लोकसभा चुनाव के लिए मतदान का अंतिम चरण 1 जून को समाप्त होगा,इससे पहले राजनीति में मुजरा बाकी रह गया था ,लेकिन पाटिलीपुत्र में माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी वो भी करा ही दिया। मोदी जी के ‘ मुजरा ‘ उल्लेख के बाद समूचा विपक्ष ‘ मुजरा ‘ करता नजर आ रहा है। मुझे लगता है की मोदी जी ने जिस तरिके से मुजरा शब्द का इस्तेमाल किया है उसे लेकर बिदकने की जरूरत नहीं है ,क्योनी मोदी जी खुद मुजरा का वास्तविक अर्थ शायद नहीं जानते । उन्होंने मुजरा का इस्तेमाल तंज के रूप में किया है।
प्रधानमंत्री ने पाटलिपुत्र लोकसभा क्षेत्र में एक रैली में कहा कि- ‘‘बिहार वह भूमि है जिसने सामाजिक न्याय की लड़ाई को एक नई दिशा दी है. मैं इसकी धरती पर यह घोषणा करना चाहता हूं कि मैं एससी, एसटी और ओबीसी के अधिकारों को लूटने और उन्हें मुसलमानों को देने की ‘इंडिया’ गठबंधन की योजनाओं को विफल कर दूंगा. वे गुलाम बने रह सकते हैं और अपने वोट बैंक को खुश करने के लिए ‘मुजरा’ कर सकते हैं.”जाहिर है की मोदी जी को मुजरा करना या तो आता नहीं है या फिर वे इसे रोज करते हैं लेकिन जानते नहीं हैं।
मेरी दृष्टि में मुजरा कोई असंसदीय शब्द नहीं है ,लेकिन इसमें सामानवाद की बू जरूर आती ह। चूंकि मुजरा प्रथा मुगलकालीन है और बाद में सभी जातियों कि सामंतों ने इसे इस्तेमाल किया इसलिए इसे आप सामंती तो कह सकते हैं किन्तु असंसदीय नहीं। दरअसल मुजरा संस्कृति हुजूर से निकल क्र जब कोठों में प्रतिष्ठित हो गयी तो लोग इससे बचने लगे। मै चूंइक आजादी कि पहले की एक बड़ी रियासत रहे ग्वालियर में रहता हूँ इसलिए मुजरे कि बारे में बाखूबी जानता हो। हमारे यहां सिंधिया कि महल में आज भी मुजरा किया जाता है। छोटे बड़ों को मुजरा करते ही है। मैंने इसी महल में स्वर्गीय अर्जुन सिंह और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह तक को मुजरा करते देखा है।
कहते हैं की जब आप किसी कि हुजुर [दरबार या अदालत ] में जायेंगे तो आपको झुककर नमस्कार तो करना ही होता है। यही मुजरा है। मुजरा आदर प्रकट करने का तरीका भर है कोटों पार तवायफों द्वारा किया जाने वाला मुजरा भी करीबन-करीबन इसी सभ्यता का सांस्कृतिक स्वरूप ह। वैश्याएं बैठकर मुजरा करतीं हैं ,बाद में इसमें हिन्दुस्तानी नृत्यशैली कि अनेक अंग शामिल कर लिए गए। मुरा सलीका है और इसे सीखने कि लिए पुराने जमाने में वैश्याएं बाकायदा एक ट्यूटर की भूमिका में होतीं थी । सामंतों कि बच्चों को मुजरा करने का अंदाज इन्हीं वैश्यों से सीखना पड़ता थी । मुजरा ईश्वर कि साथ ही आपके मौजूदा मालिक [स्वामी] को भी प्रसन्न करने की एक विधा है ।
मोदी जी को आपत्ति मुजरा करने पर नहीं है। उनकी आपत्ति इस पर है की ये मुजरा अव्वल कांग्रेस क्यों करती है और मुसलमानों कि लिए क्यों करती है ? मुजरा विनम्रता की निशानी है। खुश करने का तौर-तरीका है । मोदी जी बहुसंख्यकों कि सामने मुजरा करते हैं ,लेकिन उन्हें पता नहीं होता की वे जो कर रहे हैं वो मुजरा है। आरक्षण कि मुद्दे पर मोदी जी बहके हुए हैं और इसीलिए बार-बार कहते हैं की वे मर जायेंगे लेकिन पिछड़ों कि आरक्षण पर किसी को डाका नहीं डालने देंगे। मोदी जी हर चीज पर अपना एकाधिकार चाहते है। मुजरे पर भी उन्हें एकाधिकार चाहिए। मोदी जी बीते एक दशक से बहुसंख्यक हिन्दुओं कि सामने मुजरा कर रहे हैं लेकिन किसी ने कभी उज्र नहीं किया। कांग्रेस ने तो बिलकुल नहीं।
एक हकीकत ये भी है की राजनीति कि अलावा किसी और धंधे में मुजरा करने की न तो जरूरत पड़ती है और न मुजरे की कोई परम्परा है। चाय बेचने में तो कोई किसी का मुजरा नहीं करता। पैसा फैंको और चाय पियो ‘। सियासत में तो बिना मुजरा करे न आपको संगठन में कोई पद मिलेगा और न टिकिट। जीत गए तो मंत्रिपद पाने कि लिए मुजरा करना पडेगा ही। मुझे याद है कि एक जमाने में जब रानी महल में राजमाता संप्रभु थीं और जनसंघ का जमाना था तब जनसंघ कि तमाम नेता महल में राजमाता विजयराजे सिंधिया के सामने पूरी श्रद्धा से मुजरा करते थे। भाजपा कि तमाम छोटे-बड़े नेताओं ने भी मुजरा करते देखे जा सकते हैं।
मुझे नहीं पता की मोदी जी ने अपने मुसलमान विरोधी रवैये की वजह से अपनी युवावस्था में ‘मुगलेआजम ‘ फिल्म देखी या नहीं देखी। यदि देखी होती तो वे मुजरे को अपने व्यंग्य के लिए इस्तेमाल नहीं करते। मोदी जी की टिप्पणी से आहत विपक्ष ने तो अपने गुस्से का मुजाहिरा कर दिया लेकिन मुजरा करने वाली वेश्याएं खामोश हैं। वैश्याएं मतदान करने जाती हैं या नहीं मुझे नहीं पता। लेकिन यदि जातीं होंगी तो वे चुनाव के बाद इसका संज्ञान अवश्य लेंगीं। मुजरा साष्टांग दंडवत से ज्यादा अच्छा तरीका है। दंडवत प्रणाम करने के लिए लकुटी की भांति भूमि पर लेटकर अपने छहों अंगों को जमीन से मिलना पड़ता है। मोदी जी को मुजरा करना नहीं आता लेकिन दंडवत प्रणाम करना आता है । वे मुजरा करते नहीं बल्कि कराते है। वे चाहते हैं कि कांग्रेस और समूचा विपक्ष अल्पसंखयकों का मुजरा करना छोड़ उनके सामने मुजरा करे।
वर्ष 2024 के आम चुनाव में सियासत ने सब कुछ तो करवा डाला ? पहले एक के बाद एक नया हौवा खड़ा किया गया और जब इन हौवों से भी मतदाता का मिजाज नहीं बदला तो वे मुजरे पर आ गए। 4 जून की तारीख वो तारीख है जो बताएगी की मुजरा कौन कर रहा है और कौन देख रहा है ? मुजरे में नृत्य,संगीत ,अंग संचालन का बड़ा महत्व है। मुजरा वैश्याएं करें या नेता करें । कोई फर्क नहीं पड़ता ,लेकिन फर्क तो तब पड़ता है जब मुजरा करने के बाद कोई खुश होता है या नहीं। जिन लोगों ने मोदी जी के हुजूर में मुजरा नहीं किया उन्हें चुनाव से पहले ही ब्लैकलिस्ट कर दिया गया और जिन्होंने किया उन्हें पुरस्कृत भी किया गया।मोदी जी के इजलास में मुजरा करने से बचने की कोशिश करने वालों को क्या-क्या नहीं भुगतना पड़ा।
मुजरा करने की आगे भी ये रिवायत आगे भी जारी रहने वाली है। वोट के लिए साष्टांग दंडवत प्रणाम करने से अच्छा तो मुजरा है। झुको लेकिन आधे झुको। पूरा झुकना तो गुलामी का प्रतीक है।पिछले दो महीने से बड़े से बड़े तुर्रम खान जनता के इजलास में मुजरा ही तो कर रहे थे। अभी एक जून तक ये परम्परा जारी रहेगा । मुजरा करने पर न तो किसी को तड़ीपार जाना पड़ता है और न ही संसद से बाहर किया जा सकता। मुजरा करने वाले का कभी कोई नुक्सान नहीं होता । बेहतर है कि देश कि नेताओं में ‘ मुजरत्व’ बचा रहे। ताली बजाने या थाली बजाने से बेहतर है की आप मुजरा करें। मै मुजरा शब्द कि इस्तेमाल कि लिए माननीय प्रधानमंत्री की निंदा नहीं करता। लेकिन उनकी सराहना भी नहीं करना चाहता,क्योंकि वे इस हबड का इस्तेमाल किये बिना भी अपनीबात कह सकते थे। मोदी जी ने ‘ मुजरा ‘ शब्द का इस्तेमाल गुस्से में किया है ,जो उचित नहीं है।
@ राकेश अचल
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