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सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत बनाने की आवश्यकता

कुमार कृष्णन

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कुमार कृष्णन

लोक कल्याणकारी राज्य में स्वास्थ्य का सवाल सरकार की संवैधानिक जवाबदेही है ले​किन हो रहा है इसके विपरीत। स्वस्थ लोकतंत्र में सरकार की सारी नीतियां सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत किये जाने की होनी चाहिए। जन विरोधी,कारपोरेट संचालित स्वास्थ्य एजेंडा, लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के प्रति आवश्यक संवेदनशीलता का अभाव आर्थिक लूट खसोट वाली नीति का परिचायक है। ​कोविड महामारी के दौरान इसे लोगों ने महसूस किया है। सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र की कमजोरी, अक्षमता और चुनौतियों से सफलतापूर्वक निबटने में कमी स्पष्ट रूप से सामने आयी। सरकार द्वारा पर्याप्त सहायता उपलब्ध कराने में विफलता के कारण बिना इलाज के बड़ी संख्या में लोगों की मौत हुईं।आरंभ में निजी क्षेत्र को लॉकडाउन के द्वारा प्रतिबंधित किया गया,लेकिन बाद में अवांछित मुनाफे के​ लिए उस समय के हालात का फायदा उठाया गया। आईसीएमआर द्वारा जारी अप्रभावी प्रोटोकॉल ने संकट को काफी बढ़ाया। नतीजतन आम लोगों को काफी खराब परिणाम झेलने पड़े। इन विफलताओं के बावजूद स्वास्थ्य के क्षेत्र में वित्त्त पोषण स्थिर बना हुआ है। सरकारी स्वास्थ्य पर किया जा रहा 1.9 फीसदी खर्च वैसे ही अपर्याप्त है । इससे राजनीतिक इच्छा शक्ति में कमी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। निजी क्षेत्र बिना किसी निगरानी के अत्यधिक शुल्क की वसूली करता है। सरकारें अब बीमा आधारित मॉडल की ओर बढ़ रही है। 2025 तक निजी बीमा कवरेज 30 फीसदी तक बढ़ाना है। राज्य द्वारा संचालित अस्पतालों को बीमा आ​धारित संस्थाओं में बदला जा रहा है। चेन्नई इसका उदाहरण है। नीति आयोग ने राज्यों को जिला अस्पतालों का निजीकरण करने का निर्देश दिए है। उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में पहले ही निजी अस्पतालों को लंबी अवधि के लिए पट्टे पर दिए जाने का फैसला लिया है। इस तरह की नीति सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के स्थायित्व, कुशल कार्य संचालन और पहुंच पर खतरा है। इन्हीं महत्वपूर्ण सवालों को लेकर देश भर के विभिन्न राज्यों के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का जमावड़ा नई दिल्ली स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान में हुआ।
देश भर से 13 राज्यों के प्रतिनिधि, विभिन्न नेटवर्क और अन्य नागरिक समाज संगठनों के साथी सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और एकजुटता जाहिर करने के लिए गांधी पीस फाउंडेशन, नई दिल्ली में इकट्ठे हुए। सम्मेलन के आयोजन और उसकी भूमिका के बारे में बात रखते हुये अमूल्य निधि ने कहा कि सार्वजनिक स्वास्थ्य आज गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है और हमें वर्तमान में स्वास्थ्य में निजीकरण को रोकने के साथ ही जिला अस्पतालों को बचाने, मजदूरों के स्वास्थ्य के साथ तमाम वंचित वर्गों के स्वास्थ्य अधिकारों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक संगठित और साझा प्रयास की अत्यंत आवश्यकता है।
वहीं प्रोफेसर इमराना कदीर का कहना था कि मौजूदा जन-विरोधी कॉर्पोरेट संचालित स्वास्थ्य एजेंडा, लोगों के बेहतर स्वास्थ्य के प्रति जरूरी संवेदनशीलता का अभाव और आर्थिक लूट-खसोट वाली नीति का परिचायक है जिसका सबसे बुरा प्रभाव देश के करोड़ों दलित-वंचित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, विकलांग एवं आर्थिक रूप से कमजोर समुदायों को झेलना पड़ रहा है। स्पष्ट है कि यह एक लोक कल्याणकारी राज्य द्वारा अपने दायित्वों और संवैधानिक जवाबदेही से पल्ला झाड़ने का प्रयास है। जन स्वास्थ्य के एजेंडे की इस निरंतर अनदेखी का भयावह परिणाम कोविड-19 महामारी के दौरान बड़े पैमाने पर दिखा जब सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र की कमजोरी, अक्षमता और चुनौतियों से कुशलतापूर्वक निबटने में कमी स्पष्ट रूप से सामने आई। सरकार द्वारा समय पर पर्याप्त सहायता मुहैया कराने में विफलता और ऐसे कठिन संकट के दौर में भी निजी क्षेत्र की महंगी और मुनाफा केंद्रित स्वास्थ्य सेवाओं के कारण कई लोग बिना इलाज के मर गए। अभूतपूर्व स्वास्थ्य संकट और मेडिकल इमरजेंसी के वक्त भी निजी क्षेत्र द्वारा अवांछित मुनाफे के लिए तत्कालीन हालात का फायदा उठाना निजी क्षेत्र की परोपकारी स्वास्थ्य नीति की कलई खोल देता है।