हिमाचल-उत्तराखंड में कुदरती कहर सरकारी देन !

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चंडीगढ़-मनाली हाइवे की कीमत पर दी 40,000 पेड़ों की ‘बलि’ और चार धाम हाइवे प्रोजेक्ट में भी ऐसा ही कुछ

हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में मानसूनी-कहर से हाहाकार मचा है। यह कुदरती-कहर इंसानी गलती है और इसके लिए सीधेतौर पर दोनों राज्यों की सरकारें जिम्मेदार हैं। जिनके कार्यकाल में हाइवे प्रोजेक्ट्स को मंजूरी मिली और उनका निर्माण कार्य चला।

माहिरों के मुताबिक ऐसी कुदरती आपदाएं अंधाधुंध निर्माण, व्यापक वनों की कटाई और अनियमित बुनियादी ढांचे के विस्तार से पैदा होती हैं। पर्यावरण विशेषज्ञ, स्थानीय निवासी और वैज्ञानिक अध्ययन एक खतरनाक प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं। मसलन, सड़कों, सुरंगों और बांधों के लिए पहाड़ों को जितना अधिक वश में किया जाता है, उतना ही अधिक वे भूस्खलन, अचानक बाढ़ और डूबते शहरों के रूप में प्रतिशोध लेते हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट 2023 के अनुसार, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड दोनों ने पिछले दशक में कुल मिलाकर 1,500 वर्ग किलोमीटर से अधिक वन क्षेत्र खो दिया है। इस नुकसान का एक बड़ा हिस्सा हाइवे चौड़ीकरण, जलविद्युत परियोजनाओं और पर्यटन की खातिर बुनियादी ढांचे के कारण है।

हिमाचल प्रदेश में एनएचएआई चंडीगढ़-मनाली राजमार्ग के चार-लेन विस्तार कर रहा है। नतीजतन, बिलासपुर और कुल्लू के बीच 40,000 से अधिक पेड़ों की कटाई होगी, जैसा कि 2023 में एक आरटीआई प्रश्न के उत्तर में बताया गया था। उधर, देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान के एक वरिष्ठ पारिस्थितिकीविद् और पूर्व संकाय सदस्य कहते हैं, जंगल प्राकृतिक अवरोधों के रूप में कार्य करते हैं। जो ढलानों को स्थिर करते हैं और कटाव को रोकते हैं। जब इन्हें पर्याप्त पुनर्स्थापना के बिना साफ किया जाता है, तो भूस्खलन लाजिमी हो जाता है। यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ तीर्थ स्थलों को जोड़ने के लिए 2016 में शुरू की चार धाम राजमार्ग परियोजना में उत्तराखंड के कुछ सबसे संवेदनशील क्षेत्रों से होकर 889 किमी लंबी सड़कों और कई सुरंगों का निर्माण शामिल है। हालांकि इस परियोजना का उद्देश्य कनैक्टिविटी और सुरक्षा को बढ़ावा देना है, लेकिन पर्यावरणविदों का तर्क है कि इसकी भारी पारिस्थितिक लागत आई है।

पर्यावरणविद् रवि चोपड़ा की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने 2022 की रिपोर्ट में चेतावनी दी। जिसके मुताबिक पहाड़ों को काटने और विस्फोट करने की तकनीक ने ढलानों को अस्थिर कर दिया और बार-बार भूस्खलन को बढ़ावा दिया। मलबे के अनुचित निपटारे और जल निकासी प्रणालियों ने पहाड़ी स्थिरता को और कमज़ोर कर दिया। इसी तरह, हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति और किन्नौर ज़िलों में सतलुज और चिनाब नदियों के किनारे कम से कम 12 बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। हिमाचल प्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, बार-बार विस्फोट और नदी के बहाव को मोड़ने से ढलानों का टूटना और नदी तट का कटाव हुआ है। उत्तराखंड के एक भूविज्ञानी कहते हैं, जलविद्युत परियोजनाओं में अक्सर पहाड़ों में गहरी सुरंगें खोदना शामिल होता है। ये प्राकृतिक जल प्रवाह को बाधित करती हैं और चट्टानों की परतों को तोड़ देती हैं। जिससे यह क्षेत्र भूकंपीय गतिविधियों और भूस्खलन के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाता है। गौरतलब है कि 2023 की शुरुआत में उत्तराखंड का जोशीमठ शहर तब सुर्खियों में आया, जब वह सचमुच डूबने लगा। उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, घरों, सड़कों और मंदिरों में दरारें आ गईं, जिससे 800 से ज़्यादा परिवारों को विस्थापित होना पड़ा।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन  ने उपग्रह आंकड़ों के माध्यम से पुष्टि की कि जोशीमठ जनवरी, 2023 में केवल 12 दिनों में 5.4 सेमी धंस गया था। राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान और वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान की एक बाद की रिपोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि तपोवन-विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना के लिए सुरंग खोदने और वर्षों से चल रहे अनियोजित शहरी विकास ने भूमि धंसने में योगदान दिया। शहरी मामलों के विशेषज्ञ टिकेंद्र सिंह पंवार कहते हैं, हमने वैज्ञानिकों की दशकों पुरानी चेतावनियों को नज़रअंदाज़ किया है और अब इसके परिणाम भुगत रहे हैं। प्रमुख बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए अनिवार्य पर्यावरणीय प्रभाव आकंलन अक्सर जल्दबाजी में, खंडित या पूरी तरह से दरकिनार कर दिए जाते हैं। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा 2023 में किए ऑडिट में पाया गया कि उत्तराखंड में 60% से ज़्यादा जलविद्युत और सड़क परियोजनाएं संचयी प्रभाव आकलन करने में विफल रहीं। उन्होंने क्षेत्र पर पड़ने वाले संयुक्त दबाव पर विचार किए बिना केवल व्यक्तिगत परियोजनाओं के प्रभावों का मूल्यांकन किया।

माहिरों की मानें तो प्रत्येक सड़क या बांध अपने आप में हानिरहित लग सकता है। हालांकि अधिकांश पर्यावरणविदों का कहना है कि जब दर्जनों सड़क या बांध एक-दूसरे के बहुत पास-पास संचालित होते हैं तो वे एक महत्वपूर्ण खतरनाक मुकाम बन जाते हैं। हिमाचल और उत्तराखंड दोनों में पर्यटन और पहाड़ी शहरों की ओर प्रवास में वृद्धि देखी गई है। हालांकि यह वृद्धि बिना किसी पर्याप्त योजना या सीमा के हुई है। माहिर पर्यावरण-संवेदनशील विकास, बेहतर आपदा तैयारी और उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में निर्माण पर सीमा लगाने की दिशा में नीति में बदलाव की वकालत करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वास्तुकार डॉ. रोमी खोसला कहते हैं, हिमालय एक युवा, भूकंपीय रूप से सक्रिय पर्वत श्रृंखला है। इसके साथ गलत व्यवहार करना, इसे काटना, इसके ऊपर निर्माण करना और पारिस्थितिक प्रतिक्रिया की अनदेखी करना विनाश का कारण है। जो हम अभी देख रहे हैं, वह तो बस शुरुआत है।

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