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कहानी : बच्चे सड़क के 

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धर्मपाल

बच्चे तो बच्चे ही होते हैं घर के हों या सड़क के। बचपन की तरंगें उनके मानस पर छाई रहती हैं। सपने, लाड़-प्यार-खेलने की प्रबल इ’छा। हां… भिन्न-भिन्न परिवेश में उनके मन की अभिव्यक्ति बदल जाती है।

उधर  ठिकाना है। उपेक्षित मैदान में आपको काफी कदम चलने होंगे। प्रकाश की आड़ी-तिरछी रेखाओं को पार करना होगा। आपको दिखाई देगी एक झोपड़ी। मात्र एक आश्रय-रात गुजारने का एक सिलसिला। एक दबी हंसी सुनाई देती है- एक समूह की हंसी।

रघु की आंखों में तनाव है, सूजन है। वह थोड़ी कड़वाहट में बोलता है- ‘राकेश, मोहन, सोहन-रात का ठिकाना तो है- पर सारा दिन सड़क पर गुजरता है। सोहन- यह तेरे पास क्या रखा है?’

सोहन गर्व से पोलीथीन सबके सामने रखता है- यह थाली है।

क्या बोला- थाली? थाली ऐसी होती है?

क्या? कहां से मिली?

‘मंदिर से?’

‘तेरे सामने झूठ नहीं बक रहा हूं, रघु?’

‘मंदिर से ऐसी थाली भी मिलती है।‘

‘इसमें खाने को क्या है? जरा टटोल कर देख-‘

‘खाने को नहीं, पीने को- उस्ताद मजा आ गया।‘

सोहन थाली का द्रव्य गिलास में उड़ेलता है। सूंघता है।

आज तो जन्नत हो गई। यह तो शराब है।

मोहन यकायक बड़बड़ाता है- ‘इधर कोई खाकी-वर्दी वाला आ गया तो?’

इस वक्त कौन आयेगा? रात बहुत काली है।

रघु नशे में बड़बड़ाता है- ‘वह तो मेरी मां ही कुतिया थी। मेरी सौतेली मां। मेरे को खदेड़ दिया…।‘

रघु उस्ताद… क्यों प्रसाद का मजा किरकरा करता है?

‘सब भूल जा…।‘

‘कैसे भूल जाऊं? शराब की दुकान वाले ने आसरा दे दिया… नहीं तो ठिठुरती रात में मर जाता।‘

 

‘दुकानदार दयावान था। तेरे को पनाह दे दी।‘

‘हम सबकी कहानी खतरनाक है। घर के बच्चे और सड़क के बच्चे में फर्क होता है।‘ मोहन ने सिसकी शुरू कर दी थी। मत… रो… मेरे बच्चे । इधर न मां है न बाप है। कोई नहीं चुप करायेगा… समझे?

 

‘राकेश का हमारा साथ दो साल का था। फिर हमें छोड़ गया था। इसी जगह से राकेश की लाश उठी थी। क्या बोलते हैं पोस्ट- हां-चीर-फाड़ के लिए।

 

‘यह अखबार वाले बहुत बेरहम हैं। मरने के बाद राकेश का फोटो छापा था- एक लावारिस बच्चे की मौत।‘

 

अचानक रघु ने हथेली पर तीन गोलियां टेक दी हैं- ‘उस्ताद… नशा टूटना नहीं चाहिये सारा मजा काफूर हो जायेगा।‘

 

अचानक झोपड़ी के पास चीख सुनाई दी थी। तीनों चेहरे भयभीत कबूतरों की तरह फडफ़ड़ा गये थे। चीख ने उपेक्षित स्थान के शून्य में कंपन पैदा कर दी थी।

 

‘कौन हो सकता है?’

