मुद्दे की बात : धनखड़ का उप-राष्ट्रपति पद से इस्तीफा सियासी-दबाव में !

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चर्चाएं, विपक्ष का धनखड़ ने किया समर्थन, केंद्र को गुजरा नागवार

भारत में उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के अचानक इस्तीफे देने की चर्चा देश-दुनिया में हो रही है। इस्तीफे से एक दिन पहले, लुटियंस दिल्ली स्थित उनके आधिकारिक आवास- आलीशान उप-राष्ट्रपति एन्क्लेव में आशा माहौल था।

उनकी पत्नी सुदेश धनखड़ 69 वर्ष की हो चुकी हैं। लिहाजा वह उप-राष्ट्रपति और राज्यसभा सचिवालय के कर्मचारियों के लिए भोजन का आयोजन कर रही थीं। अगले कुछ घंटों में ही यह खुशी तनाव में बदल गई। 21 जुलाई की रात धनखड़ ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया, जिससे राजनीतिक-जगत और मीडिया, दोनों ही हैरान रह गए। केवल एक ही पार्टी इससे अचंभित नहीं हुई, सत्तारूढ़ भाजपा। उसके नेता शांत और नियंत्रण में दिखे, मानो यह चौंकाने वाला इस्तीफा पार्टी की राजनीतिक चालों का एक अपेक्षित परिणाम था। जिससे चर्चाओं को बल मिला कि उप-राष्ट्रपति को पद छोड़ने के लिए मजबूर किया गया। नकदी बरामदगी विवाद में फंसे न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा को हटाने के विपक्ष समर्थित प्रस्ताव को राज्यसभा में स्वीकार करने के बाद उनका ‘जाना’ तय लग रहा था।

उच्च न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर सवाल उठाने में विपक्ष को आगे आने देने के मूड में नजर नहीं आ रही सरकार, इस मुद्दे पर अपने द्विदलीय प्रस्ताव को लोकसभा में पेश करने की उम्मीद कर रही थी। तभी धनखड़ ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि उनका पद पर बने रहना असंभव हो गया। भाजपा सांसदों द्वारा एक अनाम प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने की ज़ोरदार चर्चा थी, जिसे कुछ लोगों ने उप-राष्ट्रपति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के रूप में माना। जिन्हें पिछले दिसंबर में विपक्ष की ओर से इसी तरह के प्रस्ताव का सामना करना पड़ा था।

अफवाह यह है कि यह बहुत पहले से ही आना था। पीछे मुड़कर देखें तो, सरकार और धनखड़ के संबंधों में धीरे-धीरे आ रही खटास का सबसे बड़ा झटका अप्रैल में लगा था। जब पूर्व उप-राष्ट्रपति को अपने अमेरिकी समकक्ष जेडी वेंस से मिलने का मौका नहीं मिला। वीपी एन्क्लेव में मुलाकातें और धनखड़ की विदेश यात्राएं लंबे समय से कम कर दी गई थीं। सूत्रों के मुताबिक उप-राष्ट्रपति प्रोटोकॉल को लेकर बेहद सख्त थे और उन्होंने इसे जगजाहिर भी किया था। मई में उन्होंने सार्वजनिक रूप से खुद को प्रोटोकॉल की चूक का शिकार बताया था, जिससे सरकार नाराज़ हो गई थी। हाल ही में हिमाचल की अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने सार्वजनिक रूप से कार्यक्रम स्थल की दीवारों पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीरों की मौजूदगी और अपनी तस्वीरों की अनुपस्थिति पर चिंता जताई थी।

उच्च न्यायपालिका के खिलाफ उनके कई सार्वजनिक बयानों ने मामले को और बदतर बना दिया और इसे एक उच्च पदस्थ पद के अधिकार क्षेत्र का स्पष्ट उल्लंघन माना गया। सूत्रों के मुताबिक उन्हें अपने बयानों के बारे में चेतावनी दी गई थी, लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया। धनखड़ के कथित एकतरफा तरीकों को लेकर अविश्वास, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग से लेकर एक राष्ट्र एक चुनाव और अन्य कई सरकारी पदों के लिए उनके मज़बूत और खुले समर्थन से कहीं ज़्यादा था। आसानी से खेमा बदलने वाले व्यक्ति के रूप में उनका अतीत भी असरदार रहा।

यहां गौरतलब है कि मूल रूप से दिवंगत उप-प्रधानमंत्री देवीलाल के अनुयायी धनखड़ ने 1989 में जनता दल के टिकट पर झुंझुनू लोकसभा सीट जीती थी। उन्होंने वीपी सिंह सरकार गिरने के बाद चंद्रशेखर का समर्थन किया। फिर वे कांग्रेस में शामिल हो गए और 2003 में भाजपा में शामिल हुए। हालांकि, 2019 तक सुप्रीम कोर्ट के वकील को राजनीतिक प्रमुखता वर्षों तक नहीं मिली, जब उन्हें पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनाकर भेजा गया। जहां उनकी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से अक्सर बहस होती रही। धनखड़ के राज्यपाल बनने को भाजपा की मातृ-संगठन आरएसएस के समर्थन का नतीजा माना गया था। सूत्र तो देश के दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद पर धनखड़ के उत्थान को संघ के समर्थन से जोड़ते हैं। राज्यसभा में धनखड़, आरएसएस की तारीफ भी कर चुके हैं। उन्होंने विपक्ष को नाराज़ करते हुए कहा था, आरएसएस की साख बेदाग है। जो भी हो, धनखड़ का जाना इस मामले में शामिल सभी लोगों के लिए सबक है। भाजपा अब किसी बाहरी व्यक्ति को सत्ता का पद सौंपने से पहले दो बार सोचेगी।

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