मुद्दे की बात : भारत की विदेश नीति को लेकर पसोपेश वाले हालात

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खासकर अमेरिका के टैरिफ और चीन से भारत के रिश्तों को लेकर माहिरों की मिली-जुली राय

अमेरिका के वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने गत दिनों अहम बयान दिया था। उनके मुताबिक राष्ट्रपति पुतिन और ट्रंप के बीच अलास्का में बातचीत नाकाम रही तो भारत पर 25 फ़ीसदी का अतिरिक्त टैरिफ़ और बढ़ सकता है।
इसे लेकर विदेश नीति के माहिरों और नामी मीडिया हाउस ने प्रतिक्रिया जताईं। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक एक्स पर रीपोस्ट करते हुए अर्थशास्त्र पर गहरी नज़र रखने वाले फ्रांस के अरनॉड बरट्रैंड ने लिखा, यह स्पष्ट रूप से भारत की मल्टी-अलाइनमेंट डिप्लोमैटिक रणनीति की नाकामी है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत ने ख़ुद को ऐसा बना लिया कि जिसे लोग बिना किसी जोखिम के आसानी से चोट दे रहे हैं। चीन से पंगा लिए बिना जब ट्रंप को प्रतिबंधों के ज़रिए कड़ा संदेश देना होता है तो वह भारत को धमकाते हैं। बेशक भारत थोड़ी अहमियत रखता है, लेकिन इतना ताक़तवर नहीं है कि प्रभावी पलटवार कर सके। जब आप हर किसी के दोस्त बनने की कोशिश करते हैं तो आप हर किसी के लिए प्रेशर वॉल्व बन जाते हैं। ख़ास कर तब, जब आप अपना रुख़ मनवाने की क्षमता नहीं रखते हैं। मल्टी-अलाइनमेंट का मतलब है कि भारत सभी गुटों के साथ रहेगा। इसे नेहरू के नॉन अलाइनमेंट यानि गुटनिरेपेक्ष से अलग माना जाता है। हालांकि कई माहिर मानते हैं कि बस शब्द का फ़र्क़ है। जब आप सबके साथ होने का दावा करते हैं तो किसी के साथ नहीं होते हैं। हालांकि अरनॉड की भाषा छह दिन बाद भारत को लेकर बदली दिखी। जब पीएम मोदी ने चीनी विदेश मंत्री वांग यी से मुलाक़ात की तस्वीर पोस्ट की थी। इसे रीपोस्ट करते उन्होंने लिखा, भारत के बारे में आप चाहे जो कुछ भी कह सकते हैं, लेकिन मोदी में वो राजनीतिक साहस है, जो यूरोप में नहीं है। आप कल्पना कीजिए कि अगर यूरोप ने यही काम रूस के साथ किया होता तो ट्रंप को इतना मौक़ा नहीं मिलता। अरनॉड के इस बदले रुख़ पर अंग्रेज़ी अख़बार ‘द हिन्दू’ के अंतर्राष्ट्रीय संपादक स्टैनली जॉनी ने लिखा, देश लंबी अवधि के लिए सोचते हैं और विश्लेषक छोटी अवधि के लिए।
फ्रांस में भारत के राजदूत रहे जावेद अशरफ़ कहते हैं, मैं ऐसा नहीं मानता हूं। नरेंद्र मोदी एससीओ समिट में जा रहे हैं तो इसका मतलब ये नहीं है कि अमेरिका के ख़िलाफ़ जा रहे हैं। ट्रंप के आने से पहले से ही चीन से संबंधों में सुधार की कोशिश शुरू हो गई थी। अमेरिका के साथ भी संबंध ट्रेड के स्तर पर ख़राब है, बाक़ी संबंध तो वैसे ही हैं। भारत और अमेरिका में कोई समझौता ना होने का कारण यह भी है कि भारत ने अपने हितों से समझौता नहीं किया।
थिंक टैंक ब्रूकिंग्स इंस्टिट्यूशन की सीनियर फेलो तन्वी मदान मानती हैं कि भले ट्रंप के रुख़ से मोदी के चीन दौरे को जोड़ा जा सकता है, लेकिन चीन से संबंध सुधाने की यह प्रक्रिया कोई अचानक नहीं शुरू हुई। शंघाई के फ़ुदान यूनिवर्सिटी में दक्षिण एशिया से चीन के संबंधों के एक्सपर्ट लिन मिनवांग ने न्यूयॉर्क टाइम्स से कहा, अगर भारत चीन से संबंधों को सुधारना चाहता है तो चीन इसका स्वागत करेगा, हालांकि भारत को कोई छूट नहीं मिलेगी। चीन अपने हितों से समझौता नहीं करेगा और न ही पाकिस्तान को समर्थन देना बंद करेगा। अमेरिका ने भारत के ख़िलाफ़ 50 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाया है। अगर 27 अगस्त से भारत के ख़िलाफ़ ये 50 फ़ीसदी टैरिफ़ लागू हो जाता है तो अमेरिका से व्यापार करना मुश्किल हो जाएगा। पिछले चार सालों से अमेरिका भारत का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है। ऐसे में भारत पर दबाव है कि वह या तो अमेरिका के साथ संबंध सुधारे या फिर नए बाज़ार की तलाश करे।
ब्लूमबर्ग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, भारत अगर डिप्लोमैसी के बदले अमेरिका के सामने झुकने से इंकार करना चुनता है तो उसे अपना सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर और दुनिया का सबसे बड़ा कंज्यूमर मार्केट खोना पड़ सकता है। चीन के साथ भाईचारा बढ़ाना या देश में आर्थिक सुधार जैसे क़दम अच्छे हैं, लेकिन इससे अमेरिका की जगह की भरपाई नहीं हो पाएगी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तियानजिन में 31 अगस्त से एक सितंबर तक आयोजित एससीओ समिट में शामिल होने चीन जा रहे हैं। मोदी सात साल बाद चीन जा रहे हैं, उनका यह दौरा तब हो रहा है, जब पूर्वी लद्दाख में पहले की यथास्थिति बहाल नहीं हो पाई है। कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ इंडो-पैसिफिक स्टडीज’ के संस्थापक प्रोफ़ेसर चिंतामणि महापात्रा ऐसा नहीं मानते हैं कि अमेरिका से ब्रेकअप होने कारण भारत चीन को प्रेम प्रस्ताव भेज रहा है। ट्रंप ने कुछ फ़ैसले लिए हैं, जिनका असर केवल भारत पर ही नहीं दुनिया भर में है।

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