यह सरकारी-निजी गठजोड़ (पीपीपी) को बढ़ावा देने वाली सरकारी नीतियों के स्वाभाविक परिणाम की तरफ इशारा भी है। स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के मुद्दे पर संजीव सिन्हा ने उत्तर प्रदेश में जिला अस्पतालों के निजीकरण के जनविरोधी प्रयास के बारे में बात रखी और कहा कि नीति आयोग ने राज्यों को जिला अस्पतालों के निजीकरण करने का निर्देश दिया है। वहीं एस आर आज़ाद ने मध्यप्रदेश में मेडिकल कॉलेज खोलने के लिए जिला अस्पतालों को निजी हितधारकों को देने के सरकारी प्रयास को सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए घातक कदम बताया। कुलदीप चाँद ने पंजाब में स्वास्थ्य सेवाओं की जमीनी स्थिति के अनुभव साझा किए। वक्ताओं ने आगे कहा कि सरकार अब बीमा आधारित स्वास्थ्य मॉडल की ओर बढ़ रही है, जिसका लक्ष्य 2025 तक निजी बीमा कवरेज को 30% तक बढ़ाना है,अर्थात राज्य द्वारा संचालित अस्पतालों को मजबूत करने की बजाय उन्हें बीमा-आधारित संस्थाओं में बदला जा रहा है।
डॉ वंदना प्रसाद का कहना था कि स्वास्थ्य केंद्र का नाम आरोग्य मंदिर करना गलत है। रोजी, रोटी, मकान, पर्यावरण के साथ साथ शांति, न्याय और डर भी आज स्वास्थ्य से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दे है। जया वेलंकर ने महिला हिंसा और महिलाओं के विभिन्न मुद्दों को स्वास्थ्य के व्यापक मुद्दों के साथ जोड़कर कार्य करने की करने की जरूरत पर जोर दिया।
स्वास्थ्य के अधिकार सत्र में बसंत ने ह​रियाणा और अनिल गोस्वामी ने राजस्थान के स्वास्थ्य अधिकार कानून, गोरंग महापात्रा ने स्वास्थ्य अधिकार कानून देश के हर राज्य में बनाकर लागू करने की बात रखी तथा महजबीन भट ने जम्मू कश्मीर में स्वास्थ्य की परिस्थितियों पर अपनी बात रखी। दिनेश एबरोल ने स्वास्थ्य, दवा नीति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का उदाहरण देते हुये दवाओं के पेटेंट जेनेरिक दवाओं और सबके लिए गुणवत्तापूर्ण सस्ती दवाओं की वकालत की और कहा कि सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण सस्ती दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना सरकार की ज़िम्मेदारी है।
मजदूरों के स्वास्थ्य अधिकार और सुरक्षा के मुद्दे पर जगदीश पटेल ने नीति, कानून और जमीनी स्तर पर मजदूरों के स्वास्थ्य के मुद्दे पर संघर्ष को मजबूत करने की बात कही। अमितावा गुह ने स्कीम वर्कर्स के सामाजिक सुरक्षा, वेतन, काम की परिस्थितियों पर कई उदाहरण दिये और आईएलओ कन्वेन्शन लागू करने की बात कही। डॉ जी डी वर्मा ने सिलिकोसिस पीड़ितों के संदर्भ में मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के पीड़ितों की स्थिति पर विचार रखे। सिलिकोसिस पीड़ित संघ के दिनेश रायसिंग ने सिलिकोसिस पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय और देश भर के लाखों मजदूरों के हक की बात कही।
प्रोफेसर रितु प्रिया ने कहा कि स्वास्थ्य व्यवस्था लोगों के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह होना चाहिए और समुदाय की भागीदारी से कार्य के मॉडल विकसित करने का सुझाव दिया। इस सम्मेलन में 13 राज्यों के प्रतिनिधियों, विभिन्न साथी संस्थाओं, नेटवर्क संगठन के प्रतिनिधि और वंचित समुदाय के लोगों ने अपनी बात रखी।
सम्मेलन में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की जवाबदेही, मजबूती और संरक्षण सुनिश्चित करने,सार्वजनिक अस्पतालों और सेवाओं के निजीकरण या आउट सोर्सिंग पर रोक लगाने,श्रमिकों की व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा और अन्य प्रासंगिक श्रम अधिकारों पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन सम्मेलनों में पारित प्रस्तावों का पालन सुनिश्चित करने,स्वास्थ्य देखभाल के सभी स्तरों के लिए “सभी के लिए स्वास्थ्य” का दृष्टिकोण अपनाने, सभी क्षेत्रों की नीतियों में स्वास्थ्य संबंधी विचारों को एकीकृत करने के लिए संस्थागत व्यवस्था को सशक्त करने,
स्वास्थ्य नीतियों में हाशिए पर पड़े और वंचित समुदायों को प्राथमिकता देने पर्यावरण और आम लोगों की स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति का केंद्र बनाने की मांग की गयी। साथ ही यह कहा गया कि “सभी के लिए स्वास्थ्य आंदोलन” सामाजिक न्याय और सम्मान की एकीकृत मांग का प्रतिनिधित्व करता है।

( कुमार कृष्णन –विनायक फीचर्स)

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