यह डील भारत की विदेश नीति के लिए नई चुनौती लेकर आएगी?
भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी कि वह सऊदी अरब और अन्य खाड़ी देशों के साथ अपने रिश्तों को बनाए रखे-एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र
गोंदिया-वैश्विक स्तरपर पाकिस्तान और सऊदी अरब ने बुधवार को रियाद में ऐतिहासिक रक्षा समझौता किया है। इसके तहत किसी एक देश के खिलाफ किसी भी आक्रमण को दोनों देशों पर हमला माना जाएगा। पाकिस्तान और सऊदी के इस समझौते में कुछ और देशों के आने की चर्चा है।जियो न्यूज में पाक रक्षामंत्री से पूछा गया कि क्या दूसरे अरब देश भी इस समझौता का हिस्सा बन सकते हैं। इसपर उन्होंने कहा कि मैं इसका जवाब समय से पहले नहीं दे सकता लेकिन मैं यह जरूर है कि दरवाजे खुले हैं।सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच रक्षा समझौता केवल द्विपक्षीय सहयोग की औपचारिकता नहीं, बल्कि मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया की भू- राजनीतिक दिशा बदलने वाला एक ऐतिहासिक कदम हो सकता है। यह समझौता इस्लामिक वर्ल्ड में एक प्रकार के सामूहिक सुरक्षा ढांचे की कल्पना को जन्म देता है,जिसे कई विश्लेषक “इस्लामिक नाटो” की शुरुआत मान रहे हैं।समझौते के तहत यह प्रावधान किया गया है कि किसी एक देश पर हमला पूरे समझौता ढांचे पर हमला माना जाएगा। इस प्रकार यह सुरक्षा गारंटी दोनों देशों के रिश्ते को रणनीतिक साझेदारी में बदलती है।मुस्लिम देशों के बीच लंबे समय से यह बहस चल रही है कि क्या उन्हें भी यूरोप की तरह सामूहिक रक्षा तंत्र अपनाना चाहिए। ओआईसी (आर्गेनाइजेशन ऑफ़ इस्लामिक कोआपरेशन) में इस पर कई बार चर्चा हुई, लेकिन ठोस कदम कभी नहीं उठाए गए।अब सऊदी-पाक रक्षा समझौते ने इस विचार को वास्तविकता के करीब ला दिया है।पाकिस्तान, जो कि इस्लामिक वर्ल्ड की अकेली परमाणु शक्ति है,और सऊदी अरब,जो कि आर्थिक और धार्मिक नेतृत्व रखता है, का एक होना मुस्लिम दुनियाँ के लिए आत्मविश्वास का प्रतीक है। यह संदेश भी दिया गया है कि मुस्लिम राष्ट्रों को मिलकर अपनी सुरक्षा व्यवस्था खड़ी करना एक मौलिक अधिकार है।मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र मानता हूं कि भारत, सऊदी अरब अमीरात व खाड़ी देशों के साथ प्रगाढ़या संबंधों को बनाए रखने के लिए विदेश नीति को और मजबूत बनाने की ज़रूरत है। यह पूरी जानकारी मीडिया से उठाई गई है जो पिछले दो दिनों से सभी चैनलों और सोशल मीडिया पर चल रहा है।
साथियों बात अगर हम यह समझौता भारत के लिए चुनौती या अवसर? की करें तो भारत इस समझौते को मिश्रित भाव से देख रहा है।एक ओर,भारत और सऊदी अरब के संबंध बेहद मज़बूत हैं,ऊर्जा आपूर्ति, प्रवासी भारतीयों की भूमिका और जी20 सहयोग से लेकर निवेश तक। दूसरी ओर, पाकिस्तान भारत का कट्टर प्रतिद्वंद्वी है। यदि सऊदी अरब पाकिस्तान के साथ रक्षा गारंटी समझौते में शामिल होता है, तो भारत को आशंका होगी कि कहीं भविष्य में इस्लामिक रक्षा तंत्र भारत के खिलाफ इस्तेमाल न हो।