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मुद्दे की बात : लावारिस जानवर बड़ी चुनौती

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सरकारी मुहिम साबित हो रही कागजी खानापूर्ति

अन्य कई राज्यों की तरह पंजाब में सड़कों पर भटकते लावारिस जानवर बड़ी चुनौती की तरह हैं। खासकर आवारा कुत्तों का खौफ राज्य के सीमावर्ती जिलों में ज्यादा ही देखने को मिलता है। बीते दिनों में बुजुर्गों और बच्चों को अकेले आते-जाते कुत्तों के झुंड द्वारा हमला कर गंभीर रुप से जख्मी करने के कई मामले सामने आए।

यहां गौरतलब है कि यह समस्या पंजाब में कोई नई नहीं है। जब सूबे में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी। तब भी राज्य सरकार ने आवारा पशुओं की समस्या को लेकर गंभीर चिंता जताई थी। उस वक्त के आंकड़ों के मुताबिक पंजाब की सड़कों पर 1.40 लाख लावारिस पशु घूम रहे थे। जबकि पंजाब सरकार के पास इनकी देखरेख के लिए कोई पुख्ता प्रबंध नहीं हैं। तब राज्य सरकार ने केंद्र सरकार से इन पशुओं की देखरेख के लिए 500 करोड़ रुपये की मांग की थी। वैसे तो पंजाब में हमेशा से ही लावारिस पशुओं की समस्या रही है। इससे पहले लावारिस पशुओं की बढ़ती समस्या को हल करने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पांच सदस्यीय कैबिनेट सब-कमेटी बनाई थी। हर जिले के डिप्टी कमिश्नर को समस्या के हल के लिए अतिरिक्त गोशालाएं खोलने के लिए 10-10 लाख रुपये देने का भी ऐलान किया था। हालांकि सरकार की यह मुहिम मूर्तरूप नहीं ले पाई थी। इसके बाद पंजाब में बनी आप सरकार ने भी लावारिस पशुओं को नियंत्रित करने की मुहिम शुरू की थी। सरकार ने करीब पौने दो लाख लावारिस पशुओं को नियंत्रित करने के लिए केंद्र से राज्य सरकार ने प्रस्ताव भेजकर 500 करोड़ रुपये की मांग की थी। इस राशि से पशुओं की देखभाल के लिए शैड, हरे चारे के प्रबंध किए जाने थे। खैर, राज्य सरकार के प्रयास कितने कामयाब रहे, यह तो जगजाहिर है। मौजूदा वक्त भी सूबे में लावारिस जानवर सड़क हादसों का कारण बन रहे हैं। खासकर आने वाले दिनों में यह चुनौती और बढ़ने की आशंका है। सर्दियों में धुंध-कोहरे के दौरान विजिबिल्टी कम होने पर दिन के समय ही सड़कों पर भटकते जानवरों के वाहनों से टकराने से हादसे होने का खतरा बढ़ेगा। दूसरी तरफ, आवारा कुत्तों के काटने के मामले तो लगातार गांवों-शहरों में सामने आते ही रहते हैं। सरकार लावारिस पशुओं की समस्या से निपटने के नाम पर लावारिस गाय-सांड़ को आसरा देने की मुहिम पर जोर देती है। जबकि पंजाब में आवारा कुत्तों को पकड़ने और उनकी नसबंदी करने की मुहिम तो सिर्फ कागजी खानापूर्ति ही बनकर रह गई है।

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