हँसिए हँसाइए
डॉ. गुलाबचन्द कोटडिय़ा आजकल हँसना और हँसाना भी जीवन की एक प्रमुख कला मानी जाने लगी है। खिलखिलाकर ठहाका लगाकर कितने लोग हँस पाते हैं या एक व्यक्ति जीवन में कितनी बार ठहाका मार कर हंसा है? बैठे ठाले कोई नहीं हँसता। किसी दृश्य को देखकर, कवि सम्मेलनों में कवियों की चकल्लस सुनकर या सभा … Read more