खासकर कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान को हमेशा इस्लामिक देशों से राजनीतिक समर्थन मिलता रहा है। हालांकि सऊदी अरब ने हाल के वर्षों में संतुलित रुख अपनाया है, परंतु भारत के रणनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह डील भारत की विदेश नीति के लिए नई चुनौती लेकर आएगी।भारत और सऊदी अरब के संबंध पिछले दशक में ऐतिहासिक ऊँचाई पर पहुंचे हैं। भारतीय पीएम और सऊदी क्राउन प्रिंस के बीच हुई साझेदारियों में ऊर्जा, इंफ्रास्ट्रक्चर, डिजिटल सहयोग और रक्षा उद्योग शामिल हैं। भारत सऊदी अरब के लिए एक भरोसेमंद आर्थिक पार्टनर है। हालांकि पाकिस्तान-सऊदी रक्षा डील भारत-सऊदी रिश्तों को पूरी तरह कमजोर नहीं करेगी, परंतु उसमें “रणनीतिक अविश्वास” का तत्व ज़रूर जोड़ देगी। भारत यह देखना चाहेगा कि क्या यह समझौता केवल आतंकवाद और क्षेत्रीय खतरों से लड़ने के लिए है, या भविष्य में यह किसी विशेष देश (अप्रत्यक्ष रूप से भारत) के खिलाफ प्रयोग किया जा सकता है?
साथियों बात अगर हम इस रक्षा समझौते में अमेरिका की भूमिका पर सवाल पर विश्व की नजरों की करें तो, इस समझौते के समय और पृष्ठभूमि को देखते हुए यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या अमेरिका का इसमें कोई हाथ है। पिछले कुछ महीनों में अमेरिकी प्रतिनिधियों की कई मुलाकातें सऊदी और पाक नेतृत्व से हुई हैं। अमेरिका की रणनीति अक्सर यह रही है कि वह मध्य पूर्व में शक्ति संतुलन बनाए रखे। ईरान का बढ़ता प्रभाव, चीन-सऊदी नज़दीकियां, और पाकिस्तान की आर्थिक अस्थिरता को ध्यान में रखते हुए वॉशिंगटन शायद इस समझौते को अप्रत्यक्ष समर्थन दे रहा हो। अमेरिका का हित यह है कि सऊदी अरब उसके सुरक्षा तंत्र में बना रहे और पाकिस्तान उसके भू-राजनीतिक समीकरण से पूरी तरह चीन के पाले में न चला जाए। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि अमेरिका का परोक्ष सहयोग या प्रोत्साहन इस समझौते के पीछे हो सकता है।
साथियों बात अगर हम वैश्विक स्तर परइस्लामिक नाटो का विचार और संभावित प्रभाव की करें तो,यदि मुस्लिम राष्ट्र मिलकर एक सैन्य ढांचा खड़ा करते हैं तो यह सीधे-सीधे नाटो और यूरोपीय संघ जैसी व्यवस्था की झलक देगा। पहले भी “इस्लामिक मिलिट्री काउंटर टेररिज्मकोएलिशन” (आईएमसीटीसी) नाम से 34 मुस्लिम देशों का गठबंधन बना था, लेकिन वह सक्रिय नहीं रह सका। इस बार पाकिस्तान और सऊदी की जोड़ी इसे नई ऊर्जा दे सकती है। यदि यह ढांचा मज़बूत हुआ तो यह पश्चिम एशिया और दक्षिण एशिया की सुरक्षा संरचना बदल देगा। ईरान, तुर्की, कतर और मिस्र की भूमिका इसमें निर्णायक होगी। यूरोप और अमेरिका के लिए यह चुनौती होगी कि उनके सामने एक नया सुरक्षा ब्लॉक खड़ा हो जाए, जो ऊर्जा संसाधनों और सामरिक स्थिति की वजह से बहुत प्रभावशाली होगा।
