विवेक रंजन
साहित्य के क्षेत्र में इन दिनों कुछ नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ऐसा ही एक प्रयोग समकालीन व्यंग्य समूह द्वारा किया गया। जिसमें देश के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार विवेक रंजन श्रीवास्तव से देश के कई रचनाकारों ने कई प्रश्न पूछे। जिनका श्रीवास्तव ने बेबाकी से उत्तर दिया। प्रस्तुत है इसी प्रश्नोत्तरी के संपादित अंश-
क्या आज के अधिकांश लेखक मजदूर से भी बदतर हैं जो बिना परिश्रमिक निरंतर लिख रहे हैं। इसके लिए लेखक या संपादक में कौन जिम्मेवार है?
– प्रभात गोस्वामी
मजदूर तो आजीविका के लिए किंचित मजबूर होता है, पर लेखक कतई मजबूर नहीं होता।
बिना पारिश्रमिक लिखने के पीछे छपास की अभिलाषा है। संपादक इसके लिए दोषी नहीं कहे जा सकते, यद्यपि पत्र , पत्रिका का मैनेजमेंट अवश्य दोषी ठहराया जा सकता है, जो लेखन के व्यय को बचा रहा है।
व्यंग्य विधा हमेशा विद्रूपताओं को उजागर करती आई है। इसमें आम आदमी का दर्द और परेशानियों का अधिकतर समावेश होता रहा है। मजदूर दिवस पर यह सवाल लाजिमी हो जाता है कि क्या एक श्रमिक को व्यंग्य का पात्र बनाना उचित होगा? वैसे भी यह वर्ग हमेशा उपहास का पात्र ही रहा है। आप क्या सोचते हैं? कृपया बताएं।
– प्रीतम लखवाल, इंदौर
आपके प्रश्न में ही उत्तर निहित है, मजदूर यदि कामचोरी ही करे तो उसकी इस प्रवृत्ति पर अवश्य व्यंग्य लिखा जाना चाहिए। हमने कई व्यंग्य पढ़े हैं जिनमे घरों में काम करने वाली मेड पर कटाक्ष हैं ।
मेहनतकश होना बिलकुल भी उपहास का पात्र नहीं होना चाहिए।
मैं तो कलम का मजदूर हूं इस उक्ति में कितनी सच्चाई है?
एक श्रमिक के शारीरिक श्रम और बुद्धिजीवियों के श्रम में भारी अंतर है। दोनों एक दूसरे का पर्याय नहीं हो सकते, फिर बुद्धिजीवियों के सर पर ही मोरपंख क्यों खोंस दिये जाते हैं?
-इन्दिरा किसलय
बुद्धिजीवी ही मोरपंख खोंसते हैं, वे ही उपमा , उपमेय, रूपक गढ़ते हैं। मैं तो कलम का मजदूर हूं , किन्ही संदर्भो में शब्दों की बाजीगरी है। बौद्धिक श्रम और शारीरिक मजदूरी नितांत भिन्न हैं ।
कहते हैं कि कविता के पांव अतीत में होते हैं और उसकी आंखें भविष्य में होती हैं, पर व्यंग्य इन दिनों लंगड़ा के चल रहा है और उसकी आंखों में मोतियाबिंद जैसा कुछ हो गया है? आप इस बात पर क्या कहना चाहेंगे?
– जयप्रकाश पाण्डे
विशेष रूप से नई कविता की समालोचना में प्रयुक्त यह युक्ति सही है , क्योंकि कविता की पृष्ठ भूमि , इतिहास की जमीन , विगत से उपजती है। प्रोग्रेसिव विचारधारा की नई कविता उज्ज्वल भविष्य की कल्पना के सपने रचती है । किंबहुना यह सिद्धांत प्रत्येक विधा की रचना पर आरोपित किया जा सकता है, व्यंग्य पर भी। किंतु आप सही कह रहे हैं कि व्यंग्य लंगड़ा कर चल रहा है। व्यंग्य को महज सत्ता का विरोध समझने की गलती हो रही है, मेरी समझ में व्यंग्य विसंगतियों का विरोध है । यह हम आप की ही जबाबदारी है कि अपने लेखन से हम समय रहते व्यंग्य की लडख़ड़हट से उसे उबार लें ।
बहुरूपिए निस्वार्थ भाव से त्याग करते हुए लोगों को हंसाते और मनोरंजन करते हैं। साथ ही समाज में फैली विसंगतियों पर कटाक्ष करते हुए लोगों को जागरूक बनाते हैं। पर व्यंग्यकार को बहुरूपिया कह दो तो वह मुंह फुला लेता है, क्या आप मानते हैं व्यंग्यकार बहुरूपिया होता है?
