स्मृति शेष : प्रभात राय :एक प्राणवान मूर्तिकार रहे 

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प्रख्यात मूर्तिकार प्रभात राय नहीं रहे ,ये खबर अविश्वसनीय सी है ,लेकिन विश्वास करना पड़ रहा है। प्रभात राय ने ग्वालियर को उसी तरह पहचान दिलाई थी जैसे उस्ताद अमजद अली खान ने, माधवराव सिंधिया ने,मुकुट बिहारी सरोज ने अटल बिहारी बाजपेयी ने। किसी शहर का पर्याय बनने में एक उम्र गुजर जाती है । आप चाहे जिस क्षेत्र में काम करते हों ,लेकिन अपने शहर की पहचान बनने में तभी कामयाब होते हैं जब आपके भीतर साधना का भाव हो। प्रभात राय एक ऐसा ही कलाकार था।

प्रभात को मै उसके बाल्य काल से जानता था ,क्योकि मै एक तो उससे उम्र में बड़ा था और दूसरे उसका पड़ौसी भी था। बात 1974 की रही होगी । कम्पू में कांटे साहब के जिस बाड़े में प्रभात आपने परिवार के साथ रहता था उसी बाड़े में हमारी समाजिक संस्था नेत्रहीन कल्याण समिति का कार्यालय भी था। प्रभात के पिता स्वयं एक सिद्धहस्त कलाकार थे और पेशे से शिक्षक। प्रभात अपने बड़े भाई प्रशांत की तरह स्वभाव से शांत न होकर चंचल था ,रोज कुछ न कुछ गड़बड़ करता और पिता की डाट खाता ,इसी बाड़े से उसने मूर्तिकला का ककहरा सीखा । उसके पिता और अग्रज ही उसके उस्ताद थे। उस्ताद से पिटना,प्यार पाना सबको नसीब नहीं होता ,लेकिन प्रभात को हुआ।

ये वो जमाना था जब राय परिवार के पास अपना कोई वर्कशाप नहीं था । कांटे साहब के बाड़े में ही इस परिवार ने मिलजुलकर शायद महाराणा प्रताप की अश्वारोही विशाल प्रतिमा तैयार की थी। हम सब उसे कौतूहल से देखते थे । बड़ा ही श्रमसाध्य काम था मूर्तियां बनाना । पहले मिटटी से मिनिएचर बनाया जाता था और बाद में फिर उसे विभिन्न प्रक्रियाओं से होते हुए मूर्ति का आकार दिया जाता था। प्रभात पहले -पहल मूर्तिकला को लेकर गंभीर न था ,लेकिन बाद में उसकी अभिरुचि बढ़ी और वो लगातार तेजी से आगे बढ़ा। अपने अग्रज को भी उसने इस होड़ में पीछे छोड़ा ,लेकिन पिता के सपने को पूरा किया।

प्रभात और प्रशांत की जोड़ी अनूठी थी । मिलकर खान-पान ,हंसी मजाक ,परिवार का संचालन और मूर्ति निर्माण।दोनों को कभी अलग-करके नहीं देखा जा सकता था। कांटे साहब के तंग बाड़े से निकलकर प्रशांत और उसके परिवार में अनेक ठिकाने बदले ,लेकिन अपनी पहचान को अक्षुण रखा। पहले कम सफलता मिली ,फिर काम आगे बढ़ता गया । उसने कभी धार्मिक लक्ष्य के लिए मूर्तियां बनाई तो कभी राजनीतिक प्रयोजन के लिए। राजनेता,धार्मिक नेता अबसे उसका तादात्म्य बैठता गया। स्थानीय शासन से लेकर राज्य शासन तक ही नहीं बल्कि केंद्र सरकार में भी उसकी पैठ हो गयी । स्वर्गीय माधवराव सिंधिया हों या कैलाश विजयवर्गीय या ज्योतिरादित्य सिंधिया या नरेंद्र सिंह तोमर या पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सब प्रभात की मूर्तिकला के मुरीद थे। बहुत कम समय में प्रशांत ने यश और धन कमाया । खर्च भी किया । मोतीझील पर आधुनिक वर्कशाप बनाया ,जो अपने आप में एक संसथान की तरह जाना -पहचाना हो गया।

प्रशांत और उसके परिवार को मूर्तिकला ने वो सब दिया जो एक कलाकार को मिलना चाहिए । धन-दौलत,मान-सम्मान ,यश कीर्ति सब उसके हिस्से में आयी। उसे विनम्र बने रहने में कभी संकोच नहीं हुआ। मेरी बड़ी बेटी की शादी में प्रभात ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। एक अनुज की तरह ,लेकिन हकीकत ये थी कि मैंने उसका स्थानीय नगर निगम में वर्षों से रुका हुआ भुगतान करा दिया था। उसने इसी की कृतग्यता का ज्ञापन किया था। प्रभात जमीन से उठकर मूर्तिकला के क्षितिज पर स्थापित हुआ था। उसके समय के अनेक मूर्तिकार शहर में हैं ,उससे कहीं ज्यादा प्रतिभाशाली भी हैं लेकिन सबके पास प्रभात जैसा भाग्य नहीं है। मूर्तिकला में ऊंच-नीच भी हुए । उसे सराहा भी गया और आलोचना भी की गई। विवाद भी आये लेकिन प्रभात सबका सामना करते हुए आगे बढ़ा। किसी की परवाह नहीं की उसने।

एक लम्बे आरसे से प्रभात के साथ मेरा उठना- बैठना नहीं था ,लेकिन जब भी कभी टकरा जाता तो उसी विनम्रता के साथ मिलता जैसा 1974 में मिला करता था। उसकी एक लम्बी यात्रा रही । सुखद रही ,स्वास्थ्य को लेकर उसकी लापरवाही हमेशा समस्याएं खड़ी करती रही। उसका जुझारूपन उसकी विशेषता भी थी और कमजोरी भी । दिन-रात एक कर काम करना उसकी सनक थी। ईश्वर ने उसे एक कलाकार की तरह गढ़ा था। पनीली आँखें,लम्बे घुंघराले बाल और अधरों पर सदैव एक स्निग्ध मुस्कान उसकी पहचान थी। प्रभात धर्मप्रिय था लेकिन प्रगतिशील भी। उसका 61 वर्ष की वय में जाना खल गया। अभी उसे अपना सर्वश्रष्ठ देना था। वो थका नहीं था ,लेकिन प्रकृति उसे शायद अवकाश पर भेजना चाहती थी। एक कलाकार के रूप में,एक भले मानस के रूप में प्रभात की कमी दशकों तक ग्वालियर को खलेगी। प्रभात की आत्मशांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ। उसके परिवार के प्रति मेरी संवेदनाएं हैं

@ राकेश अचल

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