साथियों बात अगर हम यूरोप और पश्चिम के लिए नई चुनौती वह चीन की प्रतिक्रियाकी करें तो यूरोपीय संघ और नाटो अब तक मुस्लिम दुनिया को अलग-अलग देशों के रूप में देखते रहे हैं। यदि इस्लामिक रक्षा ढांचा अस्तित्व में आता है, तो यूरोप के सामने एक संगठित सैन्य–राजनीतिक शक्ति खड़ी होगी। यह चुनौती खासकर ऊर्जा सुरक्षा, हथियार बाज़ार और क्षेत्रीय प्रभाव के लिए होगी। यूरोप और अमेरिका को अपने पारंपरिक “सुरक्षा प्रदाता” की भूमिका पर पुनर्विचार करना पड़ेगा। साथ ही,यह भी संभव है कि इस्लामिक ब्लॉक रूस और चीन के साथ नए समीकरण बनाए, जिससे पश्चिम की भू-राजनीतिक पकड़ और कमजोर होगी।चीन और रूस की प्रतिक्रिया-चीन और रूस इस विकास को अपने हितों के अनुसार देखेंगे। चीन पाकिस्तान का पारंपरिक साझेदार है और सऊदी अरब के साथ भी उसके गहरे आर्थिक रिश्ते हैं। यदि इस्लामिक सुरक्षा तंत्र बनता है तो चीन उसे आर्थिक और कूटनीतिक समर्थन दे सकता है ताकि अमेरिका का दबदबा कमजोर हो। रूस भी इसे पश्चिमी गठबंधनों के मुकाबले एक नया मंच मानकर ऊर्जा और हथियारों के सौदों के जरिए इसमें प्रभाव बढ़ाने की कोशिश करेगा।साथियों बात अगर हम भारत की कूटनीतिक रणनीति की करें तो भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी कि वह सऊदी अरब और अन्य खाड़ी देशों के साथ अपने रिश्तों को बनाए रखे। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि पाकिस्तान-सऊदी रक्षा समझौते का भारत-सऊदी साझेदारी पर नकारात्मक असर न पड़े। इसके लिए भारत को ऊर्जा सुरक्षा, प्रवासी भारतीयों के हित और निवेश संबंधों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। साथ ही, भारत को अमेरिका, यूरोप, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे साझेदारों के साथ अपनी रणनीतिक समझ बढ़ानी होगी ताकि किसी संभावित “इस्लामिक नाटो” के दबाव को संतुलित किया जा सके।
साथियों बात अगर हम क्षेत्रीय समीकरण: ईरान और तुर्की की भूमिका की करें तो,ईरान इस समझौते को संदेह की निगाह से देखेगा क्योंकि सऊदी अरब और पाकिस्तान दोनों ही ऐतिहासिक रूप से उसके प्रतिद्वंद्वी रहे हैं। तुर्की अपने “इस्लामिक नेतृत्व” के दावे के चलते इसमें शामिल होने या न होने को लेकर दुविधा में रहेगा। यदि यह गठबंधन सुन्नी मुस्लिम देशों तक सीमित रहता है तो यह इस्लामिक वर्ल्ड में नई खाई भी पैदा कर सकता है। अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन करें इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे नया भू-राजनीतिक अध्याय, सऊदी अरब और पाकिस्तान का यह रक्षा समझौता न केवल दोनों देशों के लिए बल्कि पूरे मुस्लिम वर्ल्ड, दक्षिण एशिया और वैश्विक शक्ति संतुलन के लिए दूरगामी प्रभाव डालेगा। यह इस्लामिक नाटो जैसी संरचना की शुरुआत भी हो सकता है और साथ ही भारत जैसे देशों के लिए कूटनीतिक चुनौतियाँ भी पैदा करेगा।अंतरराष्ट्रीय राजनीति में यह कदम एक नए अध्याय की तरह है, जिसका असर आने वाले दशकों तक महसूस किया जाएगा।
*-संकलनकर्ता लेखक – क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र *