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मोहम्मद रफी : जाने वाले कभी नहीं आते…

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हरीश दुबे

कहता है कोई दिल गया, दिलबर चला गया

साहिल पुकारता है, समंदर चला गया।

लेकिन जो बात सच है, वो कहता नहीं कोई

दुनिया से मौसकी का, पयम्बर चला गया॥

यह पंक्तियां संगीतकार नौशाद ने उस समय कही थी, जब इस सदी के मशहूर गायक स्व. मोहम्मद रफी को दफनाया जा रहा था।
31 जुलाई का मनहूस दिन मोहम्मद रफी को उनके चाहने वालों के बीच से बड़ी बेदर्दी से खींच ले गया। उनका जाना संगीत संसार के एक अनुपम स्वर का रूठ जाना था।
एक गहरी खामोशी फिजा में तारी हो गई, कोई नश्तर-सा दिल में टूटकर रह गया। रफी साहब अनजाने सफर को निकल गए। एक ऐसी खनकती आवाज जैसे तराशे गए हीरे की इन्द्रधनुषी रोशनी बिखर गई हो। एक ऐसी कशिश भरी सदा जिसके पीछे मन दौडऩे लगता था। साहिर के शब्दों में:-
रफी आवाज से अभिनय करते थे ।
ओ दूर के मुसाफिर हमको भी साथ ले ले… की छटपटाहट, छू लेने दो नाजुक होठों को… की बेचैन खुमारी, सुहानी रात ढल चुकी ना जाने तुम कब आयोगेे… का थका हुआ इन्तजार, ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया… का वैराग्य, बदन पे सितारे लपेटे हुए.. की जवान सुलगन, दोनों ने किया था प्यार मगर… का आर्तनाद, मन तड़पत हरि दरशन को… का निरगुनिया मन, ये जिन्दगी के मेले दुनिया में कम ना होंगे… की तड़पा देने वाली टीस, रंग और नूर की बारात… की खामोश हसरत, यहां मैं अजनबी हूं… का हिन्दुस्तानीपन, कही एक नाजुक सी लड़की… का कमसिन शबाब, पुकारता चला हूं मैं…की मस्त सदा, परदेसियों से ना अंखियां मिलाना.. का गमें जुदाई, मैं जिन्दगी में हरदम रोता ही रहा हूं..,की तड़प, गोया हर गीत का रंग अपने आप में बेकरार कर देने वाला, दिल में उतर जाने वाला और जन्नत की सैर करा देने वाला है। इसके अलावा कुछ काफी पुराने गीत ऐसे भी हैं जिन पर समय की धूल नहीं चढ़ी बल्कि वे और आबदार हो गए। एक अवसर पर स्वयं मोहम्मद रफी ने कहा था- ‘मुझे इस मुकाम पर पहुंचाने में बहुत से लोगों का हाथ रहा है।’
एक अच्छा सिंगर बनने की ख्वाहिश लिए रफी मुम्बई अपने पिता का सिफारिशी पत्र लेकर नौशाद साहब के पास आए थे। स्वर सम्राट के . एल. सहगल उनके पसंदीदा आदर्श गायक थे।
सहगल साहब को देखना भी उनके लिए किसी इबादत से कम नहीं था। किस्मत ने उन्हें सहगल साहब के साथ गाने का मौका शाहजहां में दिलवाया। सहगल साहब के साथ केवल दो शब्द गाकर रफी इतने आत्मविभोर हो गए जैसे दोनों जहां मिल गए हों। नौशाद ने ‘पहले आप’ में रफी को पहली बार स्वतंत्र रूप से गाने का मौका दिया। फिर तो उन्होंने कई फिल्मों में गाया और अपनी विशिष्ट पहचान बनाते चले गए। संघर्ष के दौर में कई लोग रफी के हमदर्द बने और उनकी मखमली आवाज़ का नशा अवाम के सर चढ़कर बोलने लगा। उनकी आवाज का जादू असर करता गया और वे मौसकी के मोती दामन में भरते गए। परिवार का सहयोग, प्रतिभा का धधकता ज्वालामुखी, चढ़ती जवानी का जोश और ऊपर वाले की मेहरबानी। रफी पहले रफ्ता-रफ्ता और फिर पूरी तेजी से बढ़ते चले गए। रफी की आवाज परदे पर अभिनय करने वाले पात्रों में पूरी तरह घुल जाती थी।कभी लगता दिलीप कुमार ही गा रहे हैं,जॉनी वॉकर के लिए गाते तो लगता यह जॉनी वॉकर की ही आवाज है। कुछ फिल्में उनके गायन के बूते पर सिने इतिहास में अमर हो गईं। आज भी बारादरी,हीर-राझां,कोहिनूर,उडऩखटोला,महुआ,ताज महल,मेला,अमर,मुझे जीने दो,बरसात,चिराग,प्यासा,नया दौर और जाने कितनी फिल्में हैं जो अपने मीठे सदाबहार गानों के लिए रफी की खनकती आवाज के लिए रहती दुनिया तक याद की जाती रहेंगी। एक पार्श्व गायक के लिए जो प्यार- श्रद्धा उनकी अंतिम यात्रा के दौरान उमड़े जनसमूह में देखी गई, वैसी किसी स्टार को भी नसीब नहीं होती। जब तक दुनिया रहेगी संगीत के हसीन जलसे चलेंगे, तब तक उनकी अमर आवाज गूंजती रहेगी। आज उन्हीं के गाये शब्द याद आते हैं। ‘जाने वाले कभी नहीं आते जाने वालों की याद आती है…।

(विनायक फीचर्स)

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