छिड़ी बहस, मैग्सेसे पुरस्कार विजेता सोनम वांगचुक की मांग लोकतांत्रिक या नहीं ?
जलवायु कार्यकर्ता और रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता सोनम वांगचुक की राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ़्तारी बड़ी बहस का विषय बन गई है। इसने लद्दाख में चल रहे राजनीतिक आंदोलन को भी अब एक नए मोड़ पर पहुंचा दिया है।
दरअसल उनकी गिरफ़्तारी लेह में हिंसक विरोध प्रदर्शनों के दो दिन बाद हुई। जिसमें कम से कम चार लोगों की मौत और तमाम घायल हुए थे। वांगचुक और लेह एपेक्स बॉडी द्वारा लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने और राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर 35 दिन का अनशन शुरू किया गया था। उनका दावा है कि यह आंदोलन शांतिपूर्ण था और केंद्र सरकार द्वारा बातचीत से पीछे हटने के बाद ही यह असंतोष जन-आक्रोश में बदला। हालांकि, लद्दाख प्रशासन ने वांगचुक पर आरोप लगाया कि उनके भड़काऊ भाषणों और भ्रामक वीडियो के कारण ही हिंसा भड़की। जिसमें सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचा और पुलिस बल पर हमले हुए।
प्रशासन के अनुसार, यह कार्रवाई राज्य की सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने की दृष्टि से की गई। वांगचुक ने इन आरोपों को खारिज करते हुए इसे विच हंट कहा और दावा किया कि सरकार ने आंदोलन को बातचीत के बजाए दबाव और दमन से हल करने की कोशिश की। उनका तर्क है कि युवा वर्ग में हताशा गहराती जा रही है। ऐसे में ज़रूरत राजनीतिक सूझबूझ की है, ना कि सख्ती की जाए। लेह में इंटरनेट सेवाएं बंद की गईं और स्थानीय नेताओं को वांगचुक की हिरासत की जानकारी तक नहीं दी गई। यह दर्शाता है कि संवाद की जगह अब संवेदनशीलता और पारदर्शिता की कमी ले चुकी है।
यह घटना केवल लद्दाख की क्षेत्रीय राजनीति तक सीमित नहीं है। यह भारत के संघीय ढांचे, जन-संवेदनाओं और लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाती है। क्या शांतिपूर्ण विरोध और संविधानिक अधिकारों की मांग अब राज्य विरोधी गतिविधियां मानी जाएंगी ? सरकार का यह भी दावा है कि उन्होंने उच्चाधिकार प्राप्त समिति के माध्यम से संवाद का प्रस्ताव रखा था, जिसे प्रदर्शनकारियों ने ठुकरा दिया। वहीं, वांगचुक का आरोप है कि मुख्य मुद्दों पर चर्चा के पहले ही सरकार बातचीत से पीछे हट गई। इस घटना की पृष्ठभूमि में, यह स्पष्ट होता जा रहा है कि लद्दाख में राजनीतिक आत्मनिर्णय की मांग सिर्फ एक नारा नहीं, बल्कि एक गहरी सामाजिक और सांस्कृतिक जरूरत बन चुकी है। यह आंदोलन ना केवल प्रशासनिक पहचान की मांग कर रहा है, बल्कि क्षेत्र की जलवायु, संस्कृति और जीवनशैली की रक्षा की भी कोशिश कर रहा है। सरकार और आंदोलनकारी दोनों के लिए यह समय है, अहंकार छोड़कर समझदारी से आगे बढ़ने का।
एक तरफ जहां हिंसा को किसी भी रूप में उचित नहीं ठहराया जा सकता, वहीं दूसरी ओर, लोकतांत्रिक आवाज़ों को कुचलना भी देश के संविधान और मूलभूत मूल्यों के विपरीत है। लद्दाख के भविष्य को लेकर यह एक निर्णायक मोड़ है। सवाल यह नहीं है कि किसकी बात मानी जाएगी, बल्कि यह है कि क्या बात की जाएगी या नहीं।
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