 

मोहन बोला- ‘लगता है कोई लड़की पीट रहा है। उठ-उठ हिम्मत कर’

 

लड़की की आवाज गर्म हवा की तरह रुख पकड़ रही थी- ‘सरम लूटेगा? मेरे को बेटी की तरह पाला है।‘

 

एक विकृत छाया के होंठ हिले थे- ‘तब तू छोटी थी। अब तू सयानी हो गई है। हरामजादी उस रात तू कैसे कांप रही थी? जगह दी… कंबल ओढ़ाया।‘

 

‘तेरा अहसान कभी नहीं भूलूंगी।‘

 

तेरे कहने पर भीख मांगी। तेरे को पैसा कमा कर दिया…

 

उस छाया ने जवाब दिया था- ‘भीख में क्या मिलता है? दो जून की रोटी। तेरे से धन्धा कराऊंगा- चोखा पैसा मिलेगा। पर पहले तेरा मुंह काला करूंगा। क्या समझी?’

 

अबे सालो… छोकरी हमारी जात की है। इसकी रक्षा करना हमारा काम है। उठो… उठो… सालो।

 

तीनों लड़के चीख का पीछा करते हैं। छाया इस तरह दौड़ती है मानो आत्मा ने शरीर छोड़ दिया हो।

 

आकाश में हवा का कंपन तीव्र होने लगा है। लड़की के साथ झोपड़ी के छोटे से दायरे में सोना होगा। लालटेन की धीमी रोशनी में सविता तीनों के चेहरों पर आंखें टिकाती है। रघु प्रश्न उछालता है- तेरी कहानी क्या है सविता? तू सही घर की लगती है।

 

सविता कातर स्वर में बोलती है- रघु भैया… घर तो हम सबके सही होते हैं। पर हम सड़क पर क्यों आ जाते हैं? मेरी मां वेश्या है। वह कहती है कोठा नरक है। एक रात वह मेरे को कोठे से बाहर खेत पर ले आई। रोता छोड़ दिया मेरे को। नहीं लौटी… मेरी मां।

 

सुबह रोते-रोते मैं एक मंदिर के दरवाजे पर पहुंच गई। एक भिखारी ने इशारे से मेरे को बुलाया। मैंने उसके लिए भीख मांगनी शुरू कर दी… और फिर।

 

दूसरी रात वे सभी उसी झोपड़ी के दायरे में थे। मोहन देशी शराब की बोतल लाया था। रघु के मन में कौंधा की सविता भी नशा करेगी।

 

मैं शराब नहीं पीऊंगी सविता ने अपना मुंह मोड़ लिया।

 

रघु आपे से बाहर हो रहा था- साली, कुतिया शराब तेरे को पीनी होगी।

 

वह बार-बार बोतल उसके मुंह से सटा रहा था। सविता ने रघु को धक्का दिया और वह गेंद की तरह लुढ़क गया। लडख़ड़ाते पैरों पर खड़ा हो रघु सविता को पीटने लगा। मोहन सविता की चीखों को सहन नहीं कर सका।

 

‘साले-कुत्ते, छोकरी पर हाथ उठाता है?’

 

दोनों ने रघु पर अंकुश लगाने की कोशिश की। रघु शान्त हो गया। मोहन ने सविता की पीठ पर हाथ फेरा। पीठ में गरमाई थी। मोहन के मन की लहर दूसरी दिशा में दौडऩे लगी।

 

खबरदार- तूने अगर इस छोकरी को हाथ लगाया। इस पर मेरा भी हक है सोहन। अचानक वह अपनी सीमाएं लांघ चुका था।

 

यह छोकरी हम से नशा छीनना चाहती है।

 

साली आते ही हमारी नानी बन गई।

 

उधर से दो आदमी आ रहे थे। हाथ में टार्च।

 

बाप रे बाप सिपाही पैसा तलब करेंगे। सविता को नहीं बक्शेंगे।

 

चारों प्राणी अन्धकार में विलीन हो गए। सिपाहियों ने टार्च की रोशनी झोपड़ी पर फैंकी। कुछ देर खड़े रहे और फिर चले गए।

 

रघु बोला- बाल-बाल बच गए। सिपाही बेतहाशा पीटते हैं। झूठा मुकदमा चला देते हैं।

 

चारों की आंखों में आतंक था और सांस धौंकनी की तरह चल रही थी। (विभूति फीचर्स)

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