डॉ. मोहन यादव
वह दुर्गाष्टमी का दिन था जब भारत भूमि पर एक ऐसी बेटी ने जन्म लिया, जिसके संस्कारों में एक तरफ तो करुणा और संवेदना समाहित थी, वहीं दूसरी ओर शौर्य, पराक्रम और सतीत्व रगों में दौड़ता था। आज पांच सौ वर्षों के बाद भी हम यदि इतनी श्रद्धा और गौरव के साथ वीरांगना रानी दुर्गावती का स्मरण कर रहे हैं तो वह किसी राज परिवार की प्रमुख होने के नाते नहीं, बल्कि उनके दूरगामी जनकल्याणकारी कार्यों और शौर्य की उस गाथा के कारण कर रहे हैं, जिसने भारत की नारी की वीरता को शिखरतम बिन्दु तक रेखांकित किया है।
5 अक्टूबर 1524 को कालिंजर में पैदा हुईं दुर्गावती का बलिदान 24 जून 1564 में हुआ। अर्थात 40 वर्ष की आयु में उन्होंने एक ऐसी प्रेरक परिपाटी खड़ी कर दी, जो आज भी मानवता के लिए मिसाल बनी हुई है। महारानी की वीरता की बात करें तो उन्होंने अपने छोटे से जीवन काल में लगभग 52 युद्ध लड़े और उनमें से 51 युद्धों में विजय प्राप्त हुई। मालवा के सुल्तान बाज बहादुर से लेकर अकबर तक मुगलों के अनेक भारी आक्रमणों का मुंहतोड़ जवाब देने वाली दुर्गावती ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए आत्म बलिदान दिया। कोई दुश्मन उनकी देह को हाथ नहीं लगा सका। क्या अद्भुत अवतारी थीं रानी दुर्गावती कि विवाह के मात्र चार वर्ष बाद ही पति दलपत शाह की मृत्यु के कारण पूरे राजकाज का बोझ सिर पर आने के बाद भी न केवल एक वर्ष के अपने बेटे की परवरिश की बल्कि निरंतर युद्ध के मैदान में भी वीरता दिखाई।
सोलह वर्ष के शासन काल में एक ओर जहां दुर्गावती लगभग 52 बड़े युद्धों में रणचण्डीत की तरह टूटती रहीं, वहीं दूसरी ओर राज्य की जनता की खुशहाली के लिए पूरी संवेदनाओं के साथ सक्रिय रहीं। जल संरक्षण के क्षेत्र में रानी दुर्गावती के योगदान को वैश्विक मानकों में सबसे ऊपर रखा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। अपने सहयोगियों के प्रति ऐसा असीम स्नेह करती थीं कि उनके नाम पर कई बांध, तालाब और बाबड़ियां बनाई। अपने सहयोगी के नाम पर निर्मित आधारताल आज भी जबलपुर में रानी के जल संरक्षण के उच्च मानकों की गाथा गौरव के साथ कह रहा है।
शौर्य या वीरता रानी दुर्गावती के व्यक्तित्व का एक पहलू था। वो एक कुशल योद्धा होने के साथ-साथ एक कुशल प्रशासक थीं और उनकी छवि एक ऐसी रानी के रूप में भी थी, जो प्रजा के कष्टों को पूरी गहराई से अनुभव करती थीं। इसीलिए गोंडवाना क्षेत्र में उन्हें उनकी वीरता और अदम्य साहस के अलावा उनके जनकल्याणकारी शासन के लिए भी याद किया जाता है। रानी दुर्गावती के शासन में नारी की सुरक्षा और सम्मान उत्कर्ष पर था। न्याय और समाज व्यवस्था के लिए हजारों गांवों में रानी के प्रतिनिधि रहते थे। प्रजा की बात रानी स्वयं सुनती थीं। पूरा कोइतूर गोंड समाज उनके निष्पक्ष न्याय के लिए उन्हे “न्याय की देवी” के नाम से पुकारता और जानता था। रानी दुर्गावती अपने पराजित दुश्मन के साथ भी उदारता का व्यवहार करती थीं और उन्हें सम्मानपूर्वक कीमती उपहार और पुरस्कार के साथ शुभकामनाएँ देकर अपने नियंत्रण में रखती थीं। उनकी यह रणनीति हमेशा काम करती थी इसीलिए कभी भी गोंडवाना में विद्रोह के स्वर नहीं उठे।
वे जन कल्याण की जीवंत प्रतिमूर्ति थीं। गोंड साम्राज्य में बने तमाम मठ मंदिर, कुंए, तालाब, नहरें, धर्मशालाएं इसकी गवाह हैं। उनके साम्राज्य में समृद्धि ऐसी थी कि जनता स्वर्ण मुद्राओं से व्यापार करती थी। इसी समृद्धि को लूटने के लिए अकबर जैसे आक्रांताओं ने दुर्गावती के राज्य पर बार-बार आक्रमण किए। रानी ने बार-बार अकबर को शिकस्त दी, लेकिन अकबर की सेना के साथ चौथे युद्ध में वे बुरी तरह घिर गईं। उनकी आंख और गर्दन में तीर घुस गए तब उन्होंने अपने संकल्प ”विजय नहीं तो क्या हुआ, बलिदान तो संभव है” का स्मरण करते हुए स्वयं के वक्ष में कटार घोंपकर रणभूमि में आत्म बलिदान कर दिया। रानी की चिता को रणभूमि में ही अग्नि दी गई। उसी स्थान को बरेला नाम से जानते हैं।
सच तो यह है कि आत्म अस्मिता और स्वतंत्रता के लिए दिए जाने वाले ऐसे बलिदान ही प्रतिमान गढ़ते हैं। लेकिन यह प्रतिमान प्रतिपल ध्यान में रहें तो पीढ़ियों तक राष्ट्र स्वाभिमान जाग्रत रह सकता है। दुर्भाग्य से 1947 की स्वतंत्रता के बाद भी लंबे समय तक रानी दुर्गावती जैसी वीरांगनाओं और शूरवीरों की स्मृतियों को संजोए रखने के बेहतर प्रयास नहीं हुए। मुगलों, शकों, हूणों और अंग्रेजों के विरुद्ध किए गए युद्धों की श्रंखला में हमारे वनवासी, जनजाति समाज के नायकों का अतुलनीय और अविस्मरणीय योगदान है। परन्तु सच तो यही है कि रानी दुर्गावती से लेकर महानायक बिरसा मुण्डा, शंकर शाह, रघुनाथ शाह, टंट्या मामा जैसे महानायकों के शौर्य की प्राण प्रतिष्ठा का काम हमारे विचार की सरकारों ने ही किया है। भारत में जहां ”जनजातीय गौरव दिवस” जैसा आत्म-सम्मान प्रदान करने वाले प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी का संकल्प हो अथवा जनजाति मंत्रालय के पृथक गठन का पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी का ऐतिहासिक फैसला हो, राष्ट्रीय विचार ने ही अपने उन भाई-बहनों के सम्मान और संसाधन पर ध्यान केन्द्रित किया है, जो कभी राजा थे लेकिन समय के थपेड़े में बिछड़ते और पिछड़ते चले गए।
जनजाति समाज की समृद्ध परंपराओं पर केन्द्रित करते हुए हमारी सरकारों ने अपने बंधुओं को सम्मान और संसाधान से परिपूर्ण बनाने के लिए ‘पेसा’ एक्ट लागू किया। महानायकों की स्मृतियों को चिरस्थायी रखने के लिए जहां संग्रहालय बनाए जा रहे हैं, वहीं माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी की पहल पर भोपाल में रेलवे स्टेशन को रानी कमलापति को समर्पित कर दिया गया है। मुझे लगता है कि जनजाति महानायकों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए हमें अभी बहुत काम करने की आवश्यकता है। मेरी सरकार की पहली कैबिनेट बैठक रानी दुर्गावती की सुशासन नगरी जबलपुर में किए जाने का हमारा भावनात्मक आधार ही था। यह रानी दुर्गावती का 500वां जन्म शताब्दी वर्ष चल रहा है। हम इसे दूरगामी प्रेरणा पर्व के रूप में मनाने का प्रयत्न कर रहे हैं।
केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा संचालित अनेक जनकल्याणकारी योजनाओं का भरपूर लाभ जनजाति समाज को मिले, ऐसा भरसक प्रयास हम कर रहे हैं। जनजाति अस्मिता, संरक्षण और सांस्कृतिक संवर्द्धन हमारी सरकार का संकल्प है। जैसा कि मैंने पूर्व में कहा कि जनजाति समाज को सम्मान और संसाधन प्रदान करना हमारा नैतिक दायित्व है। यही रानी दुर्गावती जैसी शौर्य, पराक्रम और संवेदनशीलता की प्रतिमूर्ति के श्रीचरणों में सच्ची श्रद्धांजलि होगी।