मुद्दे की बात : अफगानिस्तानी विदेश मंत्री मुत्तकी का भारत आना दोनों देशों के लिए कितना फ़ायदेमंद ?

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एक्सपर्ट की मिली जुली प्रतिक्रिया, हालांकि मुत्तकी भारत आते हैं तो अमेरिका, चीन और रुस होंगे चौकन्ने

एक्सपोर्टरों को होगा नुकसानअफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर ख़ान मुत्तकी यात्रा प्रतिबंधों से छूट मिलने के बाद अगले हफ़्ते भारत दौरा करने वाले हैं। अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ क्षेत्रीय हालात के मद्देनज़र इस दौरे को अहम बता रहे हैं।

भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने मुत्तकी को दी छूट की पुष्टि की, लेकिन यह नहीं बताया कि तालिबानी नेता भारत आएंगे या नहीं। हालांकि तालिबान विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी ने पुष्टि की कि मुत्तकी भारत आएंगे, लेकिन उन्होंने अधिक जानकारी देने से इंकार कर दिया। अफ़ग़ान तालिबान नेता यात्रा प्रतिबंधों के कारण संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से छूट हासिल करने के बाद ही किसी अन्य देश की यात्रा कर सकते हैं। अगस्त, 2021 में तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करने के बाद से यह तालिबानी सरकार के किसी मंत्री की पहली आधिकारिक भारत यात्रा होगी। भारत ने अभी तक तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी, लेकिन हाल में ही संपर्क तेज हुए हैं।

मई 2025 में कश्मीर के पहलगाम में आतंकी हमले के बाद भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने तालिबान सरकार के विदेश मंत्री से फोन पर बात की थी। अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि मुत्तकी का ये दौरा भारत और अफ़ग़ानिस्तान दोनों के लिए एक अहम होगा। इससे दशकों पुरानी भारत और तालिबान की दुश्मनी समाप्त होने की उम्मीद जगेगी। भारत अफ़ग़ान तालिबान के विरोधी समूहों का समर्थन करता रहा है। इनमें वे समूह भी शामिल हैं, जिन्होंने 2021 तक अफ़ग़ान सरकार का नेतृत्व किया था।

जबकि तालिबान को भारत के प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान का एक हथियार माना जाता था। मुत्तकी की भारत यात्रा ऐसे समय में हो रही है, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने काबुल के पास बगराम एयर बेस को वापस लेने की घोषणा की है। इस समय मुत्तकी का आना इसलिए अहम है, क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में चीन का प्रभाव बढ़ रहा है। रूस ने भी तालिबान के साथ राजनयिक संबंध बढ़ाए हैं। पाकिस्तानी सरकारों के साथ तालिबान के नज़दीक़ी रिश्तों के चलते भारत हमेशा सतर्क रहा है।

मुत्तकी का दौरा ऐसे समय में हो रहा है, जब अफ़ग़ान मोर्चे पर बहुत कुछ हो रहा है। 2010 से यह साफ़ हो गया था कि अफ़ग़ान तालिबान अफ़ग़ानिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य पर फिर से उभर रहा है। उस समय दुनिया भर के विभिन्न देशों ने तालिबान से संपर्क शुरू कर दिया था, लेकिन भारत ने देरी की। भारत पहले तालिबान से दूरी बनाए रखता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। हालांकि तालिबान के काबुल पहुंचने के बाद भारत ने अपने राजनयिक कर्मचारियों को वापस बुलाया और सीधा संपर्क स्थगित कर दिया, लेकिन जल्द ही उसने अपनी रणनीति बदल दी। भारत को अहसास हो गया था कि तालिबान से पूरी तरह दूरी बनाना संभव नहीं है। भारत को यह एहसास हो गया है कि तालिबान से पूरी दूरी बनाए रखने की नीति व्यावहारिक नहीं है। तालिबान सरकार को मान्यता दिए बिना उसे मदद मुहैया करना और साझेदारी के बगैर वहां मौजूद रहना तालिबान के प्रति भारत की नीति में संतुलन को दर्शाता है। जब दोनों पक्षों के बीच कुछ विश्वास बहाल हुआ तो तालिबान ने 2022 में अपने एक राजनयिक को दिल्ली भेजा था। हालांकि भारत ने अभी तक उसे अफ़गान दूतावास का कार्यभार संभालने की अनुमति नहीं दी है।

फिर 2024 में ऐसी खबरें आईं कि एक तालिबान राजनयिक ने मुंबई वाणिज्य दूतावास का प्रभार संभाल लिया है। हालांकि दोनों ओर से कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया गया।

2022 में भारत ने काबुल में अपना दूतावास सीमित आधार पर फिर से खोला और 2025 में विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने दुबई में मुत्तक़ी से मुलाकात की। अंततः मई, 2025 में पहलगाम हमले के बाद दोनों विदेश मंत्रियों ने फ़ोन पर बात की। जयशंकर और मुत्तक़ी के बीच इस बातचीत के बाद दोनों देशों की ओर से जारी किए बयानों में उनकी राष्ट्रीय प्राथमिकताएं दिखीं। भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा की बात की, क्योंकि वह चाहता है कि अफ़ग़ानिस्तान फिर से भारत विरोधी चरमपंथी समूहों के लिए पनाहगाह ना बने। जबकि अफ़ग़ानिस्तान ने वीजा और व्यापार का उल्लेख किया, क्योंकि वो अंतर्राष्ट्रीय मान्यता और निवेश चाहता है। कुल मिलाकर तालिबान सरकार के साथ चीन और रूस के घनिष्ठ संबंधों के बावजूद तालिबान नेता संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंधों के कारण बिना अनुमति के अंतर्राष्ट्रीय यात्रा नहीं कर सकते हैं। इसलिए वैश्विक स्तर पर उनके लिए अवसर सीमित हैं।

वैसे अफ़ग़ानिस्तान में भारत के कई हित हैं, जिन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। ख़ासकर तब जब तालिबान विरोधी गुट बिखरे हुए हैं और उन्हें वैश्विक ताक़तों का समर्थन नहीं मिल रहा।

भारत, अफ़ग़ानिस्तान में अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए तालिबान सरकार के साथ नजदीकी बढ़ा रहा है। इसके साथ ही वो अपने पूर्व अफ़ग़ान सहयोगियों को भी अलग-थलग कर रहा है। भारत को अफ़ग़ानिस्तान में मानवाधिकार की स्थिति पर आपत्ति है, लेकिन इसके बावजूद वह तालिबान को नजरअंदाज नहीं कर सकता। तालिबान के साथ भारत की क्षेत्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दे शामिल हैं। इसमें पाकिस्तान की खुफ़िया एजेंसियों की ओर से तालिबान और अन्य सशस्त्र समूहों को प्रॉक्सी के रूप में इस्तेमाल करने की चिंता भी शामिल है। हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि तालिबान के साथ भारत की नज़दीकी के कुछ स्पष्ट नकारात्मक पहलू भी हैं। मसलन, इससे अफ़ग़ान नागरिकों के बीच यह धारणा मज़बूत होगी कि पाकिस्तान और भारत, दोनों ही अफ़ग़ानिस्तान को युद्ध के मैदान के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। चाहे यह सच हो या नहीं धारणाएं किसी देश की सार्वजनिक छवि को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यह हमारे लिए बिल्कुल भी स्वागत योग्य नहीं है।

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