़ानिस्तान हो या इराक़ या फिर लीबिया। ईरान बड़ा देश है।

मध्य-पूर्व की जियोपॉलिटिक्स पर गहरी नज़र रखने वालीं मंजरी सिंह कहती हैं कि इजराइल ने ईरान पर हमला अचानक नहीं बल्कि पूरी तैयारी के साथ किया। इजराइली एक्सपर्ट भी मानते हैं कि ईरान को इजराइल हल्के में नहीं ले सकता है। ये नहीं कह सकते कि इजराइल ने पूरी तरह से मक़सद हासिल कर लिया। सऊदी अरब में भारत के राजदूत रहे तलमीज़ अहमद कहते हैं कि इजराइल का पहला लक्ष्य ईरान के परमाणु कार्यक्रम को पूरी तरह से नष्ट करना था, लेकिन इस लक्ष्य में वह पूरी तरह से कामयाब नहीं रहा। ईरान का परमाणु कार्यक्रम भले अब स्लो हो गया, लेकिन नष्ट नहीं हुआ। इजराइल को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि ईरान की तरफ़ से इतना कामयाब हमला हो पाएगा। ऐसे में 12वां दिन आते-आते इजराइल को भी लगने लगा कि सीज़फायर हो जाए तो ज़्यादा अच्छा है। सूत्रों के मुताबिक ईरान का समृद्ध यूरेनियम भंडार तबाह नहीं हुआ।

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