-जयप्रकाश पांडे
व्यंग्यकार व्यंग्यकार होता है, और बहुरूपिया बहुरूपिया। कामेडियन कामेडियन … अवश्य ही कुछ कामन फैक्टर हैं। व्यंग्यकार को बहुविध ज्ञानी होना पड़ता है, और कभी अभिव्यक्ति के लिए बहुरूपिया भी बनना पड़ सकता है।
एक राम घट-घट में बोले की तर्ज पर विधा-विधा में व्यंग्य बोलता है। फिर भी इसको अलग श्रेणी की विधा मानने का विमर्श खड़ा करना क्या समुचित हैं?
-भंवरलाल जाट
बिजली से ही टीवी , लाइट , फ्रिज , पम्प , सब चलते हैं, फिर भी बिजली तो बिजली होती है, उस पर अलग से भी बात होती है। व्यंग्य हर विधा में प्रयुक्त हो सकता है , पर निखालिस व्यंग्य लेख का अपना महत्व है। उसे लिखने पढऩे का मजा ही अलग है। इसी लिए यह विधा विमर्श बना रहने वाला है।
विवेक जी, आप व्यंग्य के वैज्ञानिक हैं। तकनीकी व्यंग्य लेखन के कुछ पॉइंट हमें भी सिखाईये।
साथ ही आपके व्यंग्य में शीर्षक हमेशा बड़े होते हैं। क्या शीर्षक भी प्रभाव डालते हैं?
– सुषमा राजनिधि इंदौर
सुषमा जी यह आपका बड़प्पन है कि आप मुझे ऐसा समझती हैं। अब तो व्यंग्य लेखन की स्वतंत्र वर्कशाप आयोजित हो रही हैं, प्रेम। हम सब एक दूसरे को सुनकर , पढ़कर प्रेरित होते हैं। कभी मिल बैठ विस्तार से बातें करने के अवसर मिलेंगे तो अच्छा लगेगा ।
जहां तक शीर्षक का प्रश्न है, मेरा एक चर्चित आलेख है परसाई के लेखों के शीर्षक हमें शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं
न तो शीर्षक बहुत बड़ा होना चाहिए और न ही एक शब्द का की भीतर क्या है समझ ही न आए। शीर्षक से लेख के कर्टन रेजर का काम भी लिया जाना उचित है।
बच्चों के नाम पहले रखे जाते हैं, फिर उनका व्यक्तित्व विकसित होता है, जबकि व्यंग्य लेख में हमें अवसर होता है कि हम विचार लिपिबद्ध कर ले फिर शीर्षक तय करें। मैं इसी छूट का लाभ उठाया करता हूं।
कुछ व्यंग्यकार झूठों के सरताज, नौटंकीबाज, मक्कार और जहर उगलने वाले नेता की इन प्रवृत्तियों पर इसलिए प्रहार करने से परहेज करने की सलाह देते हैं कि वह जनता द्वारा चुना गया है। क्या ऐसे जनप्रतिनिधि को व्यंग्यकारों द्वारा बख्शा जाना चाहिए?
ऐसी विसंगतियों के पुतले जनप्रतिनिधि का बचाव करने वाला लेखक क्या व्यंग्यकार कहलाने का हकदार है?
– टीकाराम साहू आजाद
आजाद जी , मेरा मानना है कि हमें पूरी जिम्मेदारी से ऐसे नेता जी पर जरूर लिखना चाहिए, व्यक्तिगत नाम लेकर लिखने की जगह उन प्रवृतियों पर कटाक्ष किए जाने चाहिए जिससे यदि वह नेता उस लेख को पढ़ सके तो कसमसा कर रह जाए ।
जनता द्वारा चुन लिए जाने मात्र से नेता व्यंग्यकार के जनहितकारी विवेक से ऊपर नहीं हो सकता।
व्यंग्य का पाठक वर्ग कितना बड़ा है? क्या व्यंग्यकार ही इसे पढ़ते हैं या यह आम जनता तक भी पहुँचता है?
कविता के लिए तो कवि सम्मेलनों में व्यापक पब्लिसिटी से जनता का आवाहन किया जाता है और वह जन-जन तक पहुँचती है लेकिन यह व्यवहार व्यंग्य में नहीं है। व्यंग्य की जब भी बैठक/गोष्ठियां, आयोजन/सम्मेलन होते हैं तो उसमें प्राय: व्यंग्य लेखक ही सम्मिलित होते हैं या एक दो अतिथि और मुख्य अतिथि। क्या यह स्थिति व्यंग्य के हित में है?
क्या व्यंग्य, व्यंग्य लेखकों के बीच ही नहीं सिमट कर रह गया?
– के.पी.सक्सेना
मेरा मानना है कि व्यंग्य का पाठक वर्ग विशाल है, तभी तो लगभग प्रत्येक अखबार संपादकीय के बाजू में व्यंग्य के स्तंभ को स्थान देता है।
यह और बात है कि कई बार फीड बैक न मिलने से हमें लगता है कि व्यंग्य का दायरा सीमित है।
वरन गोष्ठियों के विषय में मुझे लगता है की लोग अपनी सुनाने में ज्यादा रुचि रखते हैं, शर्मा हुजूरी मित्रों की वाहवाही भी कर लेते हैं।
यदि छोटे व्यंग्य, किंचित नाटकीय तरीके से प्रस्तुत किए जाए तो उनके पब्लिक शो सहज व्यवहारिक हो सकते हैं। जो व्यंग्य के व्यापक हित में होगा । आजकल युवाओं में लोकप्रिय स्टेंडप कामेडी कुछ इसी तरह के थोड़े विकृत प्रयोग हैं ।
आदरणीय विवेक जी
क्या गुरु को दक्षिणा स्वरुप
अंगूठे की अभिलाषा रखनी चाहिए? अंगूठा मांगना तो एक विकृति रही थी। क्या उसकी पुनरावृति होनी चाहिए?
आप रचनात्मक और सृजनात्मक परिवार से हैं, किन्तु आपकी नौकरी बहुत सारी उन विसंगतियों से परिपूर्ण रही हैं जो व्यंग्य के विषय बन सकते हैंद्य ऐसे में सामंजस्य कैसे बना पाते थे?
-परवेश जैन
परवेश जी गलत को किसी भी तरह की लीपा पोती से त्वरित कितना भी अच्छा बना दिया जाए समय के साथ वह गलत ही कहा और समझ आ जाता है ।
प्रचलित कथा के आचार्य द्रोण एकलव्य के संदर्भ में एक दूसरा एंगल भी दृष्टव्य और विचारणीय है । मेरी बात को इस तरह समझें कि यदि आज कोई विदेशी गुप्तचर भारतीय आण्विक अनुसंधान के गुर चोरी से सीखे तो उसके साथ क्या बरताव किए जाने चाहिए?
एकलव्य हस्तिनापुर के शत्रु राज्य मगध के सेनापति का पुत्र था। अत: द्रोण की जिम्मेदारी उनकी धनुर विद्या को शत्रु से बचाने की भी मानी जानी चाहिए। इन स्थितियों में उन्होंने जो निर्णय लिया वह प्रासंगिक विशद विवेचना चाहता है । अस्तु ।
मैंने जीवन में हमेशा हर फाइल अलग रखी , घर , परिवार , आफिस , साहित्य … व्यंग्य लेखन में कार्यालयीन अनुभवों के साथ हर सुबह का अखबार नए नए विषय दे दिया करता था।
व्यंग्य उपन्यास लिखना कठिन कार्य है, हरिशंकर परसाई जी के रानी नागफनी से लेकर डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी के नरक यात्रा तक व्यंग्य उपन्यासों की लंबी सूची है लेकिन जब चर्चा होती है तो सुई राग दरबारी पर आकर क्यों अटक जाती है?
-जय प्रकाश पाण्डेय
शायद कुछ तो ऐसा भी होता ही है की जो सबसे पहले सर्वमान्य स्थापना अर्जित कर लेता है , वह लैंडमार्क बन जाता है। उसी से कम या ज्यादा का कंपेरिजन होता है। रागदरबारी जन मूल्यों पर आधारित व्यंग्य लेखन है , सुस्थापित है । उससे बड़ी लाइन कोई बने तो राग दरबारी का महत्व कम नहीं होगा।
व्यंग्यकार व्यंग्य को भले ही व्यंग्य लिख लिख कर हिमालय पर बिठा दें लेकिन साहित्य जगत में उसको आज भी अछूत माना जाता है। एक किताब के विमोचन समारोह में अतिथि जिन्होंने विमोचन भी किया था तब उन्होने व्यंग्य के लिए कहा था कि व्यंग्य तो कीचड़ है आप क्यों उसमें पड़े हैं। साथ ही कहा था कि अच्छा है आप अन्य विधाओं में भी लिख रहे हैं तो उससे मुक्त हो जायेंगे।
– अशोक व्यास
एक विधा में पारंगत जरूरी नहीं की दूसरी हर विधा में भी पारंगत ही हो , और उसकी पूरी समझ रखता हो।
ऐसे में इस तरह के बयान आ जाना स्वाभाविक नहीं है।
व्यंग्य विधा में भी प्रयोग की गुंजाइश है। प्रयोग से व्यंग्य रचना और ध्यान खींच सकती है। आपके क्या विचार हैं?
इसके लिए क्या प्रयास किये जा रहे हैं?
-अनिता रश्मि
खूब संभावना है। प्रयोग हो ही रहे हैं। डायरी व्यंग्य , पत्र लेखन व्यंग्य , कहानी, विज्ञान कथा व्यंग्य , संवाद व्यंग्य , आत्मकथा व्यंग्य , संस्मरण व्यंग्य , आदि ढेरो तरह से रची गई रचनाएं पढ़ी है मैने।
मजदूरों के कुछ आम नारे हैं। पहला – दुनिया के मजदूरों एक हो। मगर मजदूर एक न हुए।
दूसरा – जो हमसे टकराएगा… चूर चूर हो जाएगा। लेकिन मजदूरों से टकराने वाले अधिक पत्थर दिल हुए।
तीसरा – हर जोर जुलुम की टक्कर में…हड़ताल हमारा नारा है। किंतु जोर जुलुम बरकऱार है।
चौथा – इंकलाब ज़िंदाबाद। पर इंकलाब के तेवर अब, ढीले हैं।
फिर मजदूर दिवस का औचित्य क्या?
-प्रभाशंकर उपाध्याय
जवाब…वामपंथ अब ढलान पर है । ये सारे नारे वामपंथ के चरम पर दिए गए थे। शहीद भगत सिंह अपने समय में इस विचारधारा से प्रभावित हुए। किंतु समय के साथ साम्यवाद असफल सिद्ध हो रहा है। संभवत: मजदूरों का शोषण जितना चीन में है , अन्यत्र नहीं।
यदि मजदूरों को उनके वाजिब हक मिल जाएं तो ये नारे स्वत: गौण हो जाएं।
यूं मजदूरों के हक की लड़ाई के लिए बनाए नारे कभी खत्म नहीं होते,समय बदलता है पर दबे कुचले मजदूरों के हक हमेशा जिन्दा रहते हैं, ये इंसानियत को जिंदा रखने वाले होते हैं। यही प्रगति भी है शायद , एक हक मिलते ही दूसरे के लिए जागना नैसर्गिक प्रवृति है।
(विनायक फीचर्स)