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उपन्यास चर्चा : कर्म से तपोवन तक

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विवेक रंजन श्रीवास्तव

 

दुनियां में विभिन्न संस्कृतियों के भौतिक साक्ष्य और समानांतर सापेक्ष साहित्य के दर्शन होते हैं। भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से कहीं अधिक प्राचीन है। रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के दो अद्भुत महाग्रंथ हैं। इन महान ग्रंथों में धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक,आध्यात्मिक और वैचारिक ज्ञान की अनमोल थाथी है। महाभारत जाने कितनी कथायें उपकथायें ढ़ेरों पात्रों के माध्यम से न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या के गुह्यतम रहस्यों को संजोये हुये है। परंपरागत रूप से, महाभारत की रचना का श्रेय वेदव्यास को दिया जाता है। धारणा है कि महाभारत महाकाव्य से संबंधित मूल घटनाएँ संभवत: 9 वीं और 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की हैं। महाभारत की रचना के बाद से ही अनेकानेक विद्वान सतत उसकी कथाओं का विशद अध्ययन, अनुसंधान, दार्शनिक विवेचनायें करते रहे हैं। वर्तमान में अनेकानेक कथावाचक देश विदेश में पुराणों, भागवत, रामकथा, महाभारत की कथाओं के अंश सुनाकर समाज में भक्ति का वातावरण बनाते दिखते हैं। विश्वविद्यालयों में महाभारत के कथानकों की विवेचनायें कर अनेक शोधार्थी निरंतर डाक्टरेट की उपाधियां प्राप्त करते हैं। प्रदर्शन के विभिन्न माध्यमों में ढ़ेरोंं फिल्में, टी वी धारावाहिक, चित्रकला, साहित्य में महाभारत के कथानकों को समय समय पर विद्वजन अपनी समझ और बदलते सामाजिक परिवेश के अनुरूप अभिव्यक्त करते रहे हैं।

 

न केवल हिन्दी में वरन विभिन्न भाषाओं के साहित्य पर महाभारत के चरित्रों और कथानकों का व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है। महाभारत कालजयी महाकाव्य है। इसके कथानकों को जितनी बार जितने तरीके से देखा जाता है, कुछ नया निकलता है। हर समय, हर समाज अपना महाभारत रचता है और उसमें अपने अर्थ भरते हुए स्वयं को खोजता है। महाभारत पर अवलंबित हिन्दी साहित्य की रचनायें देखें तो डॉ. नरेन्द्र कोहली का प्रसिद्ध महाकाव्यात्मक उपन्यास महासमर, महाभारत के पात्रों पर आधारित रचनाओ में धर्मवीर भारती का अंधा युग , आधे-अधूरे, संशय की रात, सीढिय़ों पर धूप, माधवी (नाटक), शकुंतला (राजा रवि वर्मा), कीचकवधम, युगान्त, आदि जाने कितनी ही यादगार पुस्तकें साहित्य की धरोहर बन गयी हैं।

 

महाभारत से छोटे छोटे कथानक लेकर अनेकानेक रचनायें हुईं हैं जिनमें रचनाकार ने अपनी सोच से कल्पना की उड़ान भी भरी है। इससे निश्चित ही साहित्य विस्तारित हुआ है, किन्तु इस स्वच्छंद कल्पना के कुछ खतरे भी होते हैं। उदाहरण स्वरूप रघुवंश के एक श्लोक की विवेचना के अनुसार माहिष्मती में इंदुमती प्रसंग में कवि कुल शिरोमणी कालिदास ने वर्णन किया है कि नर्मदा, करधनी की तरह माहिष्मती से लिपटी हुई हैं। अब नर्मदा के प्रवाह के भूगोल की यह स्थिति मण्डला में भी है और महेश्वर में भी है। दोनों ही शहर के विद्वान स्वयं को प्राचीन माहिष्मती सिद्ध करने में जुटे रहते हैं। साहित्य के विवेचन विवाद में वास्तविकता पर भ्रम पल रहा है।

 

मैं भोपाल में मीनाल रेजीडेंसी में रहता हूं, सुबह घूमने सड़क के उस पार जाता हूं। वहाँ हाउसिंग बोर्ड ने जो कालोनी विकसित की है, उसका नामकरण अयोध्या किया गया है, एक सरोवर है जिसे सरयू नाम दिया गया है। हनुमान मंदिर भी बना हुआ है, कालोनी के स्वागत द्वार में भव्य धनुष बना है। मैं परिहास में कहा करता हूं कि सैकड़ों वर्षों के कालांतर में कभी इतिहासज्ञ वास्तविक अयोध्या को लेकर संशय न उत्पन्न कर दें। दुनियां में अनेक स्थानो पर जहां भारतीय बहुत पहले बस गये हैं जैसे कंबोडिया, फिजी आदि वहां राम को लेकर कुछ न कुछ साहित्य विस्तारित हुआ है और समय समय पर तदनुरूप चर्चायें विद्वान अपने शोध में करते रहते हैं। इसी भांति पढऩे, सुनने से जो भ्रम होते हैं उसका एक रोचक उदाहरण बच्चों की एक बहस में मिलता है। एक साधु कहीं से गुजर रहे थे, उन्हें बच्चों की बहस सुनाई दी। कोई बच्चा कह रहा था मैं हाथी खाउंगा, तो कोई ऊंट खाने की जिद कर रहा था, साधु का कौतुहल जागा कि आखिर यह माजरा क्या है, यह तो शुद्ध सनातनी मोहल्ला है। उन्होंने दरवाजे पर थाप दी, भीतर जाने पर वे अपनी सोच पर हंसने लगे दरअसल बच्चे होली के बाद शक्कर के जानवरों को लेकर लड़ रहे थे। यह सब मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि मैंने संतोष श्रीवास्तव जी का उपन्यास कर्म से तपोवन तक पढ़ा। और महाभारत के वे श्लोक भी पढ़ें जहां से माधवी और गालव पर केंद्रित कथानक लिया गया है। अपनी भूमिका में ही संतोष जी स्पष्ट लिखती हैं, उधृत है ..माधवी पर लिखना मेरे लिये चुनौती था। इस प्रसंग पर उपन्यास,नाटक,खंडकाव्य बहुत कुछ लिखा जा चुका है, थोडे बहुत उलट फेर से वही सब लिखना मुझे रास नहीं आया। मुझे माधवी के जीवन को नए दृष्टिकोरण से परखना था। गालव,माधवी धीरे-धीरे अंतरंग होते गए और दोनों के बीच दैहिक संबंध बन गए। मैंने इसी छोर को पकडा। ये अंतरंग संबंध मेरी माधवी कथा का सार बन गया, और मैंने माधवी का चरित्र इस तरह रचा जिसमें वह गालव से प्रेम के चलते ही राजा हर्यश, दिवोदास और उशीनर की अंकशायनी बनकर अपने अक्षत यौवना स्वरूप के साथ तीनों के बच्चों की माँ बनी। मेरा मानना है कि यह लेखिका की कल्पनाशीलता और उनकी साहित्यिक स्वतंत्रता है।

 

हो सकता है, यदि मैं इस प्रसंग पर लिखता तो शायद मैं माधवी के भीतर छुपी उस माँ को लक्ष्य कर लिखता जो बारम्बार अपनी कोख में संतान को नौ माह पालने के बाद भी लालन पालन के मातृत्व सुख से वंचित कर दी जाती है। गालव बार बार उसका दूध आंचल में ही सूखने को विवश कर उसे क्रमश: नये नये राजा की अंकशायनी बनने पर मजबूर करता रहा। मुझे संतोष जी की तरह गालव में माधवी के प्रति प्रेम नहीं दिखता। अस्तु।

 

उपन्यास में सीधा कथानक संवाद ही है, मुंशी प्रेमचंद या कोहली जी की तरह परिवेश के विस्तृत वर्णन का साहित्यिक सौंदर्य रचा जा सकता था जिसका अभाव लगा। उपन्यास का सारांश भूमिका में कथा सार के रूप में सुलभ है। महाभारत के उद्योग पर्व के अनुसार राजा ययाति जब अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को उसका यौवन लौटाकर वानप्रस्थ ग्रहण कर चुके होते हैं तभी गालव उनसे काले कान वाले 800 सफेद घोड़ों का दान मांगने आता है। ययाति जिनका सारा चरित्र ही विवादस्पद रहा है, गालव को ऐसे अश्व तो नहीं दे सकते थे, क्योंकि वे राजपाट पुरु को दे चुके थे। अपनी दानी छवि बचाने के लिये वे गालव को अपनी अक्षत यौवन का वरदान प्राप्त पुत्री माधवी को ही देते हैं, और गालव को अश्व प्राप्त करने का मार्ग बताते हैं कि माधवी को अलग अलग राजाओं के संतानो की माँ बनाने के एवज में गालव राजाओं से अश्व प्राप्त कर ले। सारा प्रसंग ही आज के सामाजिक मापदण्डों पर हास्यास्पद, विवादास्पद और आपत्तिजनक तथा अविश्वसनीय लगता है। मुझे तो लगता है जैसे हमारे कालेज के दिनों में यदि ड्राइंग में मैने कोई सर्कल बनाया और किसी ने उसकी नकल की, फिर किसी और ने नकल की नकल की और होते होते सर्कल इलिप्स बन जाता था, शायद कुछ इसी तरह ये असंभव कथानक किसी मूल कथ्य के अपभ्रंश न हों। कभी कभी मेरे भीतर छिपा विज्ञान कथा लेखक सोचता है कि महाभारत के ये विचित्र कथानक कहीं किसी गूढ़ वैज्ञानिक रहस्य के सूत्र वाक्य तो नहीं। ये सब अन्वेषण और शोध के विषय हो सकते हैं।

 

आलोच्य उपन्यास से कुछ अंश उधृत कर रहा हूं, जो संतोष जी की कथन की शैली के साथ साथ कथ्य भी बताते हैं।

 

महाराज आपका यह पुत्र वसुओं के समान कांतिमान है। भविष्य में यह खुले हाथों धन दान करने वाला दानवीर राजा कहलाएगा। इसकी ख्याति चारों दिशाओं में कपूर की भांति फैलेगी। प्रजा भी ऐसे दानवीर और पराक्रमी राजा को पाकर सुख समृद्धि का जीवन व्यतीत करेगी। राजा हर्यश्व और सभी रानियां राजपुरोहित के कहे वचनों से अत्यंत प्रसन्न थी।

 

वसुमना के जन्म के बाद से ही राजा हर्यश्च ने माधवी के कक्ष में आना बंद कर दिया था। इतने दिन तो माधवी को वसुमना के कारण इस बात का होश न था पर राजमहल से प्रस्थान की अंतिम बेला में उसने सोचा पुरुष कितना निर्माही होता है।

 

गालव निर्णय ले चुका था ठीक है राजन, आप माधवी से अपने मन की मुराद पूरी करें।

 

आज से ठीक एक वर्ष पश्चात में माधवी को तथा 200 अश्वों को आकर ले जाऊंगा।

 

इतने अश्वों का विश्वामित्र जैसे तपस्वी करेंगे क्या? उनके आश्रम का तपोवन तो अश्वों से ही भर जाएगा। मेरे मन में तो यह प्रश्न भी बार-बार उठता है कि गुरु दक्षिणा में उन्होंने ऐसे दुर्लभ अश्वों की मांग ही क्यों की?

 

क्या कह रहे हो मित्र, माधवी का तो स्वयंवर होने वाला था। हां गालव स्वयंवर तो हुआ था देवी माधवी का, किंतु उन्होंने उस स्वयंवर में पधारे अतिथियों में से किसी का भी चयन न कर तपोवन को स्वीकार किया। यहां तक कि उन्होंने हाथ में पकड़ी वरमाला तपोवन की ओर उछालते हुए कहा कि मैं तुम्हें स्वीकार करती हूं। हे तपोवन, आज से तुम ही मेरे जीवन साथी हो।

 

इस तरह की सरल सहज संवाद शैली में कर्म से तपोवन तक के रूप में सुप्रसिद्ध लोकप्रिय बहुविध वरिष्ठ कथा लेखिका, कई किताबों की रचियता और देश विदेश के साहित्यिक पर्यटन की संयोजिका, ढ़ेर सारे सम्मान और पुरस्कार प्राप्त संतोष श्रीवास्तव जी का यह साहित्यिक सुप्रयास स्तुत्य है। मन झिझोडऩे वाला असहज कथानक है। स्वयं पढ़ें और स्त्री विमर्श पर तत्कालीन स्थितियों और आज के परिदृश्य का अंतर स्वयं आकलित करें।

(विनायक फीचर